गुरुवार, 28 जनवरी 2010

अनुसूचित जाति के ताकतवर लोगों पर विशेष नज़र रखने की ज़रूरत है

यह सच है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों के अधिकारों की रक्षा के लिये सरकारी स्तरों पर कड़े कानून होने के बावजूद देश भर में उनपर अगड़ी जाति के प्रभावशाली लोगों के अत्याचार बदस्तूर जारी हैं, लेकिन पिछले कई दशकों से देश में इन जातियों के लिये उपलब्ध आरक्षण की व्यवस्था का लाभ लेकर आगे आए इन पिछड़ों में प्रशासनिक स्तर पर कई ऐसे अधिकारियों की फौज खड़ी हो गई है जो उनके पक्ष में कानून की कड़ाई का लाभ लेकर ऐसी कारस्तानियाँ कर रही है जिससे अनुसूचित जाति के लोगों के प्रति गैर अनुसूचितों की घृणा और भड़क रही है।
बहुत से लोगों के मुँह से ऐसे कई किस्से सुनने को मिलते हैं जिसमें गैर अनुसूचित वर्ग के लोगों को अनुसूचित वर्ग के प्रभावशाली लोगों से घोर प्रताड़ना और अत्याचार का शिकार होना पड़ा क्योंकि इन लोगों का यह मानना है कि युगों-युगों से उँची जातियों ने हमारा शोषण किया है, अब हमारी बारी है।
शासकीय सेवाओं में कई ऐसे अनुसूचित वर्ग के अधिकारी हैं जो अपने अधिनस्थ सामान्य वर्ग के कर्मचारियों-अधिकारियों को विशेषकर ‘ब्राम्हण’ वर्ग के लोगों को किसी ना किसी चक्रव्यूह में फँसाकर अपने पाँव छुलवाने में प्रचंड आनंद और आत्मसंतुष्टी पाते हैं। प्रशासन में ऐसे भी कई अनुसूचित वर्ग के अधिकारी हैं जो एक अभियान की तरह दूसरे वर्गों के अधिकारियों/कर्मचारियों को मौका-बेमौका सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। कुछ तो दमन और अत्याचार का ऐसा दुष्चक्र चलाते हैं कि भारी असंतोष और कुंठा के कारण उनके अधिनस्थ्ज्ञ सामान्य वर्ग वालों का जीवन दूभर हो जाता है। प्रश्न है कि क्या अनुसूचित जातियों जनजातियों को आरक्षण-सरंक्षण का लाभ क्या इसलिए दिया गया है कि वे शोषण और अत्याचार का एक नया अध्याय रचें ?
लाचारी यह है कि अनुसूचित वर्ग के बदमिजाज़ अफसरों के खिलाफ शिकायत होने के बावजूद उनके खिलाफ त्वरित कार्यवाही करने का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि उनके मामलों में सात गलतियाँ बाकायदा माफ की जाती हैं और ढीढ अफसरों के औसान और बढ़ते जाते हैं। संविधान का मूल स्वर यदि समानता है तो किसी को भी ऐसे अत्याचार, दमन और अपमान की छूट नहीं दी जानी चाहिये चाहे वह सामान्य वर्ग के लोग हो या अनुसूचित वर्ग के।
भारतीय समाज में जाति प्रथा का बोलबाला होने के कारण ऊँची जाति के कई लोग अब भी तथाकथित निचली जातियों के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त हैं और अपने कुविचारों से वे मौका बेमौका अनुसूचित जाति के लोगों को आहत करते रहते हैं, मगर अनुसूचित वर्गों के प्रति सद्भाव रखने वाले, उन्हें समानता का दर्जा देने वाले गैर अनुसूचित वर्गों के प्रगतिशील लोगों को भी यदि बदले की भावना से ग्रस्त अनुसूचित वर्गों के लोगों से डरे रहकर, भय और आतंक के साए में जीना पड़े तो फिर अनुसूचित वर्गों को दिये गये विशेषाधिकारों के बारे में एक बार फिर से सोचने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
देश भर में यह देखा जाता है कि स्वार्थ पूरा ना होने पर अनुसूचित जाति के लोग सामान्य वर्ग के लोगों पर अत्याचार का आरोप लगाकर अनुसूचित जाति जनजाति एक्ट में फंसाने से भी नहीं चूकते। ऐसी स्थिति में ताकतवर हो गये अनुसूचित जाति के लोगों पर विशेष नज़र रखने की ज़रूरत है ताकि वे बिना बात किसी को परेशान करने से बाज आएँ। हाँ, इसके साथ ही अनुसूचित जातियों के प्रति घृणा का भाव रखने वालों की भी, व्यापक सामाजिक आंदोलन और कानून के माध्यम से लगाम कसे रखने की आवश्यकता तो है ही।


