रविवार, 6 मार्च 2011

भोपाल या भोजपाल............प्रजातंत्र का इससे ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है!

    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 28 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आम जनता की गाढ़ी कमाई का धन फूँकते हुए बड़ी धूमधाम से राजभोज की प्रतिमा की स्थापना की और जश्न मनाया। इस मूर्ति की स्थापना के साथ ही भारतीय जनता पार्टी की इस सरकार ने अपनी सामंती प्रतिबद्धताओं का इज़हार करते हुए एक तरह से आम जनसाधारण की खिल्ली उड़ाने का प्रयास किया है, जिसने अभी कुछ ही वर्षों पहले मानव समाज के इतिहास को एक क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा देते हुए राजा-महाराजाओं की सामंती सत्ता को उखाड़ फेंककर प्रजातांत्रिक समाज व्यवस्था का आगाज़ किया था।
    कितने आश्चर्य की बात है कि आमजनसाधारण के शोषित-उत्पीड़ित समाज की आशाओं-आकांक्षाओं पर पूरी तरह से असफल इस तथाकथित प्रजातंत्र के कठिन दौर में, प्रजातांत्रिक तकाज़ों को पूरा करने की चिंता करने की बजाय आजकल की इन तथाकथित चुनी हुई प्रजातांत्रिक सरकारों को इतिहास में दफन हो चुकी एक सामाजिक व्यवस्था के स्वयंभू भगवान राजाओं-महाराजाओं को फिर से महिमामंडित करने की आवश्यकता पड़ रही है। क्यों ? पता नहीं।
    जहाँ तक ‘राजभोज’ का प्रश्न है, वह दुष्ट, आततायी, अत्याचारी किस्म का राजा था अथवा नहीं इस बहस में न पड़कर एक सामान्य ऐतिहासिक  सत्य की चर्चा की जाए तो इतिहास हमें बताता है कि सामंती युग में राजसत्ता का इतिहास शोषण, अत्याचार, दमन के माध्यम से जबरदस्ती अपनी सत्ता कायम रखने का इतिहास रहा है, इसका अपवाद शायद ही कोई राजा और राज घराना रहा हो। राजा-महाराजाओं, सामंतों के राज में आम जनसाधारण का सामाजिक जीवन में कभी कोई महत्व नहीं रहा और न उनके पास कभी कोई बुनियादी अधिकार ही रहे जिन्हें आज जनतांत्रिक अधिकारों के नाम से जाना जाता है। इन जनतांत्रिक अधिकारों को हासिल करने के लिए उस समय आमजनसाधारण को राज घरानों से बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा था, खून तक बहाना पड़ा। प्रजा को राजा के चरणों में झुकाए रखने के लिए धर्म ने भी अपनी कुटिल भूमिका खूब निभाई, राजाओं को भगवान का दर्जा देकर प्रजा की प्रतिबद्धताएँ राज्य की ओर बनाए रखने में धर्म का योगदान हर कोई जानता है। मगर इस व्यवस्था को इतिहास के क्रम में लुप्त हो जाना पड़ा। राजभोज का महिमामंडन उसी व्यवस्था के महिमामंडन से कुछ कम नहीं प्रतीत होता।
