रविवार, 8 अगस्त 2010

मुनि जी का अनर्गल प्रलाप ; क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।

          भोपाल में इन दिनों पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोग एक दिगम्बर मुनि के कड़वे प्रवचनों का आनन्द ले रहे हैं। वे दिगम्बर मुनि जब बैंडबाजे के साथ सड़क से गुज़रते हैं तो उनके अनुयाई महिला पुरुष तो श्रद्धा से सिर झुका लेते हैं मगर समाज के दूसरे वर्गों के लोगों को खासकर महिलाओं को परेशानी होती है या वे उन्हीं पागलों की तरह इन दिगम्बर मुनि जी को भी नज़रअन्दाज़ करती चलती हैं जो शहर में विक्षिप्त हालत में अपने बदन पर से कपड़े उतार फेंककर अक्सर यहाँ वहाँ घूमते दिखाई देते रहते हैं, यह एक प्रश्न है।
          एक सुसंस्कृत समाज में जहाँ भाँति भाँति के धर्म और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं, महज़ धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर किसी को इस तरह सड़क पर निर्वस्त्र घूमने की इजाज़त दी जानी चाहिए या नहीं इस प्रश्न को उठाने से परहेज करते हुए इससे भी बड़ा एक प्रश्न उठाने की आवश्यकता महसूस हो रही है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को भी कुछ भी ऊटपटांग बोलने की इजाज़त दी जानी चाहिए या धार्मिक प्रवचनों की आड़ में किसी प्रकार की अविवेकपूर्ण बातों को बर्दाश्त किया जाना चाहिए ?
          मुनि जी कहते हैं कि विधानसभा में खतरनाक लोग होते हैं, यह बात सुनकर सरकार के मुखिया से लेकर सारे राजनीतिज्ञ मंद मंद मुस्कुराते हुए मुनि जी से आशीर्वाद लेने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते हैं, उनमें से किसी के चेहरे पर मुनि जी के इस जुमले से कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। मुनि जी के कड़वे प्रवचन सुनने वाले प्रबुद्ध लोग भी इस बात से मंद मंद मुस्कुराकर रह जाते हैं, उनके चेहरे पर भी इस बात से कोई शिकन नहीं आती। ज़ाहिर है इस सत्य से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता मगर यह सत्य आम जनसाधारण के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण है जिसके कल्याण के लिए विधानसंभाएँ या संसद के ज़रिए प्रजातांत्रिक कर्त्तव्यों का निर्वहन किया जाता है। जब वहाँ खतरनाक लोग बैठे होंगे जिसका अर्थ है गुंडे, बदमाश, असामाजिक तत्व बैठे होंगे तो फिर आम जनता का क्या हश्र होगा यह समझा जा सकता है, मगर मुनि जी को इस संबंध में आगे कुछ नहीं कहना है।
          मुनि जी कहते हैं कि ’’अगर आप झुकना नहीं जानते तो फिर समझ लो की मुर्दा हो गए, क्योंकि मुर्दा ही ऐसा होता है जो कि झुकता नहीं।’’ अनुभवी लोग यही बात दूसरे अन्दाज़ में कहते हैं जब अंधड़ चलता है तो दूब-घास का कुछ नहीं बिगड़ता क्यों कि वह ज़मीन पर लेट जाती है परन्तु बड़े-बडे़ पेड़ जड़ से उखड़ जाते हैं। यहाँ घास के उदाहरण से जहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि आंधी गुज़रते ही जिस तरह घास दोबारा उठ खड़ी होती है फिर उसी तरह तनकर खड़े हो जाओ, वहीं मुनि जी के प्रवचन से यह समझ में आता है कि-अन्याय अत्याचार के सामने झुकना सीखो, गुंडे-बदमाश, असामाजिक तत्व जब दबाने की कोशिश करे तो उनके सामने झुक जाओ, देश में इतना कुछ अनाचार, झूठ-फरेब चल रहा है उस सबके सामने झुक जाओ, वर्ना मुर्दा कहलाओगे।
          एक दिन वे कह रहे थे, ‘‘यह देश बदलने वाला नहीं है इसलिए बेहतर है तुम खुद ही बदल जाओं।’’ इसका भी यही अर्थ है कि इस देश में जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ वर्तमान में मौजूद है वे कभी बदलने वाली नहीं है इसलिए तुम भी उन परिस्थितियों के गुलाम हो जाओ, उनके अनुसार आचरण करो। इसका अर्थ यह भी होता है कि देश में जात-पात, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर राष्ट्रीय हितों को ताक पर रख देते हैं, तुम भी रखो, एक दूसरे की गरदने काटते हैं तुम भी काटो, राजनीति में नीति नैतिकता की जो जर्जरता देखी जा रही है तुम भी उसी में लिप्त हो जाओ, आम जनता का खून चूसो, जिस तरह देश का पूँजीपति वर्ग आम जनता का आर्थिक शोषण कर रहा है तुम भी करों, सभी उत्कृष्ट मूल्यों को तिलांजलि देकर एक जानवर की तरह का जो आचरण आजकल जन मानस में देखा जा रहा है, तुम भी उसी तरह का आचरण अपना लो, आदि आदि।
          रोजाना वे दिगम्बर मुनि इस प्रकार की ऊटपटांग बातें करते रहते हैं और भी कई स्वयंभू गुरु इस तरह कि आधारहीन, अवैज्ञानिक बातों से पढ़े-लिखे लोगो तक को भरमाते रहते हैं, मगर सबसे ज्यादा ताज़्जुब की बात यह है कि देश के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, प्रगतिशील राजनैतिक पार्टियाँ, मानव अधिकार संगठन, महिला संगठन, और तमाम व्यक्तिगत एवं संस्थागत रूप से सामाजिक जद्दोजहद में लगे लोग इस विषय में चुप्पी साधे रहते हैं। क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।