सोमवार, 30 नवंबर 2009

क्या इस पोस्ट पर किसी को कुछ नहीं कहना है ?

दृष्टिकोण ने राष्ट्रीयकता बनाम राष्ट्रीयता-ठाकरों का आतंक नाम से एक बेहद महत्वपूर्ण पोस्ट कल से लगा रखी ह। मगर किसी भी महानुभाव का कमेन्ट अब तक नहीं आया है । इतने महत्वपूर्ण मुदृदे पर क्या ब्लाॅग जगत के बुद्धिजीवियों को कुछ नहीं कहना है। कृपया देखें :-
http://drishtikon2009.blogspot.com/2009/11/blog-post_28.html

रविवार, 29 नवंबर 2009

राष्ट्रीयकता बनाम राष्ट्रीयता-ठाकरों का आतंक

पिछले दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मराठी भाषा में शपथ की ज़िद के बहाने जिस घटनाक्रम को अन्जाम दिया गया उससे भारतीय लोकतंत्र की दुर्दशा का एक संगीन पहलू उभरकर सामने आता है। स्वतंत्रता के पश्चात् बासठ सालों के इतिहासक्रम में भारतीय लोकतंत्र को परिपक्वता के जिस स्तर पर पहुँच जाना चाहिए था वहाँ से अब भी यह कोसों दूर है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण महाराष्ट्र विधानसभा में उस दिन देखने को मिला जिस दिन जनता के कुछ चुने हुए नुमाइंदों (गुंडों) ने भरे सदन में सरेआम मारपीट कर सदन की मर्यादा तार-तार कर दी। मगर, इस घटना को गुंडागिरी की सामान्य घटना के रूप में देखने से ऐसी घटनाओं की जनक मूल समस्याओं का विवेचन संभव नहीं होगा। इसके लिए देश की सामाजिक- सांस्कृतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में आर्थिक-राजनैतिक विरोधाभासों की चर्चा की जाना अत्यंत आवश्यक है, याकि यह भी कहा जा सकता है कि आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में सामाजिक-सांस्कृतिक विरोधाभासों की टोह लेना बेहद जरूरी है।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को देखा जाए तो यह एक ऐसे देश का स्वतंत्रता आंदोलन था जिसका अस्तित्व एक देश के रूप में अंग्रेजों के आने के पूर्व था ही नहीं । अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों की अनिवार्यता के मद्देनज़र इस भूभाग की कई सारी राष्ट्रीयताओं को ब्रिटिश सत्ता के एक डंडे से हाँककर जाने-अनजाने एक सूत्र में पिरोने और राजनैतिक रूप से एक देश की शक्ल देने काम किया, और इसके विरुद्ध एक क्रूर शक्तिशाली राजसत्ता से मुकाबले में, अधिक ताकत की व्यावहारिक अनिवार्यता के कारण ही सांस्कृतिक विविधता वाली इन सभी राष्ट्रीयताओं को एक झंडे के नीचे आकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने की ज़रूरत पैदा हुई और तमाम विरोधाभासों के बावजूद पृथक-पृथक राष्ट्रीयताओं, पृथक-पृथक जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदायों के लोगों की तात्कालिक एकता के आधार पर तत्समय अंग्रेजों से लोहा लिया गया। आमतौर पर इन विरोधाभासों को हिन्दु-मुस्लिम विरोधाभासों के रूप में ही देखा जाता रहा है परंतु ये विरोधाभास कई सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों व अन्य सूक्ष्म एवं संवेदनशील मुद्दों पर भी रहे हैं यह सभी जानते हैं।