शनिवार, 23 जनवरी 2010

मैं सुभाषचन्द्र बोस बोल रहा हूँ...............

सुभाषचन्द्र बोस उवाच- सुभाषचन्द्र बोस जयन्ती 23 जनवरी पर...............



‘‘मैं अपने बचपन में अंग्रेज़ों को देश से भगाना ही सबसे बड़ा कर्तव्य समझता था। बाद में गंभीर चिंतन के बाद इस नतीजे पर पहुचा कि सिर्फ अंग्रेज़ों को भगाने से ही मेरा फर्ज़ पूरा नहीं होगा। भारत वर्ष में एक नई सामाजिक व्यवस्था लागू करने के लिए एक और क्रांति की आवश्यकता है।’’
‘‘जो महान आदर्श को नहीं चाहता वह कभी इन्सान नहीं बन सकता।’’

‘‘यदि हम एक विचार अपनाते हैं तो हमें पूर्णतः अपने-आप को उसको समर्पित करना पड़ेगा और वह हमारे जीवन को परिवर्तित करेगा। एक अंधेरे कमरे में रोशनी आने से उसका अंधेरा पूरी तरह दूर हो जाएगा।’’


‘‘जो व्यक्ति अत्याचार होते देखकर भी उसे दूर करने की कोशिश नही करता वह इन्सानियत को बेइज़्ज़त करता है।’’

‘‘भूलो मत मनुष्य के लिए अन्याय और झूठ के साथ समझौता करना जघन्यतम अपराध है।’’

‘‘धर्म के नाम पर, देश के नाम पर, राजनीति के नाम पर किसी प्रकार की कट्टरता-अन्धता आदि हमारे शिक्षा के मंदिरों में प्रवेश न कर सके, इस ओर हमें नज़र रखनी चाहिए।’’




‘‘हिन्दु और मुसलमानों के हित परस्पर विरोधी हैं, यह बात जो कहते हैं वे सच्ची बात नहीं कहते हैं। भारतवर्ष की मूल समस्याएँ क्या हैं ? खाद्य का अभाव, बेराजगारी, राष्ट्रीय उद्योग का ह्नास, मृत्युदर में वृद्धि, स्वास्थ्यहीनता, शिक्षा की कमी - से ही मूल समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का समाधान न होने से जीवन दूभर हो उठा है, जिन्दा रहना भी बेमानी हो गया है और इन सारे मामलों में हिन्दु और मुसलमानों के हित अभिन्न हैं।’’

‘‘आज़ादी से मेरा तात्पर्य मात्र राजनैतिक बन्धनों से मुक्ति नहीं है। वरन् इसका तात्पर्य है धन का समान बंटवारा जातिगत अवरोधों और सामाजिक विषमताओं का खात्मा, साम्प्रदायिक और धर्मान्धता का विनाश।’’

सुभाषचन्द्र बोस

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

उद्योगपतियों को ज्योतिबसु के प्रति शोक प्रकट करने की ज़रूरत क्या है ?


