रविवार, 26 दिसंबर 2010

प्रसंग विनायक सेन-व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी

           दुनिया के सबसे बडे़ प्रजातंत्र की एक अदालत ने जनसंघर्षों के एक प्रबल समर्थक को ‘‘उम्रकैद’’ की सजा सुनाई है, स्पष्ट है कि यह जर्जर व्यवस्था बिल्कुल नहीं चाहती कि ‘‘डॉ. विनायक सेन’’ जैसे लोग किसी भी सूरत में शोषित-पीड़ित आम जनता को संगठित करने, उनके साथ चल रहे पूँजीवादी षड़यंत्रों का पर्दाफाश करने, और मुट्ठी भर शोषकों के द्वारा चलाए जा रहे जबरदस्ती के शासन के विरुद्ध सच्चे जनतंत्र की चेतना का अलख जगाए।
          डॉ. विनायक सेन को सुनाई गई उम्र कैद की सजा पर बुद्धिजीवियों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई है, जिसका लब्बो-लुबाब महज़ यह है कि जब देश में बड़े-बड़े अपराधी, घोटालेबाज, भ्रष्ट लोग, चोर-लुटेरे-डाकू, साम्प्रदायिक शुचिता को नष्ट करने वाले अपराधी, बलात्कारी और तमाम जनद्रोही खुले आम आज़ाद घूम रहे हैं तो फिर विनायक सेन को क्यों उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है! सवाल सुनने में बड़ा आकर्षक और विचारोत्तेजक लगता है लेकिन इसका सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है वह यह कि-तुम जैसे, व्यवस्था से छोटे-छोटे लाभ पाने के लालच में उससे चिपके हुए खामोशी से यह तमाशा देखते रहने वाले शिखंडी बुद्धिजीवियों के कारण यह सब हो रहा है। सत्य को दफनाने के लिए इन अवसरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा जिस तरह से मूक रहकर व्यवस्था का साथ दिया जाता है उससे तो यही कहा जा सकता है कि यही इस युग के सबसे बड़े अपराधी है जो कुव्यवस्था के खिलाफ खुलकर सामने आने से कतराते हैं ताकि उनके घटिया स्वार्थों की पूति बंद ना हो जाए।
          देश में जो कुछ चल रहा है वह हिटलर के समय की याद ताज़ा करता है जब चुन-चुनकर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को काल कोठरियों में पहुँचा दिया जाता था। यदि हम हिटलर के नेतृत्व में चले सर्वहारा मजदूर वर्ग विरोधी व्यापक फासीवादी दुष्चक्र को सिर्फ इसलिए याद न करना चाहें कि उसके साथ कम्युनिस्ट आन्दोलन की यादें जुड़ी हैं, और विनायक सेन भी वैचारिक रूप से साम्यवादी आदोलन के ही समर्थक हैं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की उन घटनाओं को याद करके भी हम इस समय की गंभीरता को सुविधाजनक रूप से समझ सकते हैं जब तथाकथित ब्रिटिश कानून सीधे तौर पर अँग्रेज शोषक-शासक वर्ग का पक्षधर कानून था। ब्रिटिश शासनकाल में भी दमन और उत्पीड़न का वह दौर गुजरा है जब ब्रिटिश राजसत्ता ने अपने विरोधियों को जेल की सलाखों के पीछे कैद किया था, फॉसी की सज़ा सुनाई थी। वह भी ऐसा ही समय था जब मुट्ठी भर सत्ताधारियों ने जनता की आवाज़ को दबाने के लिए प्राणघातक दमनचक्र चलाया था, जबकि उस समय तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रजातंत्रकी अवधारणा आज की बनिस्पत ज्यादा नई और प्रगतिशील थी।
          आँख खोलकर देखने की ज़रूरत है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र अब मूल में लोकतंत्र विहीन होकर रह गया है जिसकी कानून व्यवस्था, पूँजीवादी शोषक-शासक राजसत्ता की ही पक्षधर है। शोषक और शोषित के मध्य एकता के फर्जी सिद्धांत लोकतंत्र के सारे मुखौटे अब उतर चुके हैं और अब यह शुद्ध रूप से पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी पर उतर आया है, इसलिए इसके लिए अब यह अनिवार्यता सी हो गई है कि डा.विनायक सेनजैसे, जनता की समझ विकसित कर, मुट्ठी भर शोषकों के विरुद्ध उन्हें लामबंद करने वाले लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
          डा. विनायक सेन को दी गई सज़ा देश भर में फैले उन जैसे हज़ारों सर्वहारा जन समर्थकों के लिए भी एक चेतावनी है कि अब भी अगर उन्होंने अपना अभियान बंद न किया, व्यवस्था के आड़े आए तो उनका भी यही हश्र होगा। साथ ही साथ जनता के दुख दर्द को समझने वाले उन हज़ारों लोगों के लिए भी यह घटना एक सबक है कि यदि अब भी वे इस प्रतिक्रियावादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में ऐसे ही छितरे-छितरे रहे, एकजुट न हुए तो यह व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी।   

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

राजधानी भोपाल में किसानों का हल्ला बोल.......



