पिछले दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मराठी भाषा में शपथ की ज़िद के बहाने जिस घटनाक्रम को अन्जाम दिया गया उससे भारतीय लोकतंत्र की दुर्दशा का एक संगीन पहलू उभरकर सामने आता है। स्वतंत्रता के पश्चात् बासठ सालों के इतिहासक्रम में भारतीय लोकतंत्र को परिपक्वता के जिस स्तर पर पहुँच जाना चाहिए था वहाँ से अब भी यह कोसों दूर है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण महाराष्ट्र विधानसभा में उस दिन देखने को मिला जिस दिन जनता के कुछ चुने हुए नुमाइंदों (गुंडों) ने भरे सदन में सरेआम मारपीट कर सदन की मर्यादा तार-तार कर दी। मगर, इस घटना को गुंडागिरी की सामान्य घटना के रूप में देखने से ऐसी घटनाओं की जनक मूल समस्याओं का विवेचन संभव नहीं होगा। इसके लिए देश की सामाजिक- सांस्कृतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में आर्थिक-राजनैतिक विरोधाभासों की चर्चा की जाना अत्यंत आवश्यक है, याकि यह भी कहा जा सकता है कि आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में सामाजिक-सांस्कृतिक विरोधाभासों की टोह लेना बेहद जरूरी है।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को देखा जाए तो यह एक ऐसे देश का स्वतंत्रता आंदोलन था जिसका अस्तित्व एक देश के रूप में अंग्रेजों के आने के पूर्व था ही नहीं । अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों की अनिवार्यता के मद्देनज़र इस भूभाग की कई सारी राष्ट्रीयताओं को ब्रिटिश सत्ता के एक डंडे से हाँककर जाने-अनजाने एक सूत्र में पिरोने और राजनैतिक रूप से एक देश की शक्ल देने काम किया, और इसके विरुद्ध एक क्रूर शक्तिशाली राजसत्ता से मुकाबले में, अधिक ताकत की व्यावहारिक अनिवार्यता के कारण ही सांस्कृतिक विविधता वाली इन सभी राष्ट्रीयताओं को एक झंडे के नीचे आकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने की ज़रूरत पैदा हुई और तमाम विरोधाभासों के बावजूद पृथक-पृथक राष्ट्रीयताओं, पृथक-पृथक जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदायों के लोगों की तात्कालिक एकता के आधार पर तत्समय अंग्रेजों से लोहा लिया गया। आमतौर पर इन विरोधाभासों को हिन्दु-मुस्लिम विरोधाभासों के रूप में ही देखा जाता रहा है परंतु ये विरोधाभास कई सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों व अन्य सूक्ष्म एवं संवेदनशील मुद्दों पर भी रहे हैं यह सभी जानते हैं।
इतिहास गवाह है कि मानव समाज में जब भी कोई बड़ी उथल-पुथल होती है तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। प्रचलित मूल्यबोध, संस्कृतियाँ ध्वस्त हो जाती हैं, नए सिरे से निर्मित होती है, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पुराने का लोप होकर काफी कुछ नया अवतरित होता है, जिसके आधार पर नए सिरे से समाज का गठन होता है। यूरोप में राजशाही के सत्ता पलट के दौरान यही हुआ और वैयक्तिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के आधार पर समाज का गठन हुआ, स्वतंत्रता, समानता भाईचारे पर आधारित मूल्यबोधों का आविर्भाव हुआ। हालाँकि फिलहाल चर्चा का मुद्दा यह नहीं है फिर भी उल्लेखनीय है कि इतिहास से सबक लेकर अंग्रेजों के इस उपनिवेश में भी देशव्यापी पुनर्जागरण का जो ज्वार खड़ा किया जाना चाहिये था वह नहीं हो सका। