शनिवार, 17 अप्रैल 2010

आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे।

    14 अप्रैल की दृष्टिकोण की पोस्ट ‘‘मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं !’’ कुछ महानुभावों को इस कदर नागवार गुज़री कि उन्होंने हमारे ब्लॉग पर लम्बी लम्बी टिप्पणियों की बौछार के ज़रिए दृष्टिकोण को पूरी तौर पर नक्सल समर्थक घोषित कर दिया। कुछ सज्जन तो इस कदर आहत हुए कि उन्होंने बाकायदा अपने ब्लॉग पर हमारी पोस्ट के खिलाफ पूरी की पूरी पोस्ट लिख मारी ( क्या मैं भी नक्सली बन जाऊँ)। एक महाशय तो पोस्ट लिखने की जल्दबाज़ी में शीर्षक को उलटकर अपनी बौद्धिकता झाड़ने पर उतारू हो गए। उन्होंने लाल रंग को लाल सांड बनाकर एक अच्छी खासी बकवास लिख मारी (नारेबाज़ी से मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते)। कुछ बुद्धिजीवियों ने दृष्टिकोण के मेल पर माँ-बहन के पवित्र श्लोकों से हमारा अभिनन्दन किया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये वही देशभक्त हैं जो अपने अलावा हर एक इन्सान को देशद्रोही मानते हैं।
    इस पूरे घटनाक्रम से एक बात जो सामने आई है वह यह कि ब्लॉगजगत में कुछ लोगों का पढ़ने -लिखने और गंभीर चिंतन से कोई ताल्लुक नहीं। ना वे टिप्पणी देने से पहले ब्लॉग पर प्रकाशित मुद्दे को ठीक से पढ़ते हैं और ना ही समझबूझ कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। न  इन्हें सामाजिक राजनैतिक इतिहास की कोई  वैज्ञानिक समझदारी हैं और ना ही देश की वर्तमान वस्तुस्थिति का इनके पास कोई ठोस विश्लेषण है। अपनी अधकचरी समझ को ही वे अन्तिम समझदारी मानकर इधर-उधर के झंडे उठाए हुए भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं।
    बड़ा ताज्जुब होता है कि आज जब देश को आज़ाद हुए बासठ साल हो चुके हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी पूरी प्रगतिशीलता खोकर शुद्ध रूप से पूँजीवादी हथियार के रूप में बेनकाब हो चुकी है इन बेचारों के पास आज भी इस पर भरोसा करने के जायज़ कारण मौजूद हैं। लोकतंत्र की जिस अलोकतांत्रिकता ने देश में अमीर-गरीब की एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी है वह इनमें से किसी को दिखाई नहीं देती। इस विभाजन रेखा के एक तरफ करोड़ों लोग ऐसे है जिन्हें सरकार ही मानती है कि वे बीस रुपए रोज़ की औसत आमदनी पर जिन्दा है और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके कुत्ते बीस हज़ार रुपए रोज़ चट कर जाते हैं। इसी भ्रष्ट लोकतंत्र के आशीर्वाद से गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, कुशासन, शोषण, दमन उत्पीड़न का जो ज़ोरदार तांडव चल रहा है वह इन्हें दिखाई नहीं देता।
    ये नक्सलियों को चुनाव के रास्ते शोषितों का कल्याण करने की सलाह दे रहे है, जैसे इन्हें पता ही नहीं कि इस देश में चुनाव किसी तरह से होते हैं। मात्र तीस-चालीस प्रतिशत वोटों में से पाँच-सात प्रतिशत वोटों को घेरकर अल्पमत की सरकारें बनती हैं जो बहुमत पर राज करती हैं, ये लोग इसे लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र के ये चुने हुए नुमाइंदे संसद में बैठकर गरीबों की जगह अमीरों, पूँजीपति धन्नासेठों के लिए नीतियाँ बनाते हैं, इसी को शायद इनकी भाषा में लोकतंत्र कहा जाता है। वामपंथियों ने भी संसद के रास्ते क्रांति के फालतू सपने को संजोकर रखा है जिसका हश्र पूँजीवाद के भरोसेमंद दलाल के रूप में उनके आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में दुनिया देख रही है। जिस संसद ने पूँजीवाद की सेवा के यंत्र के रूप में दुनिया में जन्म लिया हो उससे आम आदमी मजदूर वर्ग की सेवा की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज की तारीख में संसद में कोई भी शक्ति ऐसी नज़र नहीं आती है जो संसद से सही मायने में जनतांत्रिक सरोकारों के नतीजे हासिल करने का संघर्ष कर रही हो।