इतिहास गवाह है कि मानव समाज में जब भी कोई बड़ी उथल-पुथल होती है तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। प्रचलित मूल्यबोध, संस्कृतियाँ ध्वस्त हो जाती हैं, नए सिरे से निर्मित होती है, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पुराने का लोप होकर काफी कुछ नया अवतरित होता है, जिसके आधार पर नए सिरे से समाज का गठन होता है। यूरोप में राजशाही के सत्ता पलट के दौरान यही हुआ और वैयक्तिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के आधार पर समाज का गठन हुआ, स्वतंत्रता, समानता भाईचारे पर आधारित मूल्यबोधों का आविर्भाव हुआ। हालाँकि फिलहाल चर्चा का मुद्दा यह नहीं है फिर भी उल्लेखनीय है कि इतिहास से सबक लेकर अंग्रेजों के इस उपनिवेश में भी देशव्यापी पुनर्जागरण का जो ज्वार खड़ा किया जाना चाहिये था वह नहीं हो सका। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधाओं ने औपनिविशिक गुलामी से मुक्ति के संघर्ष के साथ नवीन भारतीय समाज के निर्माण की पुख्ता नींव रखने का यह सुनहरा मौका खो दिया जिसका खामियाजा विगत बासठ वर्षों से हमारा देश भुगत रहा है और ना जाने आगे कितने वर्षों तक भुगतता रहेगा। वास्तव में स्वतंत्रता आन्दोलन एक ऐसा विहंगम यज्ञ था जिसमें धर्म निरपेक्षता एवं स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर भारत की तमाम राष्ट्रीयताओं, जाति-पाति, धर्म-भाषा-सम्प्रदाय के लोगों के संघर्ष को संगठित किया जाना समय की महती आवश्यकता थी जिसके जरिए आम जनता को, उसके निजी अस्तित्व को गौण रखकर, पूर्वाग्रहों, सामंती मूल्यों, निजी स्वार्थों एवं तमाम संकीर्ण सोच-विचार, चिंतन को तिलांजलि देकर समाज के पुनर्निमाण के संघर्ष के ज़रिए एक इकाई में ढाला जाना चाहिए था। स्वतंत्रता आन्दोलन के नेतृत्व के समक्ष उस समय जन साधारण को धर्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय से निरपेक्ष एक राष्ट्रीयता की मजबूत भावना में पिरोने का वृहत मौका उपस्थित था परंतु कहा जा सकता है कि नेतृत्व के स्तर पर इस मुद्दे पर स्पष्ट अवधारणा के अभाव और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के कारण राष्ट्र के सर्वोपरी स्वार्थ को तिलांजलि देकर समाज निर्माण की तमाम वैज्ञानिक अवधारणाओं के विपरीत अनेकता में एकता के सिद्धांत को बेहद अपरिपक्व तरीके से गले से लगा कर रखा गया।
आज़ादी के बाद भी, कहा जा सकता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तरह ही भारतीय पूँजीवाद की जरूरत के मद्देनज़र इस ‘अनेकता’ को अक्षुण्ण रखने का सायास कार्यक्रम चला जिसमें ‘एकता’ को स्थापित करने का कोई इरादा कभी नहीं रहा। आज़ादी के पश्चात के इन बासठ वर्षों में जैसे-जैसे स्वतंत्रता आंदोलन की बची-खुची नैतिकता की आँच तिरोहित होती चली गई, धीरे-धीरे यह विखंडन और अलगाव बढता ही चला गया। जब जिसे मौका लगा उसने अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं के झंडे-डंडे हाथ में लेकर देश की उस आत्मा को कलंकित किया जिसे हम ‘राष्ट्र’ कहते हैं। पृथक खालिस्तान, पृथक कश्मीर के बहाने कई लाख लोगों को अपनी जान गँवाना पड़ी। जाति-पाति, भाषा-संप्रदाय के नाम पर भी लाखों लोग खेत रहे। चुनावी स्वार्थों ने भी बड़े पैमाने पर लोगों में ‘कार्ड’ की राजनीति को प्रश्रय देकर राष्ट्रीयता की भावना को कुचलने का काम किया गया। इसी तमाम ऐतिहासिक राजनैतिक परिदृष्य की पृष्ठभूमि में मराठी का झंडा बुलंद कर चंद गुंडों ने, जिनकी जगह जेल से बेहतर दूसरी कोई नहीं, महाराष्ट्र में देश की आत्मा के साथ बलात्कार किया, और यह बलात्कार कमोबेश हर समय देश के हर शहर में हर प्रांत में अलग अलग भाषा-भाषियों के साथ परस्पर होता ही रहता है जिसे सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यदि भारतीय समाज जात-पात धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, प्रांत के विचार से ऊपर उठकर एक देश, एक राष्ट्र, एक मुल्क की भावना के साथ एक इकाई के रूप में जी रहा होता तो देश को आए दिन यह शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ती।
