सोमवार, 15 अगस्त 2011

जिंदाबाद ! इन्क़लाब !

जिंदाबाद ! इन्क़लाब !
शलभ श्रीराम सिंह
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नफ़स नफ़स, कदम कदम
बस एक फ़िक्र दम-बदम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जबाब चाहिए !
जबाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए !
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !

जहाँ अवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हो जान से
जहाँ पे लफ्ज-ए-अम्‍न एक खौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सर परस्त एक बाज़ हो
वहाँ ना चुप रहेंगे हम
कहेंगे, हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़, हमारा हक़ हमें जनाब! चाहिये !
घिरे हैं हम सवाल से हमें ज़बाब चाहिए !
ज़बाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए !
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !

यकीन आँख मूँदकर किया था जिन पे जान कर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तानकर
उन्‍हीं की सरहदों में कै़द हैं हमारी बोलियाँ 
वही हमारे थाल में परस रहे हैं गोलियाँ।
जो इनका भेद खोल दे
हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली किताब चाहिये !
घिरे हैं हम सवाल से हमें जबाब चाहिए !
जबाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए !
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !

वतन के नाम पर खुशी से जो हुए हैं बे-वतन
उन्‍हीं की आह बे-असर उन्‍हीं की लाश बे-कफ़न
लहू पसीना बेच कर जो पेट तक न भर सकें
करें तो क्‍या करें भला, न जी सकें न मर सकें
सियाह ज़िन्‍दगी के नाम
जिनकी हर सुबह ओ शाम
उनके आसमाँ को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिये!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जबाब चाहिए !
जबाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए !
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !


होशियार ! कह रहा लहू के रंग का निशान !
ऐ किसान! होशियार! होशियार! नौजवान!
होशियार! दुश्‍मनों की दाल अब गले नहीं!
सफेदपोश रहज़नों की चाल अब चले नहीं!
जो इनका सर मरोड़ दे
गु़रूर इनका तोड़ दे
वो सरफरोश आरज़ू वही शबाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें ज़बाब चाहिए ,
ज़बाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए |
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोच कर सवाल कर
किधर गए वो वायदे सुखों के ख्‍व़ाब क्‍या हुए
तुझे था जिनका इन्‍तज़ार वो जवाब क्‍या हुए
तू उनकी झूठी बात पर कभी न एतबार कर
कि तुझ को साँस साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जबाब चाहिए ,
जबाब दर सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए |
इन्क़लाब ! जिंदाबाद !
जिंदाबाद ! इन्क़लाब !


 स्‍वर्गीय श्री शलभश्रीराम सिंह जनवादी परम्‍परा के महत्‍वपूर्ण कवि रहे हैं................

मंगलवार, 17 मई 2011

नकली कम्युनिस्ट जितनी जल्दी दफन हो जाएँ, भारतीय समाज के लिए अच्छा है।

    ओसामा के खात्में से जैसे आतंकवाद मर नहीं गया है उसी तरह पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों के चुनावी पतन से आम भारतीय समाज और मजदूर वर्ग के लिए ‘कम्युनिस्ट’ नामधारी नकली मार्क्सवादियों (जो सोशल डेमोक्रेट भी कहे जाते हैं) का खतरा टल नहीं गया है। सिर्फ इतना ही हुआ है कि ये सोशल डेमोक्रेट जो कई बार व्यवहार में सीधे-सीधे फासिस्ट भी साबित हो हुए हैं, सत्ता की ताकत के इस्तेमाल से पूँजीवादी स्वार्थों की पूर्ती नहीं कर पाएँगे, ना ही सत्ता के डंडे के माध्यम से अपने फासिस्ट चरित्र गुण-धर्मों का बर्बर प्रदर्शन भी नहीं कर पाएँगे।


    यूँ तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने जन्म से लेकर अब तक अनेक ऐसी त्रृटियाँ की हैं जिनके कारण उसके एक सही क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी न होने बाबत् शक की कोई गुंजाइश ही कभी नहीं रही, परन्तु वैश्विक स्तर पर कम्युनिस्ट सत्ताओं के पतन के बाद से तो इसके चरित्र में और भी खतरनाक परिवर्तन आते देखे गए। इन्होंने खुलकर पूँजीवाद की सेवा में उतर कर भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को पूरी तरह बेच खाया। टाटा की नैनो कार के लिए वाम मोर्चा सरकार ने सिंगुर और नंदीग्राम में जिस तरह से आम जनता, किसानों पर गोली चलाई, जिस तरह से उनके कैडर ने पुलिस बलों के सहयोग से आन्दोलनरत ग्रामवासियों के घरों में धुस-धुसकर हत्याएँ और महिलाओं के साथ बलात्कार किये, वह सब घटनाएँ हरेक के ज़हन में अभी ताज़ा ही हैं। मल्टी नेशनल कम्पनियों का इस देश में सध रहा स्वार्थ किसी से छुपा नहीं है, परन्तु मजदूर आन्दोलन की समझ और अर्थव्यवस्था के ताने-बाने की वैज्ञानिक समझदारी की पृष्ठभूमि में किसी भी सर्वहारा की हितैषी पार्टी को जिस तरह से पेश आना चाहिए था, सी.पी.आई., सी.पी.एम. दोनों ही नकली कम्युनिस्ट पार्टियाँ उस तरह से कभी पेश नहीं आई।