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधाओं ने औपनिविशिक गुलामी से मुक्ति के संघर्ष के साथ नवीन भारतीय समाज के निर्माण की पुख्ता नींव रखने का यह सुनहरा मौका खो दिया जिसका खामियाजा विगत बासठ वर्षों से हमारा देश भुगत रहा है और ना जाने आगे कितने वर्षों तक भुगतता रहेगा। वास्तव में स्वतंत्रता आन्दोलन एक ऐसा विहंगम यज्ञ था जिसमें धर्म निरपेक्षता एवं स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर भारत की तमाम राष्ट्रीयताओं, जाति-पाति, धर्म-भाषा-सम्प्रदाय के लोगों के संघर्ष को संगठित किया जाना समय की महती आवश्यकता थी जिसके जरिए आम जनता को, उसके निजी अस्तित्व को गौण रखकर, पूर्वाग्रहों, सामंती मूल्यों, निजी स्वार्थों एवं तमाम संकीर्ण सोच-विचार, चिंतन को तिलांजलि देकर समाज के पुनर्निमाण के संघर्ष के ज़रिए एक इकाई में ढाला जाना चाहिए था। स्वतंत्रता आन्दोलन के नेतृत्व के समक्ष उस समय जन साधारण को धर्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय से निरपेक्ष एक राष्ट्रीयता की मजबूत भावना में पिरोने का वृहत मौका उपस्थित था परंतु कहा जा सकता है कि नेतृत्व के स्तर पर इस मुद्दे पर स्पष्ट अवधारणा के अभाव और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के कारण राष्ट्र के सर्वोपरी स्वार्थ को तिलांजलि देकर समाज निर्माण की तमाम वैज्ञानिक अवधारणाओं के विपरीत अनेकता में एकता के सिद्धांत को बेहद अपरिपक्व तरीके से गले से लगा कर रखा गया।
आज़ादी के बाद भी, कहा जा सकता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तरह ही भारतीय पूँजीवाद की जरूरत के मद्देनज़र इस ‘अनेकता’ को अक्षुण्ण रखने का सायास कार्यक्रम चला जिसमें ‘एकता’ को स्थापित करने का कोई इरादा कभी नहीं रहा। आज़ादी के पश्चात के इन बासठ वर्षों में जैसे-जैसे स्वतंत्रता आंदोलन की बची-खुची नैतिकता की आँच तिरोहित होती चली गई, धीरे-धीरे यह विखंडन और अलगाव बढता ही चला गया। जब जिसे मौका लगा उसने अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं के झंडे-डंडे हाथ में लेकर देश की उस आत्मा को कलंकित किया जिसे हम ‘राष्ट्र’ कहते हैं। पृथक खालिस्तान, पृथक कश्मीर के बहाने कई लाख लोगों को अपनी जान गँवाना पड़ी। जाति-पाति, भाषा-संप्रदाय के नाम पर भी लाखों लोग खेत रहे। चुनावी स्वार्थों ने भी बड़े पैमाने पर लोगों में ‘कार्ड’ की राजनीति को प्रश्रय देकर राष्ट्रीयता की भावना को कुचलने का काम किया गया। इसी तमाम ऐतिहासिक राजनैतिक परिदृष्य की पृष्ठभूमि में मराठी का झंडा बुलंद कर चंद गुंडों ने, जिनकी जगह जेल से बेहतर दूसरी कोई नहीं, महाराष्ट्र में देश की आत्मा के साथ बलात्कार किया, और यह बलात्कार कमोबेश हर समय देश के हर शहर में हर प्रांत में अलग अलग भाषा-भाषियों के साथ परस्पर होता ही रहता है जिसे सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यदि भारतीय समाज जात-पात धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, प्रांत के विचार से ऊपर उठकर एक देश, एक राष्ट्र, एक मुल्क की भावना के साथ एक इकाई के रूप में जी रहा होता तो देश को आए दिन यह शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ती।