इस तमाम कहानी के बीच एक और कहानी गुथी हुई है। वह है देश में असमान आर्थिक विकास की कहानी। पिछले बासठ वर्षों में असमान विकास की भेंट चढे़ लाखों गरीब बेरोज़गार किसान-मजदूर और मध्यमवर्गीय लोग अपनी-अपनी जन्मभूमि से मायग्रेट होकर उस-उस दिशा में चले गए जहाँ दाल-रोटी की जुगाड़ संभव हो सकती थी। आर्थिक विकास की एक‍ तरफा हवा के चलते मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई आदि बड़े-बड़े शहरों ने काफी सालों तक इन माइग्रेंटों का बोझ उठाया है और अब भी उठा रहे हैं। उन शहरों में जब स्थानीय लोगों के लिए ही रोज़गार की व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी तो बाहर के लोगों का चले आना उनके लिए अखरने वाली बात तो थी ही। देश भर में स्थानीय ग्रामों, शहरों, कस्बों के स्तर पर रोज़गार की समस्या को हल कर इस मुद्दे को सही तरह से सुलझाया जाता तो यह परिस्थिति उत्पन्न होने से रुक सकती थी। लेकिन जर्जर पूँजीवादी व्यवस्था के चलते आर्थिक हालात इसकी इजाज़त नहीं देते। पूँजीवाद के दबाव के कारण ही आदमी अपनी जड़ों से विछिन्न होता है और व्यक्तिगत स्वार्थ के नशे में चूर होकर असामाजिक जीव बन जाता है। नीति-नैतिकता, दायित्व-बोध इत्यादि का उसके लिए कोई मतलब नहीं रह जाता। मुबंई में भी यही हुआ। उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब और दक्षिण भारत से निकलकर लाखों की तादात में मुंबई पहुँचे लोगों ने रोजगार के क्षेत्र में बेहद अफरातफरी मचा कर रख दी। बाहरी सस्ते श्रम की उपलब्धता के कारण स्थानीय लोग रोज़गार से मोहताज होने लगे। भयानक सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्था के बीच ‘भैया’ लोगों और ‘भाइयों’ के द्वारा भय और आतंक का जो वातावरण वहाँ निर्मित किया गया, डॉनों ने जिस तरह से मुंबई को खून से नहलाया उसका खामियाजा वहाँ स्थानीय मराठियों के साथ-साथ तमाम दूसरे शरीफ लोगों को भी भुगतान पड़ा। इस तमाम अराजकता की स्थितियों में प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मराठी जनसाधारण में काफी भयानक आक्रोश पैदा हुआ और उनकी भावनाओं का लाभ लेकर ठाकरे‍-शिवसेना एंड कंपनी का आविर्भाव हुआ जिसने बड़े स्तर पर गैर मराठी के मुद्दे पर मुबंई में आग उगलना चालू कर दी। इस प्रतिक्रिया से भैया और भाइयों की दादागिरी पर एक तरीके से अंकुश तो लगा, परंतु आम जनता का यह गैर मराठी विरोधी सेंटीमेंट चुनावी राजनीति में अहम भूमिका अदा करने लगा है और मराठी राजनीति के ठेकेदारों को इसे उभाड़कर सत्ता हासिल करने का सीधा-सरल रास्ता मिल गया है।
ठाकरों का आतंक राज कायम है। गैर मराठी लोग मुंबई जाने में घबराने लगे हैं। मुझे डर है कि ठाकरों की इस शूद्र हरकत से देश के बाकी हिस्सों में, दूसरे किन्हीं भी माइग्रेंटो की तरह ही (शान्ति के बहाने) सुरक्षा बोध से ग्रस्त-गुज़र बसर कर रहे लाखों मराठी-भाषियों की जिन्दगी खतरे में ना आ जाए।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