पत्रिका समाचार पत्र में दिनांक 19.01.2010 को प्रकाशित समाचार

उद्योगपतियों को ज्योतिबसु के प्रति शोक प्रकट करने की ज़रूरत क्या है ? लेनिन, स्टालिन, माओत्सेतुंग के सम्मान में तो ये कभी एक शब्द नहीं कहते। जाहिर है ज्योति बसु का मार्क्सवाद पूँजीपतियों के लिए मुफीद बैठता था इसलिए सर्वहारा मजदूर वर्ग को छोड़ सारे पूँजीपति, दक्षिणपंथी राजनीति के धुरंधर लोग ज्योतिबाबू को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।


और भी पढे़ इसी ब्लॉग पर ‘‘कामरेड बसु केसरिया सलाम’’

सोमवार, 18 जनवरी 2010

कामरेड बसु केसरिया सलाम


हालाँकि यह उपयुक्त मौका नहीं है कि किसी दिवंगत व्यक्ति की आलोचना की जाए परन्तु जब देखा जाता है कि सारी पार्टियाँ, पूँजीवादी अखबार और तमाम ब्लॉगर बुद्धिजीवी तक एक स्वर में कह रहे हैं कि ‘‘साम्यवाद का स्तंभ ढह गया’’ तब मजबूर होकर इस मामले में अपनी राय ज़ाहिर करना पड़ रही है। साम्यवादी आन्दोलन की हालत आज किसी से छुपी नहीं है। पूँजीवादियों से ज़्यादा साम्यवादी विचार और आन्दोलन को यदि किसी ने नुकसान पहुँचाया है तो देश की कम्युनिस्ट पार्टियों ने और इसके लिए सबसे ज़्यादा अगर कोई जिम्मेदार है तो वह ज्योतिबाबू की पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी।

