बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुंधति का अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए


     अरुधंति राय के बहाने तथाकथित राष्ट्रवादियों को फिर मौका मिल गया है राष्ट्र-राष्ट्र चिल्लाने का। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस देश ने 200 साल तक अंग्रेज़ों के साथ कठिन संघर्ष करके यह स्वतंत्रता हासिल की है, उस देश में एक महिला का किसी की स्वतंत्रता की लड़ाई को समर्थन देना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि उसे फाँसी देने की माँग उठने लगी है। ज़ाहिर ऐसे लोगों का स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ अवश्य ही कुछ लेना-देना नहीं रहा होगा।
            अरुधंति ने क्या गलती की इस पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले देखें कि आखिर यह राष्ट्र आखिर किसे कहा जा रहा है। दुनिया जानती है कि अंग्रेज़ों के इस भूभाग पर कब्ज़ा करने के पहले भारत जैसा कोई भी देश अस्तित्व में नहीं था, यह कई सारे राजे-रजवाड़ों, रियासतों का एक समूह था जिसमें अलग-अलग भाषा, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों का निवास था। सबका अपना आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आधार था, उनकी अपनी राष्ट्रीयता थी। अनेक राष्ट्रीयताओं के इस समूह को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों के मद्देनज़र एक सूत्र में पिरोया जिसे इन्डिया कहा गया। स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ताकत से लोहा लेने के लिए इसी एक सूत्र में आबद्ध राजनैतिक ढॉचे के आधार पर स्वतंत्रता आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन कहा गया। कालान्तर में जब गांधी जी के नेतृत्व में चले आन्दोलन के परिणाम स्वरूप अंग्रेज यह देश छोड़कर चले गए तो हमारी देशी सरकार को विरासत में वही साम्राज्यवादी नज़रिया देकर गए जिसके आधार पर भविष्य में भारत सरकार ने अपने गठन के बाद कई रियासतों को जबरदस्ती इस देश भारत का हिस्सा बना लिया। गोवा की बात अगर ना भी निकाली जाए क्योंकि वहाँ पुर्तगालियों का शासन था, और गोवा के लोग भारत की ताकत के दम पर उससे मुक्ति पाना भी चाहते थे लेकिन फिर भी मदद के बहाने भारत की गोवा को अपने अधीन कर लेने की विस्तारवादी कोशिशों के खिलाफ वहाँ कोई आन्दोलन नहीं हुआ हो ऐसी बात नहीं है। लेकिन, हैदराबाद में तो बाकायदा निज़ाम के खिलाफ भारतीय सेना को उतारा जाकर उसे ज़बरदस्ती संधीय भारत में शामिल किया गया। और भी ऐसी कई रियासतें रहीं है हम जानते हैं। प्रश्न यह है कि कश्मीर सहित ऐसी सारी रियासतों को जिन्हें भारत ने अपने अधीन ले लिया वहाँ की आम जनता से क्या पूछा गया कि वे क्या चाहते हैं ? कभी नहीं ?
            कश्मीर का सवाल भी इसी तरह का है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का नज़रिया क्या है और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का इस मुद्दे पर क्या स्टेंड है इसे दरकिनार रखकर, पूछा जाय तो क्या आज़ादी की महान लड़ाई लड़ चुके राष्ट्र को अपने अधीन किसी भी राज्य, जिसकी अपनी निजी राष्ट्रीयता है, जो सास्कृतिक, सामाजिक, रूप से अपनी एक निजी पहचान रखता है, की जनता से यह जान लेना क्या आवश्यक और प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों के अनुरूप नहीं है कि वे क्या चाहते है ? या उन्हें हमेशा ही डंडे के दम पर यह कहा जाएगा कि अपने हक में स्वतंत्रता की बात करोगे तो राष्ट्रद्रोही करार दिये जाकर जेल में सड़ा दिया जाएगा। क्या यह नज़रिया तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के समान ही नहीं नज़र आता जो उस वक्त आज़ादी की माँग करने वालों को फॉसी पर चढ़ा दिया करते थे क्योंकि यह माँग उनकी साम्राज्यवादी मंसूबों पर पानी फेरने वाली माँग थी।