विवाह एक नैतिक बलात्कार


जैसा कि अपेक्षित था वैसा ही हुआ। भोपाल की सड़कों पर ‘ऋषि’ अजय दास की पुस्तक ‘‘विवाह एक नैतिक बलात्कार’’ के, तथाकथित लव गुरू प्रोफेसर मटुकनाथ और उनकी प्रेमिका शिष्या द्वारा विमोचन के होर्डिंग देखकर ही यह समझ लिया गया था कि भारतीय संस्कृति के रक्षकों के सक्रिय होने का वक्त आ गया है। वही हुआ। दिनांक 27.11.2009 को भोपाल के रवीन्द्र भवन परिसर में पुस्तक के लेखक ऋषि अजय दास को मुँह काला कर मारा-पीटा गया और विमोचन करने आए प्रो. मटुकनाथ एवं जूली को भी जूते मारने की कोशिश की गई। जिस प्रदेश में भारतीय संस्कृति के रक्षकों की सरकार हो वहाँ इससे कम की क्या उम्मीद की जा सकती है।
इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान समय में ‘विवाह’ नाम के एक नैतिक आवरण के पीछे काफी कुछ अनैतिक चल रहा है जिसे ठीक कर एक सुशिक्षित प्रजातांत्रित समतामूलक समाज के योग्य बनाए जाने का सामाजिक संघर्ष बेहद जरूरी है। मगर ‘‘विवाह एक नैतिक बलात्कार’’ जैसे शीर्षक से किताब लिखकर विवादित प्रो. मटुकनाथ-जूली से उसका विमोचन कराया जाना भी गले से नीचे उतरने वाली बात नहीं है। यह प्रोपोगंडा के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों जैसा ही कुछ प्रतीत होता है।
हालाँकि पुस्तक के अन्दर क्या लिखा है यह पढ़ने का सौभाग्य अभी नहीं मिला है परंतु शीर्षक से स्पष्ट होता है कि लेखक विवाह के बाद पुरुष को मिल गए स्त्री पर बलात्कार के वैध लायसेंस के बहाने स्त्री पर अत्याचार के बारे में कुछ कहना चाहते है। इससे यह भी प्रतिध्वनित होता है कि ‘विवाह’ संस्था एक निकृष्ठ किस्म की व्यवस्था है । प्रो. मटुकनाथ एवं जूली की उपस्थिति से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने जो भी किया वह शुद्व रूप से नैतिक कारोबार है।
पुस्तक पढ़ने के पहले कुछ भी कहना हालाँकि जल्दबाज़ी होगी परन्तु कुछ बातों पर टिप्पणी की जाने में कोई हर्ज नहीं है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है विवाह के संबंध में । विवाह में आज भले ही कितना भी अनैतिक कारोबार आ घुसा हो परन्तु यह अब भी सामाजिक दृष्टि से एक उचित व्यवस्था है। बेमेल विवाह, लिव इन रिलेशन, समलैंगिक विवाह, अविवाहित रहकर आजीवन भ्रष्ट यौनाचारपूर्ण जीवन जीना यह सब एक अराजकतापूर्ण आसामाजिक नैतिक व्यवहार के उदाहरण हैं। विवाह में चाहे वह अरेंज विवाह हो या प्रेम विवाह, समान कर्म, समान विचार, समान आचार-व्यवहार, समान चिंतन सीमेंटिंग फेक्टर का कार्य करते हैं जिसको ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। इसके अभाव में पूरा जीवन एक दूसरे के साथ संघर्ष करते हुए एक अभिशाप की तरह गुजारना कोई समझदारी की बात नहीं है। बलात् रति क्रिया जिसे बलात्कार कहा जाता है, को सिरे से खारिज किये जाने की जरूरत है चाहे वह विवाह संस्था के अन्तर्गत हो या इसके बाहर गली-गली में, जैसा कि इन दिनों देखा जा रहा है।
प्रो. मटुकनाथ-जूली प्रकरण को इससे जोड़कर देखा जाना भी जरूरी है। प्रेम के नाम पर बाप-बेटी की उम्र के जोड़े को यौनाचार की इजाज़त नहीं दी जा सकती क्योंकि इसमें कोई सामाजिक हित स्पष्ट नहीं होता। ऐसे रिश्ते कहीं ना कहीं परिवार की अवधारणा को प्रभावित करते हैं। परिवार से उच्चतर संस्था का आविर्भाव मानव समाज में अभी हुआ नहीं है। बेमेल प्रेम में कोई सुंदरता प्रतीत नहीं होती है।
अंत में, उन तथाकथित संस्कृति रक्षकों की हरकत को एक प्रजातांत्रित समाज की दृष्टि से गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनर्गल, अवैज्ञानिक अनैतिक विचार-चिंतन जहाँ उचित नहीं है वहीं बात-बात पर लात-घूसे, जूते चलाकर संस्कृति की रक्षा का ढोंग करना भी नाजायज़ है। स्पष्ट तौर पर यह फासिस्ट तरीका है जिसके लिये एक प्रजातांत्रिक समाज में कोई स्थान नहीं है। समाज में खुले आम चल रहे कई सारे अनैतिक कार्य-व्यापारों को देखकर भी ये संस्कृति के रक्षक चुप रहते हैं परन्तु जैसे ही कोई बौद्धिक गतिविधि उनके घिसे-पिटे, पुरातन, पतनशील वैचारिक संसार के आड़े आती हैं, जिसमें औरतों के लिए हिटलर की तरह ही - ‘‘घर के अन्दर जाओं अच्छी माँ बनो’’ जैसे विचार पालित-पोषित हैं, वे तुरंत अपने लात-घूसे और कालिख लेकर उपस्थित हो जाते हैं। इनकी इस फासिस्ट प्रवृत्ति के खिलाफ प्रगतिशील विचारों वाले जन-साधारण को भी सख्त कदम उठाने की ज़रूरत है।
इस तुरत प्रतिक्रिया में कई बिन्दुओं पर संक्षिप्त में चर्चा की मजबूरी थी, इसमें निहित अलग-अलग मुद्दों पर फिर चर्चा की जावेगी, तब तक यह दृष्टिकोण आपके हवाले।