इस तमाम कहानी के बीच एक और कहानी गुथी हुई है। वह है देश में असमान आर्थिक विकास की कहानी। पिछले बासठ वर्षों में असमान विकास की भेंट चढे़ लाखों गरीब बेरोज़गार किसान-मजदूर और मध्यमवर्गीय लोग अपनी-अपनी जन्मभूमि से मायग्रेट होकर उस-उस दिशा में चले गए जहाँ दाल-रोटी की जुगाड़ संभव हो सकती थी। आर्थिक विकास की एक तरफा हवा के चलते मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई आदि बड़े-बड़े शहरों ने काफी सालों तक इन माइग्रेंटों का बोझ उठाया है और अब भी उठा रहे हैं। उन शहरों में जब स्थानीय लोगों के लिए ही रोज़गार की व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी तो बाहर के लोगों का चले आना उनके लिए अखरने वाली बात तो थी ही। देश भर में स्थानीय ग्रामों, शहरों, कस्बों के स्तर पर रोज़गार की समस्या को हल कर इस मुद्दे को सही तरह से सुलझाया जाता तो यह परिस्थिति उत्पन्न होने से रुक सकती थी। लेकिन जर्जर पूँजीवादी व्यवस्था के चलते आर्थिक हालात इसकी इजाज़त नहीं देते। पूँजीवाद के दबाव के कारण ही आदमी अपनी जड़ों से विछिन्न होता है और व्यक्तिगत स्वार्थ के नशे में चूर होकर असामाजिक जीव बन जाता है। नीति-नैतिकता, दायित्व-बोध इत्यादि का उसके लिए कोई मतलब नहीं रह जाता। मुबंई में भी यही हुआ। उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब और दक्षिण भारत से निकलकर लाखों की तादात में मुंबई पहुँचे लोगों ने रोजगार के क्षेत्र में बेहद अफरातफरी मचा कर रख दी। बाहरी सस्ते श्रम की उपलब्धता के कारण स्थानीय लोग रोज़गार से मोहताज होने लगे। भयानक सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्था के बीच ‘भैया’ लोगों और ‘भाइयों’ के द्वारा भय और आतंक का जो वातावरण वहाँ निर्मित किया गया, डॉनों ने जिस तरह से मुंबई को खून से नहलाया उसका खामियाजा वहाँ स्थानीय मराठियों के साथ-साथ तमाम दूसरे शरीफ लोगों को भी भुगतान पड़ा। इस तमाम अराजकता की स्थितियों में प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मराठी जनसाधारण में काफी भयानक आक्रोश पैदा हुआ और उनकी भावनाओं का लाभ लेकर ठाकरे-शिवसेना एंड कंपनी का आविर्भाव हुआ जिसने बड़े स्तर पर गैर मराठी के मुद्दे पर मुबंई में आग उगलना चालू कर दी। इस प्रतिक्रिया से भैया और भाइयों की दादागिरी पर एक तरीके से अंकुश तो लगा, परंतु आम जनता का यह गैर मराठी विरोधी सेंटीमेंट चुनावी राजनीति में अहम भूमिका अदा करने लगा है और मराठी राजनीति के ठेकेदारों को इसे उभाड़कर सत्ता हासिल करने का सीधा-सरल रास्ता मिल गया है।
ठाकरों का आतंक राज कायम है। गैर मराठी लोग मुंबई जाने में घबराने लगे हैं। मुझे डर है कि ठाकरों की इस शूद्र हरकत से देश के बाकी हिस्सों में, दूसरे किन्हीं भी माइग्रेंटो की तरह ही (शान्ति के बहाने) सुरक्षा बोध से ग्रस्त-गुज़र बसर कर रहे लाखों मराठी-भाषियों की जिन्दगी खतरे में ना आ जाए।