    बाकी सब कुछ यदि छोड़ भी दिया जाए तो एक सर्वहारा की पार्टी से कम से कम क्या उम्मीद की जाना चाहिए, यही न कि वह अपने राज्य में अर्थ व्यवस्था को पूँजीपतियों का गुलाम न रहने दे, एक समाजवादी मॉडल पर उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए कदम उठाए जाएँ, प्रदेश में गरीबी-बेरोजगारी न रहे, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग आम जनता मजदूर वर्ग की बदहाली दूर करने के लिए हो सके न कि पूँजीपतियों की तिजोरी भरने में। शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिससे वैज्ञानिक चिंतन पद्धति से लैस छात्रों-नौजवानों की एक पीढ़ी खड़ी हो और अपने प्रदेश को अवैज्ञानिक चिंतन से मुक्त करें और देश को भी राह दिखाए। महिलाओं की मुक्ति के प्रश्न पर हमें बहुत खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि पश्चिम बंगाल में खासकर कोलकाता और आसपास के इलाके में ‘वैश्यावृति’ जिस तरह से पनप और फल-फूल रही है उससे वामपंथियों की छद्म क्रांतिकारिता का अच्छी तरह से खुलासा होता है। ‘सोनागाछी’ जैसा वैश्यागमन का पारम्परिक अड्डा, जिसे वामपंथियों के सत्ता में आते ही बंद हो जाना चाहिए था और उन हालात की मारी औरतों और लड़कियों के लिए वैकल्पिक रोज़गार की व्यवस्था की जाना चाहिए थी, वह न होकर कोलकाता का यह धब्बा आज भी शान से चल रहा है। जन साधारण में कुसंस्कृति, नैतिक पतन, दुराचार, भ्रष्टाचार और तमाम पूँजीवादी प्रवृत्तियाँ इस कदर घर कर गईं हैं कि जिस बंगाल के बारे में कभी यह कहा जाता था कि - what Bengal thinks today, India thinks tomorrow (बंगाल आज जो सोचता है, कल पूरा भारत सोचता है), वह बंगाल इन नकली कम्युनिस्टों के कारण आज कई दशक पीछे चला गया है और देश को देने के लिए उसके पास पूँजीवादी संस्कृति के अलावा फिलहाल तो कुछ नहीं है। यही वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियाँ अगर वास्तव में सही रास्ते पर चलकर अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर रही होतीं तो सचमुच पूरे देश को इस पूँजीवादी संकट से मुक्ति का रास्ता दिखा पातीं, मगर वह तो खुद पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, केरल के अलावा कहीं अपने पॉव पसार नहीं पाईं। यदि एक वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर संगठन के विकास की चेतना इन कम्युनिस्ट पार्टियों में होती तो इन चौतीस वर्षों में सत्ता के उपयोग से देश का कायापलट किया जा सकता था मगर इसके लिए जिस वर्ग दृष्टिकोण की आवश्यकता है उसका नितांत अभाव इन नकली कम्युनिस्टों में रहा है।