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

संस्कृति कर्मी की मुख्य चुनौती

कोई समाज एक खास समय में जिस तरह के आचार-विचार, गुणों-लक्षणों, नीति-नैतिकता, मूल्यबोध, संस्कार और रूचियों का प्रकटीकरण करता है वह उस समय की संस्कृति कहलाती है। इसका सीधा संबंध उस समय की सामाजिक व्यवस्था से है । दुर्भाग्य से हर युग में यह होता है कि जो सामाजिक व्यवस्था कालातीत हो चुकि होती है उस समय के मूल्यबोध एवं संस्कार बदली हुई सामाजिक व्यवस्था में भी लम्बे समय तक एक नशे के समान छाए रहते है एवं सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करते रहते है । संस्कृतियां सामाजिक परिस्थितियों के बदलाव के साथ ही बदलाव की मांग करती है लेकिन यह बदलाव अपसंस्कृति की शक्ल में ना हो जाए यहीं एक संस्कृति कर्मी की मुख्य चुनौती होना चाहिए ।

रविवार, 22 नवंबर 2009

आज के युग का विज्ञान

आज के युग का विज्ञान, वाह क्या कहने........अगर वैज्ञानिक महोदय खुद कहे कि मैं सारे इश्वरों में विश्वास रखता हूँ तो हो गया बंटाढार । दुनिया में विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण कार्य ईश्वर की माया से लड़ना है जिसने अनपढ़ आम जनसाधारण से लेकर बड़े-बड़े पढे़-लिखों को भी अपनी गिरफ्त में ले रखा है । अगर विज्ञान यह नहीं कर सकता तो इसका मतलब यह है कि विज्ञान गलत हाथों में चला गया है । दरअसल विज्ञान को गलत हॉथों द्वारा ही इस्तेमाल किया रहा है, जिसका नतीजा यह है कि विज्ञान को मात्र तकनीक तक सीमित कर दुनिया के सामने रख दिया गया है और इसके फिलासॉफिक पहलू को छिपाकर रखा जा रहा है। इससे दुनिया भर में विज्ञान के नाम पर एक ऐसे शास्त्र का चलन जोर पकड़ गया है जिसमें से वैज्ञानिक दृष्टिकोण गायब है । मशीन और टेक्नॉलॉजी के जाल में सारी दुनिया को उलझाकर पूंजीपति वर्ग अपनी तिजोरियाँ भरने में लगे हैं और दूसरी ओर तकनीक शिक्षा के नाम पर मात्र मैकेनिकों की फौज तैयार की जा रहीं है जो देश में दिमागी खोखलेपन के अलावा और भी कई सारी समस्याएँ खड़ी करती जा रही है । विज्ञान के फिलासॉफिकल पहलू का काम है कि प्रकृति विश्व- ब्रम्हाण्ड एवं मानव समाज के सत्यों का निरन्तर उद्घाटन करते रहना और मानव जीवन को इसकी जटिलताओं से मुक्ति दिला कर जीवन को उसकी ऊँचाइयों की ओर ले जाना ।