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को देखा जाए तो यह एक ऐसे देश का स्वतंत्रता आंदोलन था जिसका अस्तित्व एक देश के रूप में अंग्रेजों के आने के पूर्व था ही नहीं । अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों की अनिवार्यता के मद्देनज़र इस भूभाग की कई सारी राष्ट्रीयताओं को ब्रिटिश सत्ता के एक डंडे से हाँककर जाने-अनजाने एक सूत्र में पिरोने और राजनैतिक रूप से एक देश की शक्ल देने काम किया, और इसके विरुद्ध एक क्रूर शक्तिशाली राजसत्ता से मुकाबले में, अधिक ताकत की व्यावहारिक अनिवार्यता के कारण ही सांस्कृतिक विविधता वाली इन सभी राष्ट्रीयताओं को एक झंडे के नीचे आकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने की ज़रूरत पैदा हुई और तमाम विरोधाभासों के बावजूद पृथक-पृथक राष्ट्रीयताओं, पृथक-पृथक जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदायों के लोगों की तात्कालिक एकता के आधार पर तत्समय अंग्रेजों से लोहा लिया गया। आमतौर पर इन विरोधाभासों को हिन्दु-मुस्लिम विरोधाभासों के रूप में ही देखा जाता रहा है परंतु ये विरोधाभास कई सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों व अन्य सूक्ष्म एवं संवेदनशील मुद्दों पर भी रहे हैं यह सभी जानते हैं।
इतिहास गवाह है कि मानव समाज में जब भी कोई बड़ी उथल-पुथल होती है तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। प्रचलित मूल्यबोध, संस्कृतियाँ ध्वस्त हो जाती हैं, नए सिरे से निर्मित होती है, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पुराने का लोप होकर काफी कुछ नया अवतरित होता है, जिसके आधार पर नए सिरे से समाज का गठन होता है। यूरोप में राजशाही के सत्ता पलट के दौरान यही हुआ और वैयक्तिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के आधार पर समाज का गठन हुआ, स्वतंत्रता, समानता भाईचारे पर आधारित मूल्यबोधों का आविर्भाव हुआ। हालाँकि फिलहाल चर्चा का मुद्दा यह नहीं है फिर भी उल्लेखनीय है कि इतिहास से सबक लेकर अंग्रेजों के इस उपनिवेश में भी देशव्यापी पुनर्जागरण का जो ज्वार खड़ा किया जाना चाहिये था वह नहीं हो सका। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधाओं ने औपनिविशिक गुलामी से मुक्ति के संघर्ष के साथ नवीन भारतीय समाज के निर्माण की पुख्ता नींव रखने का यह सुनहरा मौका खो दिया जिसका खामियाजा विगत बासठ वर्षों से हमारा देश भुगत रहा है और ना जाने आगे कितने वर्षों तक भुगतता रहेगा। वास्तव में स्वतंत्रता आन्दोलन एक ऐसा विहंगम यज्ञ था जिसमें धर्म निरपेक्षता एवं स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर भारत की तमाम राष्ट्रीयताओं, जाति-पाति, धर्म-भाषा-सम्प्रदाय के लोगों के संघर्ष को संगठित किया जाना समय की महती आवश्यकता थी जिसके जरिए आम जनता को, उसके निजी अस्तित्व को गौण रखकर, पूर्वाग्रहों, सामंती मूल्यों, निजी स्वार्थों एवं तमाम संकीर्ण सोच-विचार, चिंतन को तिलांजलि देकर समाज के पुनर्निमाण के संघर्ष के ज़रिए एक इकाई में ढाला जाना चाहिए था। स्वतंत्रता आन्दोलन के नेतृत्व के समक्ष उस समय जन साधारण को धर्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय से निरपेक्ष एक राष्ट्रीयता की मजबूत भावना में पिरोने का वृहत मौका उपस्थित था परंतु कहा जा सकता है कि नेतृत्व के स्तर पर इस मुद्दे पर स्पष्ट अवधारणा के अभाव और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के कारण राष्ट्र के सर्वोपरी स्वार्थ को तिलांजलि देकर समाज निर्माण की तमाम वैज्ञानिक अवधारणाओं के विपरीत अनेकता में एकता के सिद्धांत को बेहद अपरिपक्व तरीके से गले से लगा कर रखा गया।