    राज भोज ने भले ही मंन्दिर-तालाब और दूसरी कुछ संरचनाएँ बनवाई हों, मगर सामंती समाज के तकाज़ों के कारण ही अपने अथक शारीरिक श्रम से उन्हें बनाने वाले आम जनसाधारण का इतिहास में कभी कोई नाम नहीं हुआ। ताजमहल को हज़ारों हुनरमंद कारीगरों ने अपने कठिन श्रम से तैयार किया था मगर इतिहास में उस शहंशाह का नाम ही दर्ज है, वास्तुकला के उस विश्वस्तरीय नमूने को आकार देकर अपने हाथ कटवाने वाले उन कारिगरों का नहीं। अफसोस तो तब होता है जब इतिहास को अच्छी तरह से जानने-समझने के बावजूद प्रजातंत्र का ढोल पीटने वाले तमाम राजनेताओं को सामंती समाज की दबी-कुचली प्रजा के कठिन परिश्रम और संघर्षों का नहीं बल्कि राजाओं की तथाकथित का महानता का ज़्यादा खयाल रहता है। प्रजातंत्र का इससे ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है।
    भोपाल का राजा भोज से कभी कोई करीबी ताल्लुक नहीं रहा दुनिया जानती है। यदि किसी रूप  में राजा भोज ‘भोपाल’ या तथाकथित ‘भोजपाल’ के नियंताओं निर्माताओं में रहे होते तो भोपाल का पुरातात्विक इतिहास इस बात की गवाही अवश्य देता। एक तालाब को छोड़कर (वह भी राजा भोज का बनाया हुआ है या नहीं संशय की बात है) भोपाल में कोई भी पुरातात्विक महत्व का भवन ऐसा नहीं है जिससे राजा भोज की यहाँ स्थाई उपस्थिति की बात साबित होती हो। हाँ, राजे-महाराजे अपने राजहितों में एक राज्य से दूसरे राज्य में घूमते-फिरते रहते थे, इस दौरान वे अपने फौज-फाटे के उपयोग के लिए कभी-कभी कोई स्थाई-अस्थाई संरचना बनवाया करते थे, मगर भोपाल में नवाबों के शासन के दौरान का वास्तुशिल्प ही प्रमुख रूप से दिखाई पड़ता है और यही भोपाल की पहचान है। किसी अच्छे खासे शहर की दुनिया के ज़हन में बसी पहचान को धो-पोछकर उसका एक ऐसा नामांतरण कर दिया जाना कोई समझदारी नहीं हो सकती, जिसके पीछे कोई विशेष ऐतिहासिक तथ्य मौजूद ही न हों। भोपाल को भोजपाल नाम देने की कवायद न केवल गैरज़रूरी है बल्कि एकदम फिजूल भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मध्यप्रदेश सरकार के पास करने को और कोई दूसरा काम अब बचा नहीं है।
    राजा भोज जहाँ के थे वहाँ मजबूती से स्थापित हैं, उन्हें वहाँ से कोई नहीं हटा सकता, मगर नवाबी दौर की पहचान वाले ‘भोपाल’ को ‘भोजपाल’ बना देने का प्रयास कर बेकार का एक विवाद खड़ा करने में कौनसी दूरअन्देशी और राजनैतिक समझदारी है यह अस्पष्ट है। ऐसे विवादों को खड़ा करने में संधियों और भाजपाइयों को हमेशा से रुचि रही है। संधी-भाजपाई अपनी इस कुत्सित चाल में कामयाब न हों इसके लिए न केवल भोपालियों का बल्कि प्रजातांत्रिक सराकारों वाले उन तमाम लोगों को सामने आकर भाजपा के इस षड़यंत्र को नाकाम करना चाहिए।