बुधवार, 18 नवंबर 2009

नैतिक पतन और कला-संस्कृति-साहित्य की जिम्मदारियाँ

रोज़ाना ही मासूम बच्चों के साथ दर्दनाक, हृदय विदारक, वीभत्स दैहिक अत्याचार, यौन शोषण का एक ना एक किस्सा अखबारों की सुर्खी में होता है, सोच कर ना केवल शरीर के रोंगटें खड़े हो जाते हैं बल्कि घिन भी आती है। भारतीय समाज नैतिक पतन के गर्त में कितनी गहराई तक जा धँसा है रोजमर्रा की यह घटनाएँ इसका एक जीवन्त उदाहरण है। आए दिन छोटी-छोटी दुधमुँही बच्चियों के साथ वासना का घिनौना खेल, बलात्कार की घटनाएँ फिर उनकी हत्याएँ देश भर में देखने-सुनने को मिल रहीं हैं, जो समाज के नैतिक ताने-बाने की जर्जरता को बारम्बार चीख-चीखकर प्रदर्शित कर रहीं है। बावजूद इसके देश के तमाम प्रबुद्ध लोग, तथाकथित बुद्धिजीवी, समाजसेवी, राजनीतिज्ञ आँख-कान-मुँह बंद किये बैठे हुए हैं, यह भारी चिंता का विषय है।
भारतीय समाज के इस तरह नैतिक पतन के दलदल में फँस जाने और निरन्तर भीतर धँसते चले जाने के कारणों की सतही तौर पर पड़ताल कर कोई भी तुरंत यह कह सकता है कि इलेक्ट्रानिक मीड़िया और फिल्मों के जरिये घर-घर में बेरोकटोक पहुँचाई जा रही अश्लीलता की संस्कृति ऐसी घटनाओं के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार है, परन्तु मात्र इतना ही कहना एक अत्यंत निम्न स्तर का सामान्यीकरण होगा। दरअसल इसके पीछे मौजूद तमाम राजनैतिक-सामाजिक- सांस्कृतिक-एवं आर्थिक कारणों की एक वृहत जाँच-पड़ताल की जाना आज के समय की एक बेहद महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
देश में कला-संस्कृति-साहित्य एवं शिक्षा प्रणाली में व्याप्त जनविरोधी, अवैज्ञानिक चिंतनधारा के प्रभाव के कारण, करोड़ों-करोड़ आम-जनसाधारण एवं नैतिक मूल्यों को जागृत रखने, सामाजिक प्रगति और विकास को सुनिश्चित करने वाले इन महत्वपूर्ण साधनों के बीच जो अनंत दूरी पैदा हुई है, वह भी बहुत हद तक इस पतन के लिये जिम्मेदार है। कला-संस्कृति-साहित्य में वर्तमान में जो तथाकथित धाराएँ बह रही हैं उनका आम-जनसाधारण के जीवन संघर्षों से कुछ भी लेना- देना नहीं है, इसलिए वर्तमान में इस क्षेत्र में सृजन के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है वह सब जन-साधारण की जीवन शैली के लिहाज से निरर्थक है। किसी समाज के कला-संस्कृति-साहित्य के प्रतिमान समाज को निम्नतर नैतिक मूल्यों से सावधान करते रहने एवं उच्चतम मूल्यबोधों की स्थापना के लिए निरन्तर सजग रहने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य ही नहीं