मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अण्णा हज़ारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ; इस छोटी लड़ाई को एक बड़ी लड़ाई बनाना होगा

    देश की वर्तमान दुर्दशा के मद्देनज़र प्रख्यात गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हज़ारे की मुहीम को समर्थन न देने का प्रश्न नहीं उठना चाहिये मगर चूँकि उन्हें दूसरा गाँधी और उनकी मुहीम को दूसरा आजादी आंदोलन करार दिया जा रहा है इसलिए उन ऐतिहासिक त्रृटियों की पड़ताल करना ज़रूरी लग रहा है जिनके कारण गाँधीवादी चिन्तन देश को मौजूदा परिस्थितियों में पहुँचने से रोक नहीं सका। आज जब व्यापक जन समर्थन जुटता लग रहा है, उन्हीं त्रृटियों को दोबारा दोहराकर ज़्यादा कुछ हासिल करने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
    जन आन्दोलनो का लम्बा अनुभव रखने वाले भूतपूर्व सैनिक अण्णा हज़ारे और फिलवक्त उनके साथ एकजुट हो गए कुछ भ्रष्टाचार विरोधी बुद्धिजीवी और एन.जी.ओ. राजनीति के लोग मूलतः, भ्रष्टाचार से संबंधित जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर आन्दोलित हैं। इस बिल के मौजूदा स्वरूप में सत्ताधारियों ने भ्रष्टाचार की जवाबदेही से बचने के कई रास्ते बनाने की कोशिशें की है, ज़ाहिर है कि भ्रष्टों का इरादा क्या है, लेकिन यदि इस बिल को, हूबहू जैसा कि आन्दोलनकारी चाहते है, वैसा ही स्वीकार कर कानून का रूप  दे दिये जाने के बावजूद भी इस देश में भ्रष्टाचार के ज़रिये पब्लिक प्रापर्टी की लूट का माहौल खत्म हो जाएगा या उस पर थोड़ा बहुत अंकुश लगेगा यह सोचना मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है।
    दरअसल ‘व्यवस्था’ का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण न हो पाने की जिस भयानक गलती के कारण भारतीय आम जनता स्वतंत्रता का वास्तविक फल आज तक नहीं भोग सकी है, वह गलती जब तक दोहराई जाती रहेगी, आम जनसाधारण एवं भारतीय समाज की और दुर्दशा होती चली जाएगी। अण्णा के आंदोलन को भले ही जबरदस्त समर्थन मिला हो लेकिन भ्रष्टाचार के मूल को नष्ट करने की वहाँ न तो चर्चा हो रही है न व्यवस्था के आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जा रही है इसलिये भले ही शरद पवार जैसे कुछ लोगों को पद छोड़ना पड़े मगर सच यह है कि सारी परेशानी की जड़ यह पूँजीवादी व्यवस्था है शरद पवार जिसका एक पुर्जा मात्र है।
    मौजूद समाज में चाहे कितना भी ईमानदार व्यक्ति हो, जब तक वह इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करता कि हमारा समाज एक वर्ग विभाजित समाज है और वर्तमान में मौजूद सभी तथाकथित प्रजातांत्रिक संस्थाएँ चाहे वह पार्लियामेंट हो, अदालतें हों, कानून-व्यवस्था को चलाने वाले संस्थान हो, सब कुछ पूँजीवादी शोषक वर्ग द्वारा अपने स्वार्थ को साधने के लिए बनाई और चलाई जा रही संस्थाएँ हैं, जो कि राजतंत्र के विरुद्ध लड़ाई के समय कभी प्रगतिशील रही होंगी, लेकिन अब पूँजीवाद की आवश्यकताओं के कारण घोर प्रतिक्रियाशील एवं जनविरोधी हो चुकी है। जो ‘यंत्र’ पूँजीवाद ने अपने मुनाफावादी स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए बनाया हो उसे जनसाधारण के व्यापक हित में साधा ही नहीं जा सकता चाहे कितना भी आन्दोलन किया जाए। इस समय सम्पूर्ण तथाकथित भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था, पूँजीवादी हितों की रक्षा में लगी हुई है इससे हो रहे प्रजातांत्रिक मूल्यों के हनन की किसी को चिन्ता नहीं है, अतः चन्द गैर सरकारी संगठनों को एकत्र कर किये जा रहे ऐसे छोटे-मोटे फौरी आन्दोलनों का कोई अर्थ नहीं है जो स्वार्थी मीडिया के संदिग्ध समर्थन के कारण इतना लोकप्रिय प्रतीत हो रहा है।