    अब रही बात ऋणमूल कांग्रेस की तथाकथित विजय की। यह तो स्पष्ट ही है कि चूँकि पश्चिम बंगाल में और कोई संसदीय पार्टी इतनी ताकतवर नहीं है जिसका राज्यभिषेक पूँजीपति वर्ग कर पाता, और चूँकि विगत कुछ वर्षों से ममता बैनर्जी जो क्रांग्रेस और दूसरी तरफ वामपंथियों की असफलताओं पर आग तापकर अपना उल्लू सीधा करने में सफल रही है, पूँजीपति वर्ग के लिए रेडीमेड एक मोहरे के रूप में उपलब्ध हो गई हैं, इसलिए इतनी आसानी से वे और उनकी पार्टी राज्य की सत्ता पर काबिज़ हो गई, जिसका अंदाज़ा पूरे देश ने पहले ही लगा रखा था। हालांकि विगत चौतीस सालों से जो कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वनवास काट रही थी वह केन्द्र में सत्तारूढ होने के बावजूद वामपंथियों के खिलाफ चल रही हवा का फायदा नहीं उठा पाई, यह भी एक मार्के की बात है जिसके कई मतलब निकलते हैं।
    बहरहाल, इस परिवर्तन से सिर्फ इतना फर्क हुआ है कि हसिया-हथौड़ा की आड़ में छुपकर पूँजीवाद की सेवा करने वाली पार्टी के स्थान पर सीधे-सीधे पूँजीवादी पार्टी सत्ता में आ गई है, इससे राज्य की हालत में कोई परिवर्तन आएगा इसकी कोई संभावना नहीं है। वही ‘टाटा घराना’ फिर यदि राज्य के किसानों की ज़मीन हड़पने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करेगा तो ममता बैनर्जी उन्हें खुश करने के लिए किसानों पर गोली नहीं चलाएँगी ऐसा लगता नहीं है, क्योंकि राज्य का चरित्र तो वही है, सीट पर चाहे कोई और क्यों न आ जाए।
    एक और बात मार्क्सवाद को गालियाँ देने वालों के लिए। अगर कोई हवाई जहाज़ हवा में उड़ता हुआ गिर पड़ता है तो हम, गुरुत्वाकर्षण और गति के नियम खोजने वाले ‘न्यूटन’ को अथवा हवाई जहाज़ का अविष्कार करने वाले राइट बंधुओं को गाली नहीं देते, गाली देते हैं उस पायलेट को जो हवाई जहाज को ठीक से सम्हाल नहीं पाया। इसी प्रकार भारत में वामपंथियों द्वारा राजनीति की की गई दुर्दशा अथवा विश्व स्तर पर कम्युनिस्ट आंदोलन ध्वस्त होने के कारण हम मार्क्सवाद या उसके जनक और विकासकर्ताओं को गाली नहीं दे सकते। मार्क्सवाद मानवता का दुश्मन नहीं है, बल्कि वह तो एक ऐसा विज्ञान है जो मौजूद समस्त विज्ञानों के समन्वय से मानव समाज के विकास का रास्ता उपलब्ध कराता है। मगर यदि वह गलत हाथों में पड़ जाए जैसा कि वह हमारे देश में सी.पी.आई. सी.पी.एम. और दूसरे तमाम अति वामपंथी कम्युनिस्टों और नक्सली संगठनों के हाथ हुआ है, तो उसकी क्षमता का अन्दाज़ा लगा पाना असंभव है। परिवर्तन इस प्रकृति, मानव समाज एवं विश्वब्रम्हांड का अनिवार्य नियम है, इसे मानव समाज के हित की दिशा में ले जाने का रास्ता बताता है मार्क्सवाद, बस इसे ठीक से समझना और सचेत रूप से लागू करने का श्रम, मनुष्य को करना पड़ता है, तब परिवर्तन होता है, समाज बदलता है। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा सोशल डेमोक्रेटिक ताकतें नकली कम्युनिस्ट जितनी जल्दी दफन हो जाए, भारतीय समाज के लिए अच्छा है।     

