मंगलवार, 8 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी-कानून का रास्ता पकड़ने वाले जन आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण सबक


26 साल के लम्बे इन्तज़ार के बाद आखिर भोपाल गैस त्रासदी के अपराधियों पर चल रहे मुकदमें का अपेक्षित फैसला आ गया। जिस गंभीर आपराधिक मामले में राज्य और केन्द्र सरकार की एजेंसियाँ शुरु से ही अपने पूँजीवादी वर्ग चरित्र के अनुरूप अपने साम्राज्यवादी आंकाओं को बचाने में लगी थी, उसका हश्र इससे कुछ जुदा होता तो ज़्यादा आश्चर्य की बात होती।
भोपाल गैस त्रासदी उन्ही दिनों की बात है जब भूमंडलीकरण के साम्राज्यवादी षड़यंत्र के रास्ते अमरीका और दीगर मुल्क दुनिया के गरीब मुल्कों में पांव पसारने पर आमादा हो गए और इससे हमारे देश के पूँजीपतियों को भी दुनिया के दूसरे देशों में अपने पांव पसारने का मौका मिला। ऐसे में हज़ारों लोगों की बलि लेने वाली और लाखों लोगों को जीवन भर के लिए बीमार बना देने वाली अमरीकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन और उसकी भारतीय ब्रांच यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड को नाराज़ करके तत्कालीन राजीव गांधी सरकार भारतीय पूँजीपतियों की विश्वव्यापी कमाई को बट्टा कैसे लगा सकती थी ? लिहाज़ा भोपाल की आम जनता को निशाना बनाया गया। गैस त्रासदी के भयानक अपराध से संबंधित किसी भी तरह की न्यायिक कार्यवाही को बाकायदा  कानून पास करके केन्द्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और भोपाल की आम जनता की आवाज को कुंद कर दिया। फिर शुरू हुआ अपने ही देश के नागरिकों के साथ दगाबाजी का लम्बा कार्यक्रम जिसका प्रथम पटाक्षेप कल भोपाल की अदालत में हुआ। एक दो पटाक्षेप हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में और होंगे और भोपाल की जनता की आवाज़ को पूरी तौर पर दमित कर दिया जायगा। यही पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र है।
    मगर आज यह सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या पूँजीवादी व्यवस्था के इस चरित्र को भोपाल की आम जनता और उनका आंदोलन चलाने वाले जन संगठन समझ नहीं पाए ? क्या आज से 26 साल पहले कानून और प्रशासन का चरित्र कुछ अलग था ? क्या उस समय सरकार, प्रशासन, कानून में बैठे लोग आम जनता के हितैशी हुआ करते थे ? जवाब है नहीं । फिर क्यों जनसंगठनों ने न्यायिक लड़ाई पर भरोसा करके एक उभरते सशक्त जनआंदोलन को कानून और अदालत में ले जाकर कुंद कर दिया ?
क्या कल के इस ऐतिहासिक जनविरोध फैसले से यह स्पष्ट नहीं है कि इस देश की व्यवस्था की मशीनरी के किसी भी कलपुर्जे को, देश की आम जनता की ना तो कोई फिक्र है और ना ही उसके प्रति किसी प्रकार की प्रतिबद्धता की चिंता। देश के कानून, शासन, प्रशासन, और किसी भी संस्थान को आम जनता के गुस्से से कोई डर नहीं लगता, क्योंकि आम जनता को सही मायने में संगठित करने का काम अब इस देश कोई नहीं करता,  और जब आम जनता संगठित ना हो, सही राजनैतिक चेतना से लैस ना हो तो उसके बीच ऐसे जनविरोधी संगठन भी पनपते हैं जो जन आंदोलनों को जनतांत्रिक आंदोलन का नाम देकर  अदालतों में ले जाकर फंसा देते हैं ताकि मुकदमा खिचते खिचते इतना समय ले लें कि किसी को ध्यान ही ना रहे कि हम लड़ क्यों रहे थे।
भोपाल में भी कमज़ोर जन आन्दोलन का नतीजा 26 साल के लम्बे इन्तज़ार के बाद महज़ कुछ सालों की सज़ा पाकर, जमानत पा गए उन अपराधियों और भोपाल के ठगे गए गैस पीडितों के चेहरों से पढ़ा जा सकता है।
उम्मीद है अब भी कोर्ट-कचहरी, प्रेस-मीडिया, और छद्म आंदोलन के छाया से निकलकर गैस पीड़ित और उनके संगठन कोई ताकतवर जन आन्दोलन खड़ा करने की तैयारी करेंगे, ताकी आगे होने वाले फैसलों को जनता के हित में प्रभावित किया जा सके।    

और भी पढ़े- भोपाल  गैस पीड़ितो के साथ विश्वासघात

4 टिप्‍पणियां:

  1. असल पूंजीवाद का चेहरा ...जिन्होंने देखा ,भोगा ,अपनों को खोया उनसे पूछिए क्या यही होना था ...और मुआवजा भीख की तरह मिला ..
    यहाँ तो देर आयद और दुरस्त भी नहीं ...अधिकांशत गलती जन आंदोलनों की भी है ...सहमत हूँ

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  2. बिलकुल सही बात ऐसे दुर्भाग्यजनक फैसलों से ही अच्छे से अच्छे लोगों का आस्था कानून और न्याय पर से उठ जाता है ,शर्मनाक है ऐसा न्याय और ऐसे न्याय का फैसला सुनाने वाली सरकार |

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  3. आखिर समुचित न्याय के लिए जन आन्दोलन चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता क्या करें ? किस तरह का संघर्ष करें जिससे आम आदमी को उचित न्याय मिल सके ? ताकतवर आन्दोलन से आपका आशय क्या है ? आप लोगों को संगठित करने का कार्य करें आप आगे आयें !

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  4. बेहतर...
    कई वाज़िब प्रश्न खड़े किये हैं आपने...

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