    हमने अपने आलेख में स्पष्ट तौर पर यह संकेत हैं कि हमारा नक्सली विचारधारा और कर्मकांड से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन फिर भी कुछ लोगों द्वारा हमारे ब्लॉग और अन्य ब्लॉगों पर जो हमारी पोस्ट पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए थे, पर दी गई टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि प्रवृत्ति में फासीवादी संस्कृति होने के कारण इन लोगों में दूसरों की बातों को सुनने समझने का ज़रा भी धैर्य बाकी नहीं है। हमने जो मूल मुद्दा उठाने की कोशिश की है उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र आखिरकार देश के ही लोगों के द्वारा पालित-पोषित तंत्र होता है जिसका काम होता है स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के उसूलों पर जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-प्रांत से निरपेक्ष रहकर देशवासियों के हित में नीतियाँ बनाना और कार्यान्वित करना। तंत्र यदि यह काम करने में अक्षम हो जाता है जैसा कि भारत में हो चुका है, तो उसकी खबर देशवासियों को ही लेना पड़ती है। उसमें आ गई विकृतियों को सुधारने के लिए संघर्ष भी देशवासियों को ही करना पड़ता है। दुर्भाग्य से इस देश का किसी ना किसी रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली सभी संसदीय पार्टियाँ जन अपेक्षाओं के अनुसार काम करने की जगह अपने-अपने समर्थक कार्पोरेट घरानों के हित साधने में ही लगी हुईं है। सबसे हैरत की बात सर्वहारा मजदूर-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ भी अपने पूँजीवादी आंकाओं को खुश करने के लिए आम जनता पर गोलियाँ चलाने का इतिहास रचती देखी जाती हैं। ऐसे में देश की गरीब आम जनता की हालत का वास्तविक अन्दाज़ लगा पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। इन्हीं बातों को इंगित करने के लिए हमने प्रतिप्रश्न किया है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के तमाम सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ? इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें भी हथियार उठा लेना चाहिए जिनके सवाल  अब तक हल नहीं हुए हैं।
    इनमें से कुछ लोगों ने हमारे सामने यह सवाल उठाया है कि नक्सलियों ने आज तक कितने पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों नेताओं को मारा है बताओ। हमारा सोचना है कि चाहे ग्रामवासी हों चाहे, गोलबंद नक्सली, पूँजीपति, नेता, अधिकारी या सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस प्रशासन के लोग, किसी को भी किसी का खून बहाने का कोई अधिकार नहीं है। मगर इतिहास बताता है कि सत्ताएँ कभी अपना वर्ग चरित्र नहीं बदलतीं और जन साधारण का शोषण करती रहती हैं इसलिए  व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन का मसला तो हमेशा मौज़ू रहेगा। देश में सही राजनैतिक समझदारी के साथ एक सामाजिक राजनैतिक पुनर्जागरण आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है ताकि आज़ादी के जो सपने पूरे नहीं हो सके हैं उन्हें पूरा करने की दिशा में सत्ता शासन-प्रशासन की मशीनरी को मजबूर किया जा सके। दुर्भाग्य की बात है कि वह बुद्धिजीवी वर्ग जिसे पढ़ने लिखने का सौभाग्य मिला, जिसने पढ़-लिखकर परिस्थितियों को और भी बारीकी से समझने की क्षमता हासिल की है वह समाज के गरीब, शोषित पीड़ित तबके के सवालों से जूझने की बजाय अपने ज्ञान को संसाधनों की लूट का लाभ उठाने में ही झोक देता है। देश के संसाधनों पर देश के हर व्यक्ति का हक होना चाहिए चाहे वह गरीब हो या अमीर, इस बात को एक अनपढ़ व्यक्ति से बेहतर पढ़ा-लिखा व्यक्ति समझ सकता है। मगर पढ़े लिखे लोगों में इस नैसर्गिक न्याय के प्रति संवेदनशीलता का अंश मात्र भी इन दिनों नहीं दिखाई दे रहा है।
    हमने उन दलाल मानसिकता के लोगों की बात की है जो किसी भी तरह के संघर्ष करने वालों को अतिवादी कहते हैं, अँग्रेज़ों के ज़माने में भगतसिंह को भी यह सुनना पड़ा और सुभाष बोस को भी। आज भी चारों ओर ज़मीनी संघर्ष चलाने वालों को यह सुनना पड़ता है। एक बच्चे ने हमें सलाह दी है कि हम भगतसिंह का नाम नक्सलवादियों के साथ ना जोड़े, जो कि हमने जोड़ने का बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया है। लेकिन  यह इशारा जरूर करने का प्रयास किया है कि मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में जनता के संघर्षो के प्रति असंवेदनशीलता वैसी ही है जैसी अंग्रेज़ों के ज़माने में हुआ करती थी। नक्सलियों की लड़ाई का तौर तरीका गलत हो सकता है मगर वे जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहें है देशवासियों को चाहिए कि वे उन्हें समझने की कोशिश करें। आखिरकार कोई भगतसिंह से नफरत नहीं करता भले ही उनके दर्शन को पसंद करे ना करे।  