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अण्णा हज़ारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ; इस छोटी लड़ाई को एक बड़ी लड़ाई बनाना होगा

    देश की वर्तमान दुर्दशा के मद्देनज़र प्रख्यात गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हज़ारे की मुहीम को समर्थन न देने का प्रश्न नहीं उठना चाहिये मगर चूँकि उन्हें दूसरा गाँधी और उनकी मुहीम को दूसरा आजादी आंदोलन करार दिया जा रहा है इसलिए उन ऐतिहासिक त्रृटियों की पड़ताल करना ज़रूरी लग रहा है जिनके कारण गाँधीवादी चिन्तन देश को मौजूदा परिस्थितियों में पहुँचने से रोक नहीं सका। आज जब व्यापक जन समर्थन जुटता लग रहा है, उन्हीं त्रृटियों को दोबारा दोहराकर ज़्यादा कुछ हासिल करने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
    जन आन्दोलनो का लम्बा अनुभव रखने वाले भूतपूर्व सैनिक अण्णा हज़ारे और फिलवक्त उनके साथ एकजुट हो गए कुछ भ्रष्टाचार विरोधी बुद्धिजीवी और एन.जी.ओ. राजनीति के लोग मूलतः, भ्रष्टाचार से संबंधित जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर आन्दोलित हैं। इस बिल के मौजूदा स्वरूप में सत्ताधारियों ने भ्रष्टाचार की जवाबदेही से बचने के कई रास्ते बनाने की कोशिशें की है, ज़ाहिर है कि भ्रष्टों का इरादा क्या है, लेकिन यदि इस बिल को, हूबहू जैसा कि आन्दोलनकारी चाहते है, वैसा ही स्वीकार कर कानून का रूप  दे दिये जाने के बावजूद भी इस देश में भ्रष्टाचार के ज़रिये पब्लिक प्रापर्टी की लूट का माहौल खत्म हो जाएगा या उस पर थोड़ा बहुत अंकुश लगेगा यह सोचना मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है।
    दरअसल ‘व्यवस्था’ का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण न हो पाने की जिस भयानक गलती के कारण भारतीय आम जनता स्वतंत्रता का वास्तविक फल आज तक नहीं भोग सकी है, वह गलती जब तक दोहराई जाती रहेगी, आम जनसाधारण एवं भारतीय समाज की और दुर्दशा होती चली जाएगी। अण्णा के आंदोलन को भले ही जबरदस्त समर्थन मिला हो लेकिन भ्रष्टाचार के मूल को नष्ट करने की वहाँ न तो चर्चा हो रही है न व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जा रही है इसलिये भले ही शरद पवार जैसे कुछ लोगों को पद छोड़ना पड़े मगर सच यह है कि सारी परेशानी की जड़ यह पूँजीवादी व्यवस्था है शरद पवार जिसका एक पुर्जा मात्र है।
    मौजूद समाज में चाहे कितना भी ईमानदार व्यक्ति हो, जब तक वह इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करता कि हमारा समाज एक वर्ग विभाजित समाज है और वर्तमान में मौजूद सभी तथाकथित प्रजातांत्रिक संस्थाएँ चाहे वह पार्लियामेंट हो, अदालतें हों, कानून-व्यवस्था को चलाने वाले संस्थान हो, सब कुछ पूँजीवादी शोषक वर्ग द्वारा अपने स्वार्थ को साधने के लिए बनाई और चलाई जा रही संस्थाएँ हैं, जो कि राजतंत्र के विरुद्ध लड़ाई के समय कभी प्रगतिशील रही होंगी, लेकिन अब पूँजीवाद की आवश्यकताओं के कारण घोर प्रतिक्रियाशील एवं जनविरोधी हो चुकी है। जो ‘यंत्र’ पूँजीवाद ने अपने मुनाफावादी स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए बनाया हो उसे जनसाधारण के व्यापक हित में साधा ही नहीं जा सकता चाहे कितना भी आन्दोलन किया जाए। इस समय सम्पूर्ण तथाकथित भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था, पूँजीवादी हितों की रक्षा में लगी हुई है इससे हो रहे प्रजातांत्रिक मूल्यों के हनन की किसी को चिन्ता नहीं है, अतः चन्द गैर सरकारी संगठनों को एकत्र कर किये जा रहे ऐसे छोटे-मोटे फौरी आन्दोलनों का कोई अर्थ नहीं है जो स्वार्थी मीडिया के संदिग्ध समर्थन के कारण इतना लोकप्रिय प्रतीत हो रहा है।