बुधवार, 2 मार्च 2011

क्या लिंग पूजन भारतीय संस्कृति है ?

           आज 'शिवरात्री' है। एक ऐसे भगवान की पूजा आराधना का दिन जिसे आदि शक्ति माना जाता है, जिसकी तीन आँखें हैं और जब वह मध्य कपाल में स्थित अपनी तीसरी आँख खोलता है तो दुनिया में प्रलय आ जाता है। इस भगवान का रूप बड़ा विचित्र है। शरीर पर मसान की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटा में गंगा नदी तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को उन्होंने अपना वाहन बना रखा है।
          भारत में तैतीस करोड़ देवी देवता हैं, मगर यह देव अनोखा है। सभी देवताओं का मस्तक पूजा जाता है, चरण पूजे जाते हैं, परन्तु इस देवता का 'लिंग' पूजा जाता है। बच्चेबूढ़ेनौजवान, स्त्रीपुरुष, सभी बिना किसी शर्म लिहाज़ के , योनी एवं लिंग की एक अत्यंत गुप्त गतिविधि को याद दिलाते इस मूर्तिशिल्प को पूरी श्रद्धा से पूजते हैं और उपवास भी रखते हैं।
          यह भगवान जिसकी बारात में भूतप्रेतपिशाचों जैसी काल्पनिक शक्तियाँ शामिल होती हैं, एक ऐसा शक्तिशाली देवता जो अपनी अर्धांगिनी के साथ एक हज़ार वर्षों तक संभोग करता है और जिसके वीर्य स्खलन से हिमालय पर्वत का निर्माण हो जाता है। एक ऐसा भगवान जो चढ़ावे में भाँगधतूरा पसंद करता है और विष पीकर नीलकण्ठ कहलाता है। ओफ्फोऔर भी न जाने क्याक्या विचित्र बातें इस भगवान के बारे में प्रचलित हैं जिन्हें सुनजानकर भी हमारे देश के लोग पूरी श्रद्धा से इस तथाकथित शक्ति की उपासना में लगे रहते है।
          हमारी पुरा कथाओं में इस तरह के बहुत से अदृभुत चरित्र और उनसे संबधित अदृभुत कहानियाँ है जिन्हें पढ़कर हमारे पुरखों की कल्पना शक्ति पर आश्चर्य होता है। सारी दुनिया ही में एक समय विशेष में ऐसी फेंटेसियाँ लिखी गईं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों से परे कल्पनातीत पात्रों, घटनाओं के साथ रोचक कथाओं का तानाबाना बुना गया है। सभी देशों में लोग सामंती युग की इन कथाओं को सुनसुनकर ही बड़े हुए हैं जो वैज्ञानिक चिंतन के अभाव में बेसिर पैर की मगर रोचक हैं। परन्तु, कथाकहानियों के पात्रों को जिस तरह से हमारे देश में देवत्व प्रदान किया गया है, अतीत के कल्पना संसार को ईश्वर की माया के रूप में अपना अंधविश्वास बनाया गया है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी देश में नहीं देखा जाता। अंधविश्वास किसी न किसी रूप में हर देश में मौजूद है मगर भारत में जिस तरह से विज्ञान को ताक पर रखकर अंधविश्वासों को पारायण, जपतप, व्रतत्योहारों के रूप में किया जाता है यह बेहद दयनीय और क्षोभनीय है।
          देश की आज़ादी के समय गाँधी के तथाकथित 'सत्य' का ध्यान इस तरफ बिल्कुल नहीं गया। नेहरू से लेकर देश की प्रत्येक सरकार ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार, शिक्षा और भारतीय जनमानस के बौद्धिक विकास में किस भयानक स्तर की लापरवाही बरती है, वह इन सब कर्मकांडों में जनमानस की, दिमाग ताक पर रखकर की जा रही गंभीरतापूर्ण भागीदारी से पता चलता है। आम जनसाधारण ही नहीं पढ़े लिखे शिक्षित दीक्षित लोग भी जिस तरह से आँख मूँदकर 'शिवलिंग' को भगवान मानकर उसकी आराधना में लीन दिखाई देते हैं, वह सब देखकर इस देश की हालत पर बहुत तरस आता है।
          यह भारतीय संस्कृति है! अंधविश्वासों का पारायण भारतीय संस्कृति है ! वे तथाकथित शक्तियाँ, जिन्होंने तथाकथित रूप से विश्व रचा, जो वस्तुगत रूप से अस्तित्व में ही नहीं हैं, उनकी पूजा-उपासना भारतीय संस्कृति है! जो लिंग 'मूत्रोत्तसर्जन' अथवा 'कामवासना' एवं 'संतानोत्पत्ति' के अलावा किसी काम का नही, उसकी आराधना, पूजन, नमन भारतीय संस्कृति है?
          चिंता का विषय है !! कब भारतीय जनमानस सही वैज्ञानिक चिंतन दृष्टि सम्पन्न होगा !! कब वह सृष्टी में अपने अस्तित्व के सही कारण जान पाएगा!! कब वह इस सृष्टि से काल्पनिक शक्तियों को पदच्यूत कर अपनी वास्तविक शक्ति से संवार पाएगा ?