बहुत ही अफसोस की बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लम्बे शासन काल में जब यह मूल दिशा से पथभ्रष्ट होकर पूँजीवादियों के हाथ का खिलौना बनती चली गई, सर्वाधिक समय के लिए ज्योतिबाबू ही पश्चिम बंगाल में सत्ता के मुखिया रहे, और यही वह समय रहा जब पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के गुंडों ने प्रदेश की आम जनता का जीना हराम किया। प्रदेश में गरीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि का तांडव भी खूब चला, अब भी चल रहा है। आज भी यह तथ्य मौजू है कि देश में कहीं भी अगर वेश्यावृति सबसे ज़्यादा पाई जाती है तो वह है पश्चिम बंगाल।
यह एक बेहद आश्चर्य की बात है कि जिस राज्य में विगत कई वर्षों से दूसरी कोई राजनैतिक पार्टी अपनी जगह तक नहीं बना पाई, जिस राज्य को साम्यवादी विचारधारा एवं आंदोलन के प्रचारप्रसार के लिए सुविधा के रूप में एक पूरे राज्य की मशीनरी उपलब्ध थी वहाँ पूँजीवादी बुराइयों का घर आखिर कैसे बन पाया ? एक पूरे राज्य की सत्ता की मशीनरी के उपयोग के बावजूद मार्क्सवादी आन्दोलन मात्र तीन राज्यों में ही क्यों पैर पसार पाया। बाकी राज्यों में क्यों मार्क्सवादी पार्टी का सांगठनिक ढॉचा बेहद कमज़ोर स्थिति में रहा। वस्तुगत परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में इन सब प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वास्तव में अगर किसी व्यक्ति को जवाबदेह होना चाहिये था तो, सत्ता-संगठन के अत्यंत नज़दीक होने के कारण वे ज्योतिबाबू ही हो सकते थे, जो अब इस दुनिया में नहीं है। कोई कह सकता है कि यह सवाल तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो से पूछा जाना चाहिए, मगर हमारा कहना है कि, पोलिट ब्यूरो ही यदि वर्ग चेतना से लैस होता तो ना ज्योतिबाबू पोलिट ब्यूरो पर हावी हो पाते और ना पोलिट ब्यूरो साम्यवाद की अर्थी निकलती देखकर भी मूक दर्शक बना रहता।
दरअसल ज्योतिबाबू समेत पूरी मार्क्सवादी पार्टी इस मुगालते में रही कि एक ऐसा पूँजीवादी संस्थान ‘संसद’, जिसे पूँजीवाद ने अपने स्वार्थ को साधने के लिए एक हथियार के रूप में ईजाद किया था, उस हथियार पर काबिज होकर वे सर्वहारा, मजदूर वर्ग का भला कर लेंगे। ज्योतिबाबू के नेतृत्व का सम्पूर्ण काल यह साबित करता है कि मार्क्सवादी पार्टी के सारे धुरंधर मिलकर भी इस पूँजीवादी हथियार को सर्वहारा के पक्ष में उपयोग नहीं कर पाए, परन्तु पूँजीवादी शक्तियों ने, पहले से ही गलत बुनियाद पर खड़ी, सम्पूर्ण मार्क्सवादी पार्टी का वर्ग चरित्र बदलकर उसे पूरी तौर पर अपने पक्ष में उपयोग करने में एकतरफा सफलता पाई। अगर ऐसा नहीं होता तो ज्योतिबाबू का स्वयं का पुत्र इस पूँजीवादी व्यवस्था का लाभ उठाने वाला उद्योगपति नहीं होता और उनकी पार्टी के सबसे बड़े प्रशंसक ‘‘रतन टाटा’’ नहीं होते जिन्होंने सिंगुर में सारी दुनिया के सामने ज्योतिबाबू की पार्टी को अपना बंधुआ मजदूर बनाकर उपयोग कर लिया। दरअसल सिंगुर में बेशर्मी से पूँजीवाद की गोद में बैठकर आम जनता पर गोलियाँ चलवाने वाले वीर तो थे वर्तमान मुख्यमंत्री ‘बुद्धदेव’ मगर पतित सत्ता के वर्ग चरित्र के साथ संगठन के वर्ग चरित्र के निम्नतम स्तर तक पतन के दौरान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लम्बे समय तक काबिज़ ज्योतिबाबू ही थे। दुनिया भर के पूँजीपतियों को आमंत्रित कर पश्चिम बंगाल उनके हवाले कर देने की कवायद ज्योतिबाबू के नेतृत्व में प्रारंभ हुई जिसका कारण मार्क्सवादी सोच-विचार से ज़्यादा पूँजीवादी सरोकारों को सलाम करना है।
ज्योतिबाबू के निधन पर आज चारों ओर वही जय-जयकार मची है जो किसी पूँजीवादी नेता के दिवंगत होने पर मचती है। यहाँ तक कि संघ के निर्देशों-आदेशों पर चलने वाली मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी उनके गम में एक दिन का राजकीय शोक मना रही है। संघ का इस मामले में रुख क्या होगा यह तो पता नहीं परन्तु कट्टर कम्युनिस्ट विरोधियों का यह व्यवहार आश्चर्यचकित कर रहा है। ज्योतिबाबू अगर सचमुच मार्क्सवादी विचारधारा के सच्चे वाहक होते तो संघ और भाजपा खेमे में पटाखे भले ना फूटते मगर यह राजकीय शोक का कार्यक्रम भी शायद नहीं होता जिसे देखकर ऐसा लग रहा है मानो भगवा बिग्रेड उनके सम्मान में नारे लगा रही हो ‘‘कामरेड बसु केसरिया सलाम’’।

शनिवार, 16 जनवरी 2010

सर्वशक्तिमान ईश्वर की झूठी अवधारणा को ध्वस्त करने के लिए खगोलशास्त्र एवं खगोलीय घटनाओं का वैज्ञानिक विष्लेषण आज की महती आवश्यकता है