करते तो फिर उससे संबंधित सारे प्रयोजन निरर्थक ही हैं। वर्तमान समय में जो कुछ भी आधुनिक (तथाकथित) रचा जा रहा है वह मात्र घृणित व्यक्तिवाद, व्यक्तिगत कुंठा एवं असामजस्यपूर्ण व्यक्तिवादी बिम्बों-प्रतीकों का एक अजीब घोल-मट्ठा है जो आम-जनसाधारण तो दूर, अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोगों के भी समझ से बाहर है। समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाले फिल्म एवं टी.व्ही. मीडिया के जरिये भी एक अवास्तविक संसार, प्रदूषित मूल्यों एवं फूहड़ मनोरंजन की चटनी चटाकर भारतीय समाज को नष्ट कर देने का अमानवीय षड़यंत्रकारी आयोजन बड़े जोर-शोर से चल रहा है लेकिन कला-संस्कृति-साहित्य के पुरोधागण समाज की इस चिताजनक हालत पर जरा भी व्यथित नजर नहीं आते।
एक समय में प्रेमचन्द-शरतचन्द्र ने अपने कालजयी साहित्य के जरिये देश के कोने-कोने में आम-जनसाधारण के जीवन में काफी गहराई तक पैठ बनाकर उच्च मूल्यबोधों को बचाए रखने एवं उच्च से उच्चतर मूल्यबोधों के निर्माण और स्थापना के लिये निरन्तर जो जद्दोजहद की, स्वतंत्रता संग्राम के समय हजारों कवियों ने अपने कवित्त से आम-जनसाधारण को जोड़ने का जो महत्वपूर्ण काम किया उस सबसे कोई सबक ना लेकर आज के तथाकथित आधुनिक लेखक-साहित्यकार, कला एवं संस्कृतिकर्मी इसे ’’आदर्शवादी दौर का मुर्दा इतिहास‘‘ कहकर कूढ़ेदान में फेंकने की जुर्रत तो जरूर करते हैं परन्तु निरन्तर नैतिक पतन के इस महापरिदृष्य से अपने समाज को बचाने के लिये कुछ ठोस करने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करते।
इस तथाकथित प्रबुद्ध तबके को, जिसने आज कला-संस्कृति-साहित्य की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ओढ़ रखी है और जो सामाजिक सच्चाई से मुँह मोड़कर, नैतिकता विहीन पतित आचरण के मौजूदा तांडव को नजरअन्दाज कर, एक निकृष्ठ व्यक्तिवादी मूल्यबोधों के कृतिम रचना-संसार का सृजन करने में मशगूल है, आने वाले समय में इतिहास कभी भी माफ नहीं करेगा। इतिहास उन राजनीतिज्ञों, समाज शास्त्रियों को भी कभी माफ नहीं करेगा जो मौजूदा सामाजिक संकट से अनजान बनकर मात्र अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकने में लगे हुए हैं। इतिहास हर एक आदमी को चाहे वह किसी भी क्षेत्र से सम्बंध रखता हो, घर-घर में एक निकृष्ठ इंसान, एक बलात्कारी, एक हत्यारा एक दलाल पैदा करने की मौजूदा वस्तुस्थिति को निर्मित करने, उसे पालने-पोसने में बराबरी का हिस्सेदार होने के लिये अवश्य ही जिम्मेदार ठहराएगा।