            आज यदि कश्मीर की आमजनता यह चाहती है कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए, तो इसे हम अपने प्रजातंत्र की नाकामी क्यों नहीं मानते ? क्यों नहीं हम यह स्वीकार कर लेते कि हमने अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को मिलाकर एक राष्ट्र तो बना लिया मगर हम एक राष्ट्रीय संस्कृति विकसित करने में असफल रहे हैं जो हमारे अलग-अलग राष्ट्रीयताओं वाले देश को एक सूत्र में पिरो पाती। क्यों हमारे देश में अब भी भाषा, और प्रांतीय झगड़े मौजूद हैं। क्यों मुम्बई में मराठियों के द्वारा गैर मराठियों का जीना हराम किया जाता है। इसका जवाब एक ही है कि हमारा राजनैतिक और आर्थिक ढॉचा आज़ादी के बाद से लेकर अब तक मात्र और मात्र दोहन में लगा रहा है और अब भी लगा हुआ है। यदि हम प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए एक राष्ट्रीय संस्कृति का विकास करने में सफल हुए होते तो ना तो कश्मीर का झंझट खड़ा होता और ना ही देश के और दूसरे कोने अपने आप में भीतर ही भीतर सुलग रहे होते।
            अरुंधति ने कश्मीर की स्वतंत्रता के मुद्दे को आम जनता का मुद्दा मानते हुए उसका समर्थन किया है। उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी मुल्क की आम जनता कभी स्वयंस्फूर्त रूप से कुछ नहीं करती। पूँजीवाद के दौर में स्वतंत्रता का मुद्दा छोटे पूँजीवादियों का बड़े पूँजीखोरों के पंजे से मुक्ती का मुद्दा होता है। हिन्दुस्तान से अलग होकर पाकिस्तान बनने की भी यही कहानी थी, भारतीय पूँजीवाद जिसके हाथों अंग्रेज सत्ता का हस्तांतरण कर गए थे पाकिस्तान का स्थानीय पूँजीपति असुरक्षित महसूस करता था, इसीलिए उसने अपने विकास के लिए अलग राष्ट्र के सिद्धांत को अपनाया। बांगलादेश बनने की भी यही कहानी है। पूर्वी बंगाल में छोटे पूँजीपति चूँकि पाकिस्तानी पूँजी के हाथों बरबाद हो रहे थे तो उसने अपने दादा भारतकी मदद से अपने आप को पाकिस्तान के पंजे से छुड़ा लिया, और भारत में शामिल होने की बजाय स्वतंत्र अस्तित्व का चुनाव किया।
            अरुंधति को यह समझना चाहिए था कि असली मुक्ति किस चीज़ में है। कश्मीर की आम जनता तब तक सुखी नहीं हो सकती जब तक पूँजीवाद का अंत नहीं होता। कश्मीरी स्थानीय पूँजीवाद पाकिस्तानी पूँजी के दम पर कितना भी उछलता रहे मगर वहाँ की आम जनता को तभी सुख मिलेगा जब उसके आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक हित पूँजीवादी ताकतों से छुटकारा पा सकें। अरुंधति को यह जानना चाहिए, और वे शायद अच्छी तरह जानती हैं कि यह देश घोर प्रजांतांत्रिक अवमूल्यन की समस्या से पीड़ित है, समानता यहाँ दूभर हो चुकि है, आर्थिक विषमता एक पाटी ना जा सकने वाली खाई के समान है, और यह कश्मीर समेत पूरे देश की समस्याएँ है। ऐसी स्थिति में कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन जो कि किसी भी सूरत में वहाँ की आम जनता मजदूर वर्ग का आंदोलन नहीं है, भारतीय पूँजीवाद की छत्रछाया में छटपटाते कश्मीरी पूँजीवाद का आन्दोलन मात्र ही उसे कहा जा सकता है तब उन्होंने उनके सुर में सुर मिला कर अच्छा तो खैर किसी दृष्टि से नहीं किया, लेकिन फिर भी उनका अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए, फॉसी देने की बात की जाए। वे सही कह रहीं है, देश में इस समय नाना तरीके के देशद्रोह के अपराधी खुले आम घूम रहे हैं उन्हें छुट्टा छोड़कर देश की एक प्रबुद्ध महिला को इस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर प्रताड़ित किया जाए, ऐसा राष्ट्रवाद अपनी तो समझ के परे है।               

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान
            रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
           यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए।एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
          हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
         लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।

हस्ताक्षरकर्ता मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
आली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच, लखनऊ की पत्रिका के ब्लॉग जसम लखनऊ से साभार।