आज़ादी के बाद भी, कहा जा सकता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तरह ही भारतीय पूँजीवाद की जरूरत के मद्देनज़र इस ‘अनेकता’ को अक्षुण्ण रखने का सायास कार्यक्रम चला जिसमें ‘एकता’ को स्थापित करने का कोई इरादा कभी नहीं रहा। आज़ादी के पश्चात के इन बासठ वर्षों में जैसे-जैसे स्वतंत्रता आंदोलन की बची-खुची नैतिकता की आँच तिरोहित होती चली गई, धीरे-धीरे यह विखंडन और अलगाव बढता ही चला गया। जब जिसे मौका लगा उसने अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं के झंडे-डंडे हाथ में लेकर देश की उस आत्मा को कलंकित किया जिसे हम ‘राष्ट्र’ कहते हैं। पृथक खालिस्तान, पृथक कश्मीर के बहाने कई लाख लोगों को अपनी जान गँवाना पड़ी। जाति-पाति, भाषा-संप्रदाय के नाम पर भी लाखों लोग खेत रहे। चुनावी स्वार्थों ने भी बड़े पैमाने पर लोगों में ‘कार्ड’ की राजनीति को प्रश्रय देकर राष्ट्रीयता की भावना को कुचलने का काम किया गया। इसी तमाम ऐतिहासिक राजनैतिक परिदृष्य की पृष्ठभूमि में मराठी का झंडा बुलंद कर चंद गुंडों ने, जिनकी जगह जेल से बेहतर दूसरी कोई नहीं, महाराष्ट्र में देश की आत्मा के साथ बलात्कार किया, और यह बलात्कार कमोबेश हर समय देश के हर शहर में हर प्रांत में अलग अलग भाषा-भाषियों के साथ परस्पर होता ही रहता है जिसे सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। यदि भारतीय समाज जात-पात धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, प्रांत के विचार से ऊपर उठकर एक देश, एक राष्ट्र, एक मुल्क की भावना के साथ एक इकाई के रूप में जी रहा होता तो देश को आए दिन यह शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ती।
इस तमाम कहानी के बीच एक और कहानी गुथी हुई है। वह है देश में असमान आर्थिक विकास की कहानी। पिछले बासठ वर्षों में असमान विकास की भेंट चढे़ लाखों गरीब बेरोज़गार किसान-मजदूर और मध्यमवर्गीय लोग अपनी-अपनी जन्मभूमि से मायग्रेट होकर उस-उस दिशा में चले गए जहाँ दाल-रोटी की जुगाड़ संभव हो सकती थी। आर्थिक विकास की एक तरफा हवा के चलते मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई आदि बड़े-बड़े शहरों ने काफी सालों तक इन माइग्रेंटों का बोझ उठाया है और अब भी उठा रहे हैं। उन शहरों में जब स्थानीय लोगों के लिए ही रोज़गार की व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी तो बाहर के लोगों का चले आना उनके लिए अखरने वाली बात तो थी ही। देश भर में स्थानीय ग्रामों, शहरों, कस्बों के स्तर पर रोज़गार की समस्या को हल कर इस मुद्दे को सही तरह से सुलझाया जाता तो यह परिस्थिति उत्पन्न होने से रुक सकती थी। लेकिन जर्जर पूँजीवादी व्यवस्था के चलते आर्थिक हालात इसकी इजाज़त नहीं देते। पूँजीवाद के दबाव के कारण ही आदमी अपनी जड़ों से विछिन्न होता है और व्यक्तिगत स्वार्थ के नशे में चूर होकर असामाजिक जीव बन जाता है। नीति-नैतिकता, दायित्व-बोध इत्यादि का उसके लिए कोई मतलब नहीं रह जाता। मुबंई में भी यही हुआ। उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब और दक्षिण भारत से निकलकर लाखों की तादात में