    गाँधीजी ने अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को आधार बनाकर जो स्वतंत्रता आंदोलन डिज़ाइन किया था उससे आज़ादी तो मिल गई मगर जिस ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्थार्थ को साधने के लिए तत्कालीन पार्लियामेंट ने आजादी के पूर्व अपनी जनविरोधी बर्बर भूमिका निभाई थी, उसी पार्लियामेंट्री मॉडल को हूबहू अपना लिए जाने के कारण शुरुआत से ही भारतीय जन साधारण के हितों पर कुठाराघात होना तय था। आज भी अण्णा हज़ारे जैसे लोग उसी पार्लियामेंट और पार्लियामेंट्री सिस्टम की ओर आशा की निगाह से देख रहे हैं जो पूँजीवाद के स्वार्थों के पति समर्थित हैं।
    देश में चलाई जा रही पूँजीवादी व्यवस्था के वर्गीय स्वार्थ के कारण आज देश में अमीरों और गरीबों के दो पृथक भारत स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे है जिनके आपसी हित एक दूसरे का साथ कतई मेल नहीं खाते। आज़ादी आंदोलन के समय इस खतरे को भाप लिया जाना चाहिए था लेकिन गाँधी-नेहरू के पूँजीवादी दृष्टिकोण के कारण स्वतंत्रता आंदोलन के समय इस खतरे की चेतावनी दे रही भगतसिंह और सुभाष बोस की क्रांतिकारी धारा को, उनके आमूल-चूल परिवर्तन के क्रांतिकारी सिंद्धांत को भी गाँधी और तमाम गाँधीवादियों द्वारा अछूत मानकर तिरस्कृत किया गया, ज़ाहिर है उसके पीछे भी वर्ग स्वार्थ को साधने में महसूस की गई अड़चन एवं कुंठा मुख्य भूमिका निभा रही थी।
    इस सच्चाई की समझ के साथ पूँजीवाद के विरुद्ध एक ताकतवर जन आन्दोलन के अभाव में पूँजीवाद उत्तरोत्तर विकसित होता चला गया बल्कि साथ ही साथ भयानक तरीके से जनविरोधी होता चला गया, और धीरे-धीरे साम्राज्यवादी स्वार्थों की ओर बढ़ते जाने के कारण देश में सभी प्रकार की अन्तराष्ट्रीय गंदगी का जमावड़ा होता चला गया और उसके उपादान के रूप में राष्ट्रव्यापी यह भ्रष्टाचार आज अपना फन फैला चुका है जिससे पूरा देश हलाकान है। आम जनता की बात करने वाले अण्णा हज़ारे एवं उनके साथियों द्वारा कभी पूँजीवादी सत्ता के विरुद्ध एक व्यापक जन आन्दोलन का आव्हान नहीं किया। अस्सी-नब्बे के दशक में जिस तरह से डंकल प्रस्तावों की स्वीकृति के साथ भूमंडलीकरण का रास्ता खुला देश में पैसे की रेलमपेल और अनैतिकता बढ़ती चली गई। प्रायवेटाइजेशन के माध्यम से सरकारी सेक्टर को नष्ट कर भ्रष्टाचार के माध्यम से अंधाधुंध कमाई के रास्ते खोल गए और नतीजे के तौर पर पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जो सडांध व्याप्त हो गई है उसमें जन साधारण का जीना दूभर होता चला गया है। ऐसे में जब अन्तराष्ट्रीय दबावों में देश को अव्यवस्था के मुहाने पर ले जाया जा रहा था अण्णा हज़ारे और उनके समर्थकों की चुप्पी आश्चर्यजनक रही है।
    इस देश में कानूनों की कोई कमी नहीं है परन्तु न तो उनके पालन करने की संस्कृति का विकास हो पाया और न ही सरकारी स्तर पर  उनको पालन करवाने की प्रभावशाली इच्छा शक्ति कभी देखी गई, ऐसे में कानूनों में मामूली सुधारों के माध्यम से किसी बड़े परिवर्तन की आशा करना बेमानी है। जन लोकपाल बिल के आन्दोलनकारियों की इच्छा के अनुरुप आ जाने से भी कुछ होने वाला नहीं है, उसका भी हश्र वैसा ही होना है जैसा कि सूचना के अधिकार और अन्य दूसरे कानूनों का हुआ है।
    इसलिए ज़रूरत है एक ऐसे दीर्घकालीन आन्दोलन की जो इस देश में हुई तमाम ऐतिहासिक त्रृटियों से सबक लेते हुए एक विराट सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शक्ल लेकर आमूल-चूल परिवर्तन के लिए रास्ते खोल सके और वर्तमान में संगठित हो रहा जन आक्रोश किसी भी कीमत पर कुंठित होकर न रह जाए।
    एक और महत्वपूर्ण बात, अण्णा हज़ारे और तमाम भ्रष्टाचार विरोधी व्यक्ति एवं व्यक्ति समूह यदि पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों किसी खेल का खिलौना बनकर इस्तेमाल न किये जा रहे हों तो उन्हें इस छोटी लड़ाई को एक बड़ी लड़ाई बनाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।