नक्सलवादी आन्दोलन दिशाहीन और मार्क्सवादी विज्ञान व क्रांति की राह से पूरी तौर पर भटका हुआ होने के बावजूद भी आखिरकार संग्राम तो है। हज़ारों नौजवान युवक-युवतियों ने इसमें अपने प्राण गंवाएं हैं और गंवाते चले जा रहे हैं। जब हम उन पचहत्तर पुलिस वालों की मौत पर मातम मनाते हैं तो क्या यह भी जरूरी नहीं कि हमारे ही देश के नागरिक होने के नाते उन नक्सलियों के दुख-तकलीफ को भी करीब से जानने का प्रयास किया जाए जिनके प्रति हमारा नज़रिया अंततः पूँजीपति वर्ग का तैयार किया हुआ नज़रिया है। आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे। 
    अंत में भगतसिंह का एक कोटेशन याद करने की बेहद जरूरत महसूस हो रही है ताकि मूल बात को कुछ गहराई से समझा जा सके। भगतसिंह ने कहा था कि -‘‘भारतीय मुक्ति संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम को शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे ब्रिटिश हों या भारतीय।’’

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!

    जबसे दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला करके अपनी ताकत का एहसास कराया है तब से तमाम मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में नक्सलवादियों के खिलाफ अनोखा आक्रोश फूटा पड़ रहा है। यह कर डालों, वह कर डालों, ईंट से ईट बजा दो, नेस्तोनाबूद कर डालों ऐसे कई एक जुमले प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीड़िया में रोज़ाना सुनाई दे रहे हैं। नपूंसकों से इससे ज़्यादा की उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती। समाज के वास्तविक ताने-बाने के प्रति सूरदासी भाव बनाए रखकर, कूलर ए.सी. की ठंडक में घर-दफ्तर में बैठकर सुविधाभोग करते हुए किसी के भी खिलाफ कागज़ काले करने और स्टूडियों में बकवास करने के धंधे से अच्छा तो दूसरा कोई धंधा होता ही नहीं। सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन शूरवीरों की कलम या ज़बान से देश के दयनीय सामाजिक हालातों पर कभी कोई बात नहीं निकलती। दरअसल ये सामाजिक दुर्व्यस्था का लाभ उठा रहे उन्हीं दलालों की परम्परा के वाहक दलाल हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा के प्रतिनिधियों को भी उन दिनों अपनी दलाल मानसिकता से कोस कोस कर अंग्रेज प्रभु को खुश करने का पराक्रम किया था। भगतसिंह को आतंकवादी इन्होंने ही कहा था और उनकी फांसी का मूक समर्थन भी इन्होंने ही किया था।  
    नक्सलियों की अव्यावहारिक राजनीति के विरोध का अधिकार सुरक्षित रखते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि नक्सल समस्या, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों भारतीय पूंजीवाद को सत्ता के हस्तांतरण के कारण, आज़ादी के बाद आम जनसाधारण मजदूर वर्ग का सपना पूरा ना होने की हताशा से उपजी समस्या है। इसको इस तरह कब तक हम पूँजीवादी व्यवस्था की एकमात्र आँख से देखते रहेंगे! क्या आज़ादी के बासठ साल बाद भी हम हमारे देश की गरीब आम जनता, मजदूर, किसानों के प्रश्नों के बारे में गंभीरता से सोचने का नैतिक कर्तव्य निभाना नहीं चाहते। समस्या को अगर इंसानियत के नाते से देखने का प्रयास किया जाएगा तो, अपना घर-बार सुख-सुविधा छोड़कर वर्षो से दर-दर भटक रहे इन बागियों के प्रति अपने आप सहानुभूति उभरने लगेगी। यह बात अलग है कि नक्सलियों की राजनैतिक समझ और चुने गए रास्ते को लेकर मतभेद हों मगर यह तय है कि किसी भी हालत में विघटनकारी आतंकवादियों और नक्सलवादियों को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता, हालाँकि हत्याएँ दोनों कर रहे हैं। आखिर कब तक हम हाशिए पर पड़ी देश की बहुसंख्य गरीब आबादी के हितों को अनदेखा करके विकास की बातें करते रहेंगे ? किसी का तर्क हो सकता है कि -जब तक नक्सली हथियार नहीं डालते तब तक उनके साथ सहानुभूति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता !!!! तो हमारा प्रतिप्रश्न है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ?