    गाँधीजी ने अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को आधार बनाकर जो स्वतंत्रता आंदोलन डिज़ाइन किया था उससे आज़ादी तो मिल गई मगर जिस ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्थार्थ को साधने के लिए तत्कालीन पार्लियामेंट ने आजादी के पूर्व अपनी जनविरोधी बर्बर भूमिका निभाई थी, उसी पार्लियामेंट्री मॉडल को हूबहू अपना लिए जाने के कारण शुरुआत से ही भारतीय जन साधारण के हितों पर कुठाराघात होना तय था। आज भी अण्णा हज़ारे जैसे लोग उसी पार्लियामेंट और पार्लियामेंट्री सिस्टम की ओर आशा की निगाह से देख रहे हैं जो पूँजीवाद के स्वार्थों के पति समर्थित हैं।
    देश में चलाई जा रही पूँजीवादी व्यवस्था के वर्गीय स्वार्थ के कारण आज देश में अमीरों और गरीबों के दो पृथक भारत स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे है जिनके आपसी हित एक दूसरे का साथ कतई मेल नहीं खाते। आज़ादी आंदोलन के समय इस खतरे को भाप लिया जाना चाहिए था लेकिन गाँधी-नेहरू के पूँजीवादी दृष्टिकोण के कारण स्वतंत्रता आंदोलन के समय इस खतरे की चेतावनी दे रही भगतसिंह और सुभाष बोस की क्रांतिकारी धारा को, उनके आमूल-चूल परिवर्तन के क्रांतिकारी सिंद्धांत को भी गाँधी और तमाम गाँधीवादियों द्वारा अछूत मानकर तिरस्कृत किया गया, ज़ाहिर है उसके पीछे भी वर्ग स्वार्थ को साधने में महसूस की गई अड़चन एवं कुंठा मुख्य भूमिका निभा रही थी।
    इस सच्चाई की समझ के साथ पूँजीवाद के विरुद्ध एक ताकतवर जन आन्दोलन के अभाव में पूँजीवाद उत्तरोत्तर विकसित होता चला गया बल्कि साथ ही साथ भयानक तरीके से जनविरोधी होता चला गया, और धीरे-धीरे साम्राज्यवादी स्वार्थों की ओर बढ़ते जाने के कारण देश में सभी प्रकार की अन्तराष्ट्रीय गंदगी का जमावड़ा होता चला गया और उसके उपादान के रूप में राष्ट्रव्यापी यह भ्रष्टाचार आज अपना फन फैला चुका है जिससे पूरा देश हलाकान है। आम जनता की बात करने वाले अण्णा हज़ारे एवं उनके साथियों द्वारा कभी पूँजीवादी सत्ता के विरुद्ध एक व्यापक जन आन्दोलन का आव्हान नहीं किया। अस्सी-नब्बे के दशक में जिस तरह से डंकल प्रस्तावों की स्वीकृति के साथ भूमंडलीकरण का रास्ता खुला देश में पैसे की रेलमपेल और अनैतिकता बढ़ती चली गई। प्रायवेटाइजेशन के माध्यम से सरकारी सेक्टर को नष्ट कर भ्रष्टाचार के माध्यम से अंधाधुंध कमाई के रास्ते खोल गए और नतीजे के तौर पर पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जो सडांध व्याप्त हो गई है उसमें जन साधारण का जीना दूभर होता चला गया है। ऐसे में जब अन्तराष्ट्रीय दबावों में देश को अव्यवस्था के मुहाने पर ले जाया जा रहा था अण्णा हज़ारे और उनके समर्थकों की चुप्पी आश्चर्यजनक रही है।
    इस देश में कानूनों की कोई कमी नहीं है परन्तु न तो उनके पालन करने की संस्कृति का विकास हो पाया और न ही सरकारी स्तर पर  उनको पालन करवाने की प्रभावशाली इच्छा शक्ति कभी देखी गई, ऐसे में कानूनों में मामूली सुधारों के माध्यम से किसी बड़े परिवर्तन की आशा करना बेमानी है। जन लोकपाल बिल के आन्दोलनकारियों की इच्छा के अनुरुप आ जाने से भी कुछ होने वाला नहीं है, उसका भी हश्र वैसा ही होना है जैसा कि सूचना के अधिकार और अन्य दूसरे कानूनों का हुआ है।
    इसलिए ज़रूरत है एक ऐसे दीर्घकालीन आन्दोलन की जो इस देश में हुई तमाम ऐतिहासिक त्रृटियों से सबक लेते हुए एक विराट सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शक्ल लेकर आमूल-चूल परिवर्तन के लिए रास्ते खोल सके और वर्तमान में संगठित हो रहा जन आक्रोश किसी भी कीमत पर कुंठित होकर न रह जाए।
    एक और महत्वपूर्ण बात, अण्णा हज़ारे और तमाम भ्रष्टाचार विरोधी व्यक्ति एवं व्यक्ति समूह यदि पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों किसी खेल का खिलौना बनकर इस्तेमाल न किये जा रहे हों तो उन्हें इस छोटी लड़ाई को एक बड़ी लड़ाई बनाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।