रविवार, 6 मार्च 2011

भोपाल या भोजपाल............प्रजातंत्र का इससे ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है!

    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 28 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आम जनता की गाढ़ी कमाई का धन फूँकते हुए बड़ी धूमधाम से राजभोज की प्रतिमा की स्थापना की और जश्न मनाया। इस मूर्ति की स्थापना के साथ ही भारतीय जनता पार्टी की इस सरकार ने अपनी सामंती प्रतिबद्धताओं का इज़हार करते हुए एक तरह से आम जनसाधारण की खिल्ली उड़ाने का प्रयास किया है, जिसने अभी कुछ ही वर्षों पहले मानव समाज के इतिहास को एक क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा देते हुए राजा-महाराजाओं की सामंती सत्ता को उखाड़ फेंककर प्रजातांत्रिक समाज व्यवस्था का आगाज़ किया था।
    कितने आश्चर्य की बात है कि आमजनसाधारण के शोषित-उत्पीड़ित समाज की आशाओं-आकांक्षाओं पर पूरी तरह से असफल इस तथाकथित प्रजातंत्र के कठिन दौर में, प्रजातांत्रिक तकाज़ों को पूरा करने की चिंता करने की बजाय आजकल की इन तथाकथित चुनी हुई प्रजातांत्रिक सरकारों को इतिहास में दफन हो चुकी एक सामाजिक व्यवस्था के स्वयंभू भगवान राजाओं-महाराजाओं को फिर से महिमामंडित करने की आवश्यकता पड़ रही है। क्यों ? पता नहीं।
    जहाँ तक ‘राजभोज’ का प्रश्न है, वह दुष्ट, आततायी, अत्याचारी किस्म का राजा था अथवा नहीं इस बहस में न पड़कर एक सामान्य ऐतिहासिक  सत्य की चर्चा की जाए तो इतिहास हमें बताता है कि सामंती युग में राजसत्ता का इतिहास शोषण, अत्याचार, दमन के माध्यम से जबरदस्ती अपनी सत्ता कायम रखने का इतिहास रहा है, इसका अपवाद शायद ही कोई राजा और राज घराना रहा हो। राजा-महाराजाओं, सामंतों के राज में आम जनसाधारण का सामाजिक जीवन में कभी कोई महत्व नहीं रहा और न उनके पास कभी कोई बुनियादी अधिकार ही रहे जिन्हें आज जनतांत्रिक अधिकारों के नाम से जाना जाता है। इन जनतांत्रिक अधिकारों को हासिल करने के लिए उस समय आमजनसाधारण को राज घरानों से बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा था, खून तक बहाना पड़ा। प्रजा को राजा के चरणों में झुकाए रखने के लिए धर्म ने भी अपनी कुटिल भूमिका खूब निभाई, राजाओं को भगवान का दर्जा देकर प्रजा की प्रतिबद्धताएँ राज्य की ओर बनाए रखने में धर्म का योगदान हर कोई जानता है। मगर इस व्यवस्था को इतिहास के क्रम में लुप्त हो जाना पड़ा। राजभोज का महिमामंडन उसी व्यवस्था के महिमामंडन से कुछ कम नहीं प्रतीत होता।
    राज भोज ने भले ही मंन्दिर-तालाब और दूसरी कुछ संरचनाएँ बनवाई हों, मगर सामंती समाज के तकाज़ों के कारण ही अपने अथक शारीरिक श्रम से उन्हें बनाने वाले आम जनसाधारण का इतिहास में कभी कोई नाम नहीं हुआ। ताजमहल को हज़ारों हुनरमंद कारीगरों ने अपने कठिन श्रम से तैयार किया था मगर इतिहास में उस शहंशाह का नाम ही दर्ज है, वास्तुकला के उस विश्वस्तरीय नमूने को आकार देकर अपने हाथ कटवाने वाले उन कारिगरों का नहीं। अफसोस तो तब होता है जब इतिहास को अच्छी तरह से जानने-समझने के बावजूद प्रजातंत्र का ढोल पीटने वाले तमाम राजनेताओं को सामंती समाज की दबी-कुचली प्रजा के कठिन परिश्रम और संघर्षों का नहीं बल्कि राजाओं की तथाकथित का महानता का ज़्यादा खयाल रहता है। प्रजातंत्र का इससे ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है।
    भोपाल का राजा भोज से कभी कोई करीबी ताल्लुक नहीं रहा दुनिया जानती है। यदि किसी रूप  में राजा भोज ‘भोपाल’ या तथाकथित ‘भोजपाल’ के नियंताओं निर्माताओं में रहे होते तो भोपाल का पुरातात्विक इतिहास इस बात की गवाही अवश्य देता। एक तालाब को छोड़कर (वह भी राजा भोज का बनाया हुआ है या नहीं संशय की बात है) भोपाल में कोई भी पुरातात्विक महत्व का भवन ऐसा नहीं है जिससे राजा भोज की यहाँ स्थाई उपस्थिति की बात साबित होती हो। हाँ, राजे-महाराजे अपने राजहितों में एक राज्य से दूसरे राज्य में घूमते-फिरते रहते थे, इस दौरान वे अपने फौज-फाटे के उपयोग के लिए कभी-कभी कोई स्थाई-अस्थाई संरचना बनवाया करते थे, मगर भोपाल में नवाबों के शासन के दौरान का वास्तुशिल्प ही प्रमुख रूप से दिखाई पड़ता है और यही भोपाल की पहचान है। किसी अच्छे खासे शहर की दुनिया के ज़हन में बसी पहचान को धो-पोछकर उसका एक ऐसा नामांतरण कर दिया जाना कोई समझदारी नहीं हो सकती, जिसके पीछे कोई विशेष ऐतिहासिक तथ्य मौजूद ही न हों। भोपाल को भोजपाल नाम देने की कवायद न केवल गैरज़रूरी है बल्कि एकदम फिजूल भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मध्यप्रदेश सरकार के पास करने को और कोई दूसरा काम अब बचा नहीं है।
    राजा भोज जहाँ के थे वहाँ मजबूती से स्थापित हैं, उन्हें वहाँ से कोई नहीं हटा सकता, मगर नवाबी दौर की पहचान वाले ‘भोपाल’ को ‘भोजपाल’ बना देने का प्रयास कर बेकार का एक विवाद खड़ा करने में कौनसी दूरअन्देशी और राजनैतिक समझदारी है यह अस्पष्ट है। ऐसे विवादों को खड़ा करने में संधियों और भाजपाइयों को हमेशा से रुचि रही है। संधी-भाजपाई अपनी इस कुत्सित चाल में कामयाब न हों इसके लिए न केवल भोपालियों का बल्कि प्रजातांत्रिक सराकारों वाले उन तमाम लोगों को सामने आकर भाजपा के इस षड़यंत्र को नाकाम करना चाहिए।

बुधवार, 2 मार्च 2011

क्या लिंग पूजन भारतीय संस्कृति है ?