          राजधानी भोपाल में प्रदेश भर के किसानों ने ऐन मुख्यमंत्री बंगले के नीचे जबरदस्त धरना देकर अपनी ताकत दिखा दी है। कल दिन भर भोपाल में आम जनता की आवाजाही एवं तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुई। आज के अखबारों में किसानों एवं उनके नेताओं के बयान छपे है कि जब उनकी परेशानियाँ किसी को नहीं दिखती तो वे भी किसी की परेशानियाँ क्यों देखें। किसान अपने साथ खाने-पीने का सामान और सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर के आएँ है जिससे लगता है कुछ दिन और राजधानी को उनकी कैद में रहना पडे़गा। 
          धरना भारतीय किसान संघ का है जो कि भारतीय जनता पार्टी का ही भाई-बंद है और राष्ट्रीय सेवक संघ का जाया संगठन है इसलिए इस आयोजन को शक की निगाह से देखा जाना जरूरी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान जो कि आमतौर पर धरना-प्रदर्शनों पर लाठी चार्ज करने में आगे-पीछे नहीं देखते, और अभी कुछ ही दिनों पहले मास्टरों की अच्छी खासी मरम्मत करके उन्हें राजधानी से भगाया गया था, ऐसे में कई महीनों से चल रही किसानों की तैयारी और उनके आक्रामक मूढ़ को न भांप पाकर आज शिवराज प्रशासन पंगु होकर रह गया है यह मानना सरासर नादानी होगी। हमें लगता है कि यह धरना भारतीय जनता पार्टी के उस गुट का प्रायोजित धरना हो सकता है जो शिवराज की राहों में कांटे बिछाने की कई कोशिशें कर चुके हैं और अभी भी करते आ रहे हैं, या फिर जिस तरह से पुलिस-प्रशासन आन्दोलनकारियों के साथ दोस्ताना रवैया अपनाए हुए है उससे लगता है कि इसमें शिवराज सिंह चौहान की ही कोई चाल हो सकती है। यदि शिवराज की चाल है तो खुद उनके विरोधी एक दो दिन में इसका खुलासा कर देंगे, ऐसी उम्मीद है।
          बहरहाल, जो भी हो किसान चाहे भारतीय किसान संघ का किसान हो या किसी और संगठन से जुड़ा किसान, उसकी समस्याओं को पूँजीवादी घरानों की दादागिरी के इस दौर में जिस तरह से नज़रअन्दाज़ किया जा रहा था, उसका प्रतिफल तो मौजूदा पूँजीवाद परस्त सरकारों को मिलना ही चाहिए था। देशभर में जिस तरह किसानों के साथ भेदभाव, षड़यंत्र चल रहे है उसके खिलाफ किसान को एक जुट होना बेहद जरूरी था वर्ना कृषि और किसानों का सर्वनाश सुनिश्चित था। इस धरने में शामिल किसान राजनैतिक रूप से कितने सचेत हैं और अपने ऊपर हो रहे पूँजीवादी हमलों से कितना वाकीफ हैं कहना मुश्किल है, मगर तमाम तथाकथित प्रजातांत्रिक सरकारें जनता की असली ताकत को भूलकर, उन्हें महज वोट समझकर जिस तरह राजकाज चलाती आ रहीं हैं, उन्हें किसानों के इस आक्रामक मूढ़ से डरकर उनके हित में राजकाज चलाना सीखना होगा वर्ना यह तय है कि आने वाले समय में देश की केन्द्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें किसानों और आम जनता के इस आक्रोश से बच नहीं पाएँगी। जनता एक ना एक दिन सच्चाई समझ जाती है और संगठित होकर तख्ते पलटती है आज के पूंजीपरस्त राजनेता इस बात को अगर भूल गए हों तो फिर से याद करलें।
          भोपाल में किसानों का यह हल्ला बोल आन्दोलन राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से परे पूरे देश के किसानों में फैल सकता है और एक राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन में तब्दील हो सकता है इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
पुनश्च- आज राजधानी भोपाल के सारे अखबार किसानों के इस धरने से जनता को हो रही परेशानी की खबरों से भरे पड़े हैं, वे यदि आम जनता को किसानों की परेशानी विस्तार से बताते तो ज़्यादा अच्छा रहता। आखिर किसान राजधानियों की तमाम सुविधाभोगी आम जनता के लिए अन्न उपजाता, है इस बात को नहीं भूलना चाहिए।         

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

गैस त्रासदी 26वी वर्षगांठ - जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं......