सहस्त्राब्दि का सबसे लम्बा सूर्यग्रहण सम्पन्न हुआ । एक महत्वपूर्ण खगोलीय घटना के हम प्रत्यक्षदर्शी बने मगर इसके साथ ही साथ बड़े पैमाने पर तर्कविहीन, रूढ़ीवादी, अवैज्ञानिक अंधविश्वास जनित कार्यव्यापार के भी मूक दर्शक बने, जैसे कि हमेशा ही ऐसी घटनाओं के समय बनते आएँ हैं। जब भी कोई इस प्रकार की घटना घटित होती है हमें भारतीय समाज की दुर्दशा का मार्मिक नज़ारा देखने को मिलता है, जब अनपढ़ तो अनपढ़, समाज को आगे ले जाने के लिए जिम्मेदार पढे़-लिखे लोग भी अपनी तर्कशक्ति को ताक पर रखकर बुद्धिहीनों की तरह आचरण करने लगते हैं। हज़ारों-लाखों लोगों के इस प्रकार कठपुतलियों की तरह व्यवहार करते देख उनकी तुलना उन पशु-पक्षियों से करने को मन करता है जो सूर्यग्रहण के अंधकार से भ्रमित होकर अपने नीड़ों को लौटने लगते हैं, या जिस प्रकार गाय-बकरियाँ शाम होने के भ्रम में वापस घर लौटने लगतीं हैं। ज्ञान-विज्ञान के अभाव में उनका यह आचरण आश्चर्य पैदा नहीं करता लेकिन पढ़े लिखे मनुष्यों के पास प्रकृति से संबंधित अंधिकांश ज्ञान उपलब्ध होने के बावजूद ऐसा व्यवहार आश्चर्य के साथ-साथ दुखी भी करता है।


हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जिन्होंने ज्ञान-विज्ञान से लैस होने के लिए अपना मूल्यवान समय तो ज़ाया किया है परन्तु उसका उपयोग करने का जज़्बा उनमें पैदा ही नहीं हो सका। ऐसे लाखों लोग हमेशा की तरह सूर्यग्रहण का तथाकथित सूतक शुरू होते ही सारी मानवीय गतिविधियों पर रोक लगाकर घर में दुबक कर बैठ गए। सूर्यग्रहण शुरू होते ही खाना-पीना प्रतिबंधित कर व्रत सा धारण कर लिया और कुछ लोग सभी खाने-पीने के पदार्थों में तुलसी पत्ता डालकर उन्हें किसी अज्ञात दुष्प्रभाव से बचाने की कवायद में लग गए। सूर्यग्रहण समाप्त होने पर तथाकथित मोक्ष की बेला में बीमार कर देने वाले बर्फीले ठंडे नदियों-तालाबों के पानी में उतरकर पवित्र होने के विचित्र भाव से आल्हादित होने लगे। मंदिरों में एकत्रित हो मूर्तियों के सामने नतमस्तक होकर संकट से उबारने के लिए की गुहार लगाने वाले सीधे-साधे अशिक्षित ग्रामीणों की बात अलग है, परन्तु यहीं सब करते हुए जब पढ़े-लिखे लोगों की जमात को देखना पड़ता है तो हमारे समाज के एक दुखद पहलू का सामना करते हुए बरबस आँखों में आँसू आ जाते हैं। पढ़े-लिखों का दयनीय चेहरा तब और सामने आने लगता है जब वे अपने इन तमाम अंधविश्वासी कृत्यों को उचित ठहराने के लिए इस अंधाचरण पर स्वरचित अवैज्ञानिक अवधारणाओं का मुलम्मा चढ़ाने का प्रयास करने लगते हैं।