    यह कहना बेहद आसान है कि नक्सली जघन्य हत्यारे हैं, खूनी हैं, क़ातिल हैं, जनविरोधी है, जनतंत्र विरोधी हैं, राष्ट्रद्रोही हैं, मगर जब किसी की जान पर ही बन आई हो तो यह कुतर्क भी किया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में तो भारतीय कानून भी आत्मरक्षा में हथियार उठाने की इजाज़त देता है। क्या इस कुतर्क के साथ यह तर्क जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण अंचलों में विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में शोषण, दमन, उत्पीड़न, सभ्य समाज की निर्दयी लूट-खसोट, व्यभिचार, इस कदर व्याप्त है कि वहाँ के लोगों के सामने मरता क्या करता की स्थिति है। गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, तो है ही शिक्षा, इलाज की मामूली व्यवस्थाएँ तक नहीं है, आधुनिक सुख-सुविधाएँ जो दो-चार प्रतिशत शहरी लोगों द्वारा भोगी जा रही हैं, वह तो बहुत दूर की बात है। बस मौत एक सच्चाई है, किसी ना किसी रूप में आनी ही है, चाहे भूख के रास्ते आए, चाहे प्यास के रास्ते, चाहे बीमारी के रास्ते, चाहे ज़िल्लत उठाकर रोज़-रोज मरें, चाहे पुलिस की गोली से एक बार ही में मौत आ जाए़, मरना तो तय है। तब अगर कोई इन्सान मजबूर होकर यह सोचता हैं कि नक्सली बनकर मरने में क्या बुराई है, तो इसमें उसका क्या कुसूर है। इस चिन्तन को उसके भीतर रोपने की वस्तुस्थिति तो इस व्यवस्था नहीं ही पैदा की है।
    आम जनसाधारण की आंकाक्षाओं पर सौ प्रतिशत् खोटा उतरने वाली इस व्यवस्था के लिए चिंतन का यह एक बेहद महत्वपूर्ण और बड़ा प्रश्न है और इस पर सोचना उनके लिए बेहद जरूरी है कि यदि अवाम में मौत को गले लगाने का जज़्बा पैदा हो गया, जैसा कि नक्सलवादियों में है, और हर इन्सान अपनी कुरबानी की तैयारी के साथ अगर अपने ऊपर हो रहे जुर्म-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए उठ खड़ा हो गया तो शायद उनके तोपखानों में इतना गोलाबारूद भी नहीं होगा जो देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी को नष्ट कर सके, क्योंकि आखिरकार यह प्रश्न देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी के हितों से जुड़े हुए प्रश्न हैं।इससे आंख मूँदकर नहीं चला जा सकता।
    बुद्धिजीवियों में इस मुद्दे पर हो रही अजीबोगरीब प्रतिक्रियाएँ देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई सांड लाल रंग को देखकर भड़क रहा हो। चिंता का विषय है कि आखिरकार मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!