    आज विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना की छब्बीसवी वर्षगांठ है, जिसे विश्व के सबसे बडे़ औद्योगिक षड़यंत्र के रूप में याद किया जाना चाहिए। भोपाल में गैस पीड़ित बस्तियों में कुछ बद्धिजीवी लोग, कुछ सरकारी-गैर सरकारी गैस पीड़ित संगठन कुछ राजनैतिक पार्टियों, कुछ अखबार वाले कुछ न्यूज़ चैनल अपनी औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराकर कर्तव्य की इतिश्री करेंगे और उधर भारतीय पूँजीवाद, विश्व साम्राज्यवाद की बाहों में बाहें डालकर जश्न मनाएगा।
    विगत 26 वर्षों के दौरान गैस पीड़ितों के प्रश्नों पर चली तमाम गतिविधियों की विवेचना करने पर एक जो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर सामने आता है वह यह है कि आखिर क्यों कर गैस पीड़ितों का आन्दोलन एक विराट आन्दोलन के रूप  में उभरकर सामने नहीं आ पाया, जबकि इसमें भोपाल की गैस पीड़ित जनता के स्वास्थ्य, पुनर्वास, रोजगार और तो और सीमेंटिंग फैक्टर के रूप  में काम करने वाले राहत और मुआवजे़ का प्रश्न भी शामिल था, जिसका सहारा लेकर गैस पीड़ितों के आन्दोलन को प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक लड़ाई की दिशा से पथभ्रष्ट किया गया। क्यों यह आन्दोलन एक ताकतवर आन्दोलन नही बन पाया जबकि इसमें ‘धन’ प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ मौजूद थीं। आमतौर पर यही पाया जाता है कि जब पैसा हासिल करने का मुद्दा सामने हो तो भारतीय जनमानस सक्रिय रूप से आन्दोलनों में भागीदारी निभाता है।
    इस प्रश्न के उत्तर में कई एक बिन्दु सामने आते हैं। पहला यह कि मध्यप्रदेश में राजनैतिक आन्दोलनों का कोई गौरवशाली इतिहास और परम्परा कभी रहीं नहीं इसलिए आम जनता केवल वोटर के रूप में जीती रही है, जिसका फायदा उठाकर जहाँ एक ओर तमाम संसदीय पार्टियों ने गैस पीड़ितों के आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग के हितों की दलाली की मंशा-स्वरूप गैस पीड़ितों के आन्दोलन को नष्ट करने का काम किया वहीं गैर सरकारी संगठनों और उनके प्रतिनिधियों ने जनवादी राजनैतिक चेतना के अभाव में गैस पीड़ितों की लड़ाई को एक राजनैतिक लड़ाई के रूप  में खड़ा ना कर मामूली धरना-प्रदर्शन की औपचारिकता एवं कानूनी दांवपेचों में फँसाकर नष्ट करने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारनामा अंजाम दिया। जनता की लड़ाइयों को अदालतों में ले जाकर सीमित कर देने वाले इन संगठनों से पूछा जाना चाहिए कि -‘‘क्या होता अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अदालतों में लड़ा जाता.........? इसका एक ही जवाब है कि भारतीय आम जनता युगों-युगों तक आज़ादी की साँस नहीं ले पाती।’’
    गैस पीड़ितों के सवालों पर मध्यप्रदेश और भारत सरकार की कुर्सियों पर समय-समय पर काबिज पार्टियों, ब्यूरोक्रेट्स, कानून, अदालत इत्यादि-इत्यादि ने जो विश्वासघात किये वे तो अपनी जगह पर हैं, और जब जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं, परन्तु जो लोग लम्बे समय से गैस पीड़ितों के आंदोलन का नेतृत्व करने का भ्रम पाले हुए विगत 26 वर्षों से अपनी दुकानें चला रहे हैं, उन सभी को एक बार अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कारण है वे गैस पीड़ितों की लड़ाई का सफल प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। इस बात पर भी उन्हें मंथन करना चाहिए कि जब लड़ाई के मुद्दे समान हैं तो अलग-अलग ढेर सारे संगठनों की आखिर ज़रूरत क्या है ? क्यों नहीं वे तमाम छोटे-मोटे संगठन लड़ाई को साझी लड़ाई के रूप में आत्मसात कर मज़बूत बना पाते ? ज़ाहिर है वे सब भी अन्ततः उन लोगों के स्वार्थ को सधने दे रहे हैं जिनका ध्येय है कि गैस पीड़ितों की लड़ाई ताकतवर रूप में खड़ी होकर कभी भी उनके आड़े ना आ सके, और यह स्थार्थ यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमरीकी साम्राज्यवाद और भारतीय पूँजीवाद के जनविरोधी गठबंधन के अलावा किसका हो सकता है ? गैस पीड़ितों के भीतर यह चेतना फूँकने वाला कोई नहीं, यहीं उनका दुर्भाग्य है।