दरअसल यह पूरी तरह से राज्य का विषय है। ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के इस दौर में किसी भी राज्य की यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपने नागरिकों को अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाले। रूढ़ीवाद, अंधविश्वास एवं अंधतापूर्ण आचरण पर अंकुश लगाए, उन्हें वैज्ञानिक विचारधारा से लैस करे, लेकिन देखने में आता है कि इन सब मसलों पर राज्य की भूमिका एकदम निराशाजनक होती है। निराशाजनक शब्द शायद ठीक नहीं है.......राज्य की बागडोर अगर अंधविश्वासी, कूपमंडूक लोगों के हाथों में हो तो क्या उम्मीद की जा सकती है। राज्य के वर्ग चरित्र को देखकर यह कहा जा सकता है कि राज्य जनमानस के बीच अंधविश्वासों, रूढ़ीवाद, अवैज्ञानिक चिंतन को पालने-पोसने बढ़ावा देने में लगा हुआ है, तभी सूर्यग्रहण जैसी महत्वपूर्ण खगोलीय घटना के बारे में ज्ञानवर्धन की कवायद करने की बजाय किसी अज्ञात भय संकट के वातावरण का सृजन करते हुए स्कूल-कालेजों के बच्चों को छुट्टी दे दी जाती है।

हमारा मानना है कि खगोल विज्ञान वह महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसका समुचित और सही-सही ज्ञान मानव समाज को सत्य की खोज की भटकन से मुक्त कर सही दिशा सही रास्ते की ओर उन्मुख करता है जो कि बेहद जरूरी है। विषेशकर इस स्थिति में जब आज भी पृथ्वी को शेषनाग के फन पर रखी होने की गप्प पर विश्वास करने वालों और सूर्यग्रहण को ईश्वरीय प्रकोप मानने वालों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है। पृथ्वी, ब्रम्हांड, एवं मानव समाज की समस्त गतिविधियों को संचालित करने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर की झूठी अवधारणा को ध्वस्त करने के लिए खगोलशास्त्र एवं खगोलीय घटनाओं का वैज्ञानिक विष्लेषण आज की महती आवश्यकता है, वर्ना सूर्यग्रहण-चन्द्रगहण पर उपवास कर संकट से मुक्ति की कामना करने वाले पढ़े-लिखों की संख्या बढ़ती ही रहेगी और भारतीय समाज कभी भी अज्ञान के अंधकार से मुक्त नहीं हो पाएगा।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

धर्म का काम सामाजिक नियमों का निर्माण करना नहीं है- विवेकानंद

विवेकानन्द उवाच-विवेकानंद जयन्ती 12 जनवरी पर...............


‘‘धर्म का काम सामाजिक नियमों का निर्माण करना नहीं है। सामाजिक नियम आर्थिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुए हैं। धर्म की यह भयानक भूल थी कि उसने सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप किया । यह सत्य है कि हम चाहते हैं कि धर्म समाज सुधारक न हो और साथ साथ हम इस बात पर भी बल देते है कि धर्म को सामाजिक नियम निर्माता होने का कोई अधिकार नहीं। अपने हाथ अलग रखो। अपने को अपनी सीमाओं में रखो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।’’



‘‘मेरे बारे में सिर्फ इतना ही जान लेना कि मैं किसी के कथनानुसार नहीं चलूँगा। मेरे जीवन का क्या व्रत है, यह मैं जानता हूँ। किसी जाति विषेष के प्रति न मेरा तीव्र अनुराग है न घोर विद्वेष ही है। मैं जैसे भारत का हूँ, वैसे ही समग्र जगत का हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी करना व्यर्थ है।’’


‘‘धार्मिक उन्मत्तता, साम्प्रदायिकता था कट्टरपन की विभीषिकाओं से यह सुन्दर पृथ्वी घिरी हुई है। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, इन्सान के लहू से धरती को लाल कर दिया है, सभ्यता का नाश किया है एवं सम्पूर्ण जाति को निराशा में डुबों दिया है।’’

‘‘स्वामी विवेकानंद’’