              

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नक्सलवाद-खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है

देश में पूँजीवादी शोषण, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, धर्माध साम्प्रदायिकता, जातिवाद, गरीबी, बेरोजगारी और इससे उपजी अनैतिकता, लोभ-स्वार्थ जनित असामाजिक गतिविधियाँ, और भी ऐसे कई मुद्दों को दरकिनार करते हुए अभी कल ही चिदम्बरम ने नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया था कि आज छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने अब तक की सबसे बड़ी कार्यवाही को अंजाम देते हुए ‘पूँजीवादी स्टेट मशीनरी’ को भारी क्षति पहुँचाई है। देखा जाए तो देश में बदहाली की जिम्मेदार ‘स्टेट मशीनरी’ की रक्षा में लगे लाखों भारतीयों के मुकाबले महज़ पचहत्तर नौजवानों का क़त्लेआम संख्या के लिहाज़ से कोई खास मायने नहीं रखता लेकिन इस घटना का निहितार्थ बहुत गहरा है।
अभी कुछ ही महीनों पहले मध्यप्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री को उनके चुनाव क्षेत्र से टेलीफोन पर नक्सलियों के नाम से धमकी सी दी गई थी। मामला चूँकि मंत्री महोदय का था तो पुलिस ने अतिरिक्त तत्परता बरतते हुए धमकी देने वाले उन दो तथाकथित नक्सलियों को ढूँढ निकाला जो कि अपनी किसी व्यक्तिगत परेशानी में मुब्तिला, मंत्री महोदय के चुनाव क्षेत्र के अत्यंत दूरदराज के किसी गाँव के बच्चे निकले। बात आई-गई हो गई लेकिन इस घटना से यह खुलासा होता है कि सभी तरह के प्रतिबंधों के बावजूद भी नक्सल आन्दोलन मानसिक धरातल पर देश के कोने-कोने में जनमानस के बीच जा पहुँचा है। नक्सल आंदोलन का इतिहास, ध्येय, सोच-विचार, सिद्धांत, आदि-आदि कुछ भी पता ना होने के बावजूद, अन्याय के विरुद्ध एक उचित रास्ते के रूप नक्सलवाद जन-साधारण की चेतना में घर करता जा रहा है।
पूँजीवादी राज्य के लिए इससे बड़ी खतरे की घंटी दूसरी नहीं हो सकती। लेकिन सबसे दयनीय बात यह है कि सरकारें इससे निपटने के लिए ताकत के इस्तेमाल के अलावा दूसरा कोई विचार मन में नहीं लाना चाहती। आज सेना को छोड़कर, पुलिस-प्रशासन और जो कोई भी उपलब्ध पेरा मिलिट्री फोर्सेस हैं उनकी ताकत को नक्सलियों के खिलाफ इस्तेमाल कर स्टेट मशीनरी इस लघु गृहयुद्ध को जीतना चाहती हैं जो कि आयतन के रूप में लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हो सकता है कल जब आस-पड़ोस के दुश्मनों से भी ज़्यादा बड़े ये दुश्मन हो जाएँ तो जल-थल-वायुसेना को भी अपने ही इन भारतीय भाइयों का खून बहाने के लिए तैनात कर दिया जाय। इसका अंतिम नतीजा जो हो सकता है वह यह कि देश के कोने-कोने नक्सल नाम का हर प्राणी ज़मीदोज़ कर दिया जाए, मगर चेतना में जो नक्सलवाद बैठा हुआ है उसका क्या होगा इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी सरकार को नहीं है। देर-सबेर चेतना में बैठा नक्सलवाद फिर संगठित होकर सामने आएगा ही।
हम कई बार कई लोगों के मुँह से नक्सलियों की प्रशंसा सुनते रहते है, छोटे-मोटे अन्याय से परेशान होकर लोग सीधे नक्सली बनने की बातें करने लगते हैं। इससे बड़ी असफलता भारतीय राज्य की और कुछ नहीं हो सकती कि जिन लोगों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया जा रहा है उन्हें आम जनसाधारण की बीच में सहानुभूति हासिल है। कल को जब नक्सल साहित्य के ज़रिए, जो अब तक पाबंदी के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के बीच पहुँचा नहीं है, नक्सलियों की राजनैतिक विचारधारा का व्यापक प्रचार होगा तब स्थितियाँ और भी अलग होंगी।
पूँजीवादी स्टेट मशीनरी के लिए अब भी समय है कि वह अपने भी सुधार लाए। विगत बासठ वर्षों में देश की आम जनता के साथ हुए अन्याय का वास्तविक विष्लेषण किया जाए और जनविरोधी शासन-प्रशासन को अधिक प्रजातांत्रिक, जनवादी बनाया जाए। पूँजीवादी हितों को ताक पर रखते हुए रोटी, कपड़ा, मकान की आधारभूत ज़रूरतों की पूर्ति की जाए, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय को सुलभ बनाया जाए। समाज में स्वार्थ सिद्धी और नैतिक पतन की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँ। पूँजी का सैलाब जो आम जनसाधारण, व्यापक समाज के स्थान पर चंद पूँजीपतियों की तिज़ोरी की ओर बह रहा है, उसे रोका जाए।
कुल जमा बात यह है कि चाहे नक्सली हों या पेरा मिलिट्री फोर्सेस, दोनों ही पहले इस देश की आम जनता हैं। खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है। इसलिए सरकारों को जाहिए कि अब वे पूँजीवाद और ग्लोबजाइजेशन के अंधड़ में खो गए परोपकारी राज्य की ओर वापस लौटने के बारे में गंभीरता से सोचें अन्यथा खून की नदियाँ बहने से नहीं रोकी जा सकेंगी।