मुंबई पहुँचे लोगों ने रोजगार के क्षेत्र में बेहद अफरातफरी मचा कर रख दी। बाहरी सस्ते श्रम की उपलब्धता के कारण स्थानीय लोग रोज़गार से मोहताज होने लगे। भयानक सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्था के बीच ‘भैया’ लोगों और ‘भाइयों’ के द्वारा भय और आतंक का जो वातावरण वहाँ निर्मित किया गया, डॉनों ने जिस तरह से मुंबई को खून से नहलाया उसका खामियाजा वहाँ स्थानीय मराठियों के साथ-साथ तमाम दूसरे शरीफ लोगों को भी भुगतान पड़ा। इस तमाम अराजकता की स्थितियों में प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मराठी जनसाधारण में काफी भयानक आक्रोश पैदा हुआ और उनकी भावनाओं का लाभ लेकर ठाकरे-शिवसेना एंड कंपनी का आविर्भाव हुआ जिसने बड़े स्तर पर गैर मराठी के मुद्दे पर मुबंई में आग उगलना चालू कर दी। इस प्रतिक्रिया से भैया और भाइयों की दादागिरी पर एक तरीके से अंकुश तो लगा, परंतु आम जनता का यह गैर मराठी विरोधी सेंटीमेंट चुनावी राजनीति में अहम भूमिका अदा करने लगा है और मराठी राजनीति के ठेकेदारों को इसे उभाड़कर सत्ता हासिल करने का सीधा-सरल रास्ता मिल गया है।
ठाकरों का आतंक राज कायम है। गैर मराठी लोग मुंबई जाने में घबराने लगे हैं। मुझे डर है कि ठाकरों की इस शूद्र हरकत से देश के बाकी हिस्सों में, दूसरे किन्हीं भी माइग्रेंटो की तरह ही (शान्ति के बहाने) सुरक्षा बोध से ग्रस्त-गुज़र बसर कर रहे लाखों मराठी-भाषियों की जिन्दगी खतरे में ना आ जाए।
दृष्ठीकोंण जी, बहुत सुन्दर आलेख आपने प्रस्तुत किया, यह कहना भी उचित नाहे होगा की यह जो कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है वह सिर्फ ठाकरे अपने बल बूते पर कर रहे है ! इसमें मराठियों और एनी राजनैतिक डालो जैसे कौंग्रेस और एनसी पी की भी मूक सहमती है, वरना अभी आपाने देखा होगा की बाल ठाकरे ने जब सचिन के बारे में लिखा तो पूरे देश से विरोध के स्वर उठे मगर महराष्ट्र में एक भी स्वर नहीं उठा ! मैंने भी इस पर पहले कुछ बाते दो टूक शब्दों मे अपने ब्लॉग पर कई बार लिखा है !
जवाब देंहटाएंहां, जहां तक आपके क्रोध की बात है तो कहना चाहूंगा या फिर सजेशन दूंगा की ऐसा नहीं की लोगो ने आपका आलेख पढ़ा न हो लेकिन जहाँ तक टिप्पणी का सवाल है मेरा पाना त्ताजुर्बा तो यह कहता है की यहाँ Give and take वाला सिद्धांत है ! aap yah dekhiye ki aap doosaro ke blog par kitnee tippaniyaa dete hai !
पढ़ने तो आया था पर रूचि न हो पाई।
जवाब देंहटाएंकृपया लेख को कुछ पैराग्राफ़्स में बांट कर लिखा करें।
मुझ जैसों नादानों की रूचि बनी रहेगी सतत पठन में
बी एस पाबला
काँग्रेसी होते हि ऐसे हैं पहले वे भिन्डारवाले पैदा करते हैं (अपने फायदे के लिए)फिर देश को को धोखा देने के लिए उसे नश्ट करते हैं तबतक देर हो चुकीं होती है
जवाब देंहटाएंअसल मे इस आलेख की बैक ग्राऊँड काली होने से आँखों पर बुरा असर पडता है मैं भी देख कर चली गयी । आज भी पूरा नहीं पढ पाई आंम्खों से पानी बहने लगा। इसे मेहरबानी कर के हलके रंग मे करें धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंबेहतर आलेख।
जवाब देंहटाएंकिसी भी लोकतंत्र के लिए शायद यही परिपक्वता होती है।
पाबला जी और निर्मला जी की सलाह पर गौर किया ही जाना चाहिए।