           आज 'शिवरात्री' है। एक ऐसे भगवान की पूजा आराधना का दिन जिसे आदि शक्ति माना जाता है, जिसकी तीन आँखें हैं और जब वह मध्य कपाल में स्थित अपनी तीसरी आँख खोलता है तो दुनिया में प्रलय आ जाता है। इस भगवान का रूप बड़ा विचित्र है। शरीर पर मसान की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटा में गंगा नदी तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को उन्होंने अपना वाहन बना रखा है।
          भारत में तैतीस करोड़ देवी देवता हैं, मगर यह देव अनोखा है। सभी देवताओं का मस्तक पूजा जाता है, चरण पूजे जाते हैं, परन्तु इस देवता का 'लिंग' पूजा जाता है। बच्चेबूढ़ेनौजवान, स्त्रीपुरुष, सभी बिना किसी शर्म लिहाज़ के , योनी एवं लिंग की एक अत्यंत गुप्त गतिविधि को याद दिलाते इस मूर्तिशिल्प को पूरी श्रद्धा से पूजते हैं और उपवास भी रखते हैं।
          यह भगवान जिसकी बारात में भूतप्रेतपिशाचों जैसी काल्पनिक शक्तियाँ शामिल होती हैं, एक ऐसा शक्तिशाली देवता जो अपनी अर्धांगिनी के साथ एक हज़ार वर्षों तक संभोग करता है और जिसके वीर्य स्खलन से हिमालय पर्वत का निर्माण हो जाता है। एक ऐसा भगवान जो चढ़ावे में भाँगधतूरा पसंद करता है और विष पीकर नीलकण्ठ कहलाता है। ओफ्फोऔर भी न जाने क्याक्या विचित्र बातें इस भगवान के बारे में प्रचलित हैं जिन्हें सुनजानकर भी हमारे देश के लोग पूरी श्रद्धा से इस तथाकथित शक्ति की उपासना में लगे रहते है।
          हमारी पुरा कथाओं में इस तरह के बहुत से अदृभुत चरित्र और उनसे संबधित अदृभुत कहानियाँ है जिन्हें पढ़कर हमारे पुरखों की कल्पना शक्ति पर आश्चर्य होता है। सारी दुनिया ही में एक समय विशेष में ऐसी फेंटेसियाँ लिखी गईं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों से परे कल्पनातीत पात्रों, घटनाओं के साथ रोचक कथाओं का तानाबाना बुना गया है। सभी देशों में लोग सामंती युग की इन कथाओं को सुनसुनकर ही बड़े हुए हैं जो वैज्ञानिक चिंतन के अभाव में बेसिर पैर की मगर रोचक हैं। परन्तु, कथाकहानियों के पात्रों को जिस तरह से हमारे देश में देवत्व प्रदान किया गया है, अतीत के कल्पना संसार को ईश्वर की माया के रूप में अपना अंधविश्वास बनाया गया है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी देश में नहीं देखा जाता। अंधविश्वास किसी न किसी रूप में हर देश में मौजूद है मगर भारत में जिस तरह से विज्ञान को ताक पर रखकर अंधविश्वासों को पारायण, जपतप, व्रतत्योहारों के रूप में किया जाता है यह बेहद दयनीय और क्षोभनीय है।
          देश की आज़ादी के समय गाँधी के तथाकथित 'सत्य' का ध्यान इस तरफ बिल्कुल नहीं गया। नेहरू से लेकर देश की प्रत्येक सरकार ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार, शिक्षा और भारतीय जनमानस के बौद्धिक विकास में किस भयानक स्तर की लापरवाही बरती है, वह इन सब कर्मकांडों में जनमानस की, दिमाग ताक पर रखकर की जा रही गंभीरतापूर्ण भागीदारी से पता चलता है। आम जनसाधारण ही नहीं पढ़े लिखे शिक्षित दीक्षित लोग भी जिस तरह से आँख मूँदकर 'शिवलिंग' को भगवान मानकर उसकी आराधना में लीन दिखाई देते हैं, वह सब देखकर इस देश की हालत पर बहुत तरस आता है।
          यह भारतीय संस्कृति है! अंधविश्वासों का पारायण भारतीय संस्कृति है ! वे तथाकथित शक्तियाँ, जिन्होंने तथाकथित रूप से विश्व रचा, जो वस्तुगत रूप से अस्तित्व में ही नहीं हैं, उनकी पूजा-उपासना भारतीय संस्कृति है! जो लिंग 'मूत्रोत्तसर्जन' अथवा 'कामवासना' एवं 'संतानोत्पत्ति' के अलावा किसी काम का नही, उसकी आराधना, पूजन, नमन भारतीय संस्कृति है?
          चिंता का विषय है !! कब भारतीय जनमानस सही वैज्ञानिक चिंतन दृष्टि सम्पन्न होगा !! कब वह सृष्टी में अपने अस्तित्व के सही कारण जान पाएगा!! कब वह इस सृष्टि से काल्पनिक शक्तियों को पदच्यूत कर अपनी वास्तविक शक्ति से संवार पाएगा ?

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

वाह क्या क्रांति है और क्या क्रांतिकारी हैं।


कल अबूझमाड़ में बड़ा गज़बनाक सीन पेश हुआ...... महान क्रांतिकारी संत स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में  नक्सलियों की एक जनअदालत में नारे लगाए जा रहे थे सी.पी.आई.(एम.एल.) जिन्दाबाद, सी.ए.एफ (छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल ) जिन्दाबाद। नक्सलियों ने जवानों की रिहाई अबुझमाड़ के करियामेटा जंगल में दो हजार लोगों की मौजूदगी में बुलाई इस जनअदालत के बाद की थी । समझा जा सकता है कि यह नारेबाजी सी.पी.आई.(एम.एल.) के उत्साही कार्यकर्तागण कर रहे थे जिन्हें नक्सली कहा जाता है। वाह क्या क्रांति है और क्या क्रांतिकारी हैं।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

प्रसंग विनायक सेन-व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी

           दुनिया के सबसे बडे़ प्रजातंत्र की एक अदालत ने जनसंघर्षों के एक प्रबल समर्थक को ‘‘उम्रकैद’’ की सजा सुनाई है, स्पष्ट है कि यह जर्जर व्यवस्था बिल्कुल नहीं चाहती कि ‘‘डॉ. विनायक सेन’’ जैसे लोग किसी भी सूरत में शोषित-पीड़ित आम जनता को संगठित करने, उनके साथ चल रहे पूँजीवादी षड़यंत्रों का पर्दाफाश करने, और मुट्ठी भर शोषकों के द्वारा चलाए जा रहे जबरदस्ती के शासन के विरुद्ध सच्चे जनतंत्र की चेतना का अलख जगाए।
          डॉ. विनायक सेन को सुनाई गई उम्र कैद की सजा पर बुद्धिजीवियों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई है, जिसका लब्बो-लुबाब महज़ यह है कि जब देश में बड़े-बड़े अपराधी, घोटालेबाज, भ्रष्ट लोग, चोर-लुटेरे-डाकू, साम्प्रदायिक शुचिता को नष्ट करने वाले अपराधी, बलात्कारी और तमाम जनद्रोही खुले आम आज़ाद घूम रहे हैं तो फिर विनायक सेन को क्यों उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है! सवाल सुनने में बड़ा आकर्षक और विचारोत्तेजक लगता है लेकिन इसका सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है वह यह कि-तुम जैसे, व्यवस्था से छोटे-छोटे लाभ पाने के लालच में उससे चिपके हुए खामोशी से यह तमाशा देखते रहने वाले शिखंडी बुद्धिजीवियों के कारण यह सब हो रहा है। सत्य को दफनाने के लिए इन अवसरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा जिस तरह से मूक रहकर व्यवस्था का साथ दिया जाता है उससे तो यही कहा जा सकता है कि यही इस युग के सबसे बड़े अपराधी है जो कुव्यवस्था के खिलाफ खुलकर सामने आने से कतराते हैं ताकि उनके घटिया स्वार्थों की पूति बंद ना हो जाए।
          देश में जो कुछ चल रहा है वह हिटलर के समय की याद ताज़ा करता है जब चुन-चुनकर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को काल कोठरियों में पहुँचा दिया जाता था। यदि हम हिटलर के नेतृत्व में चले सर्वहारा मजदूर वर्ग विरोधी व्यापक फासीवादी दुष्चक्र को सिर्फ इसलिए याद न करना चाहें कि उसके साथ कम्युनिस्ट आन्दोलन की यादें जुड़ी हैं, और विनायक सेन भी वैचारिक रूप से साम्यवादी आदोलन के ही समर्थक हैं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की उन घटनाओं को याद करके भी हम इस समय की गंभीरता को सुविधाजनक रूप से समझ सकते हैं जब तथाकथित ब्रिटिश कानून सीधे तौर पर अँग्रेज शोषक-शासक वर्ग का पक्षधर कानून था। ब्रिटिश शासनकाल में भी दमन और उत्पीड़न का वह दौर गुजरा है जब ब्रिटिश राजसत्ता ने अपने विरोधियों को जेल की सलाखों के पीछे कैद किया था, फॉसी की सज़ा सुनाई थी। वह भी ऐसा ही समय था जब मुट्ठी भर सत्ताधारियों ने जनता की आवाज़ को दबाने के लिए प्राणघातक दमनचक्र चलाया था, जबकि उस समय तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रजातंत्रकी अवधारणा आज की बनिस्पत ज्यादा नई और प्रगतिशील थी।
          आँख खोलकर देखने की ज़रूरत है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र अब मूल में लोकतंत्र विहीन होकर रह गया है जिसकी कानून व्यवस्था, पूँजीवादी शोषक-शासक राजसत्ता की ही पक्षधर है। शोषक और शोषित के मध्य एकता के फर्जी सिद्धांत लोकतंत्र के सारे मुखौटे अब उतर चुके हैं और अब यह शुद्ध रूप से पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी पर उतर आया है, इसलिए इसके लिए अब यह अनिवार्यता सी हो गई है कि डा.विनायक सेनजैसे, जनता की समझ विकसित कर, मुट्ठी भर शोषकों के विरुद्ध उन्हें लामबंद करने वाले लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
          डा. विनायक सेन को दी गई सज़ा देश भर में फैले उन जैसे हज़ारों सर्वहारा जन समर्थकों के लिए भी एक चेतावनी है कि अब भी अगर उन्होंने अपना अभियान बंद न किया, व्यवस्था के आड़े आए तो उनका भी यही हश्र होगा। साथ ही साथ जनता के दुख दर्द को समझने वाले उन हज़ारों लोगों के लिए भी यह घटना एक सबक है कि यदि अब भी वे इस प्रतिक्रियावादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में ऐसे ही छितरे-छितरे रहे, एकजुट न हुए तो यह व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी।