मंगलवार, 30 मार्च 2010

हवा में उड़ने वाले वानर देवता का जन्मदिन-अंध विश्वास इसी को कहते हैं

    आज हनुमान जयंती है। हनुमान जी एक ऐसे वानर देवता के रूप में जाने जाते हैं जो ना केवल हवा में उड़ लेते हैं बल्कि एक समूचा पहाड़ भी अपनी हथेली पर साध लेते हैं। वे ना केवल मनुष्यों की तरह बोलते हैं बल्कि गुस्से में आकर सूर्य नारायण तक को निगल लेते हैं। और भी ना जाने क्या क्या!
    असंभव कारनामों की ऐसी अनेक कथाओं की पृष्ठभूमि में जो महज़ कल्पनाओं के सहारे खड़े किये गए एक चरित्र का द्योतक है, हनुमान जी के प्रति अंध श्रद्धा-भक्ति का हमारे देश में चलन बहुत पुराना है, विज्ञान का यहाँ कोई काम ना तो पहले था और ना अब है। अब तो सारे तर्क ताक पर रखकर युवाओं में हनुमान जी की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है इससे आधुनिक शिक्षा में पनपे वैचारिक खोखलेपन का भी पर्दाफाश होता है।
    वानर, मानवों का पुरखा होने के बावजूद मानवों की तरह का सामाजिक रूप से उन्नत प्राणी नहीं हो सकता। मानव समाज में घुल-मिलकर कुछ आदतें ज़रूर सीख सकता है परन्तु मनुष्यों की तरह बातें नहीं कर सकता। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को मात देकर मात्र इच्छाशक्ति से उड़ने की क्षमता तो अब तक पृथ्वी के सबसे उन्नत जीव ‘मनुष्य’ तक में पैदा नहीं हुई है, तब एक वानर में यह शक्ति कैसे पैदा हो सकती है। इतनी तरक्की के बावजूद दुनिया में ऐसी कोई मशीन नहीं बनी है जो एक समूचे पहाड़ को उठाकर जस का तस दूसरे स्थान पर पहुँचा दे, तब कोई सीमित शक्ति वाला वानर कैसे यह काम कर सकता है।
    फिर, सूर्य को निगलना..............!!!!! पृथ्वी से कुई गुणा बड़ी एक ठोस संरचना को निगलना, जिसका ताप करोड़ों किलोमीटर दूर पृथ्वी पर 40-50 डिग्री तक पहुँचने के साथ ही साथ मनुष्यों और समस्त प्राणियों को हैरान परेशान कर देता है, दुनिया भर के वैज्ञानिक जिसके करीब तक पहुँचाने लायक धातु का विकास अभी तक नहीं कर पाए हैं, ऐसे भस्म कर देने वाले अग्नि पिंड को लड्डू की तरह निगल लिया जाना असंभव ही नहीं कल्पनातीत है। मगर यह भारत भूमि है......... यहाँ देवता प्राकृतिक नियम कायदों, सत्यों से ऊपर उठकर अतिप्राकृतिक शक्तियों के मालिक हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। भारतीयों से यह अपेक्षित है कि वे श्रद्धा, आस्था के बीच में वैज्ञानिक तथ्यों को बिल्कुल भी ना लाएँ।
    वैज्ञानिक विकास के अभाव में प्रकृति की अबूझ पहेलियों से उलझे तत्कालीन मनुष्यों ने हज़ारों साल पहले, अपनी अनोखी कल्पनाओं के आधार पर जो काव्य, कथाएँ सृजित की थीं, उन्हें एक युग विशेष का साहित्य ना मानकर ईश्वरीय शक्ति के चमत्कार के रूप में जीवन भर अपने सीने से लगाए रखना, अंध-श्रद्धा अंध-भक्ति अंध-विश्वास इसी को तो कहते हैं।   

रविवार, 28 मार्च 2010

बलात्कार.........बलात्कार..............बलात्कार


भोपाल में पाँच साल की बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसका कत्ल। दिन पर दिन बढ़ती जा रही इस दरिंदगी पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को तुरंत आगे आकर इसके विरुद्ध कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। ब्लॉग जगत, पत्र-पत्रिकाओं, मीड़िया, और विभिन्न सामाजिक मंचों को अपने अपने स्तर पर और सामूहिक रूप से इस मसले पर गहन विचार विमर्श कर स्वयं भी जनचेतना जागृत करने के लिए सड़क पर आना चाहिए और सरकार,प्रशासन और विभिन्न सामाजिक संस्थानों को भी इस मामले पर परिणामकारक कार्यवाही करने, समाज में नैतिकता के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए आवश्यक योजना तैयार करने के लिए मजबूर करना चाहिए।


इसी मसले पर नवम्बर में दृष्टिकोण में जारी एक लेख का लिंक नीचे दिया जा रहा है कृपया इसे अवश्य पढ़े/पढ़ाएँ और अपने बहुमूल्य सुझाव भी अंकित करें।
 
नैतिक पतन और कला -संस्कृति-साहित्य की जिम्मेदारियाँ

मंगलवार, 23 मार्च 2010

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-3)-एक इंकलाब की भारी ज़रूरत है।

भाग-१ के लिए यहाँ क्लिक करें।
भाग-२ के लिए यहाँ क्लिक करें।
क्या इसी हिन्दुस्तान का चित्र आँखों में लिए हुए भगतसिंह फाँसी पर चढे थे? क्या उनकी कल्पना का हिन्दुस्तान ऐसा ही था? नहीं, बात ऐसी नहीं, भगतसिंह तो बहुत दूर की बात, हिन्दुस्तानी आज़ादी आन्दोलन में अपनी जान की कुरबानी देने वाले किसी भी क्रांतिकारी का सपना हरगिज़ ऐसा नहीं रहा होगा। बल्कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो लोग थे उन्होंने भी कभी भारतीय समाज का यह घिनौना सपना कभी नहीं देखा होगा। भगतसिंह का सपना था-‘‘अन्त में समाज की एक ऐसी व्यवस्था जिसमें किसी प्रकार के हड़कम्प का भय ना हो, और जिसमें मजदूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए, और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूँजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्धार कर सकें।’’(भगतसिंह)। उनका सपना इस उद्धरण में झलकता है कि -‘‘ क्रांति, पूँजीवाद और वर्गभेदों तथा विशेष सुविधाओं की मौत की घंटी बजा देगी। आज विदेशी और भारतीय शोषण के क्रूर जुए के नीचे कराहते पसीना बहाते तथा भूखों मरते हुए करोड़ों लोगों के लिए वह हर्ष और सम्पन्नता लाएगी। वह देश को उसके पैरों पर खड़ा कर देगी। वह एक नई राज्य व्यवस्था को जन्म देगी। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मज़दूर वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित कर देगी और समाज की जोकों को राजनीतिक शक्ति के आसन से सदा के लिए च्युत कर देगी।’’(भगतसिंह)

ये शब्द हैं उस 23 साल के नौजवान के, कितने शक्तिशाली, कितने वज़नदार कितने साफ साफ......... और आज अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाली, तथाकथित नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ संसद के अन्दर बैठकर जनता के हितों को ताक पर रख वोटों की राजनीति कीचड़ में लिप्त होकर सौदेबाज़ी में मशगूल हैं। इतना ही नहीं आज ये सभी वामपंथी पार्टियाँ खुलेआम पूँजीपति वर्ग की दलाली पर उतर आई हैं।

बहरहाल, फांसी से पहले भगतसिंह ने कहा था-‘‘ मेरी शहादत हिन्दुस्तानी नौजवानों के भीतर आज़ादी की लौ जलाएगी..........।’’(भगतसिंह) आज के नौजवानों को देखकर लगता है कि कभी इन लोगों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के इन महान नौजवानों खुदीराम, भगतसिंह, सुभाष बोस, इनसे कुछ भी सीखने का ज़रा भी प्रयास किया है ? जिस देश के ये ओजस्वी नौजवान कभी पूरी दुनिया में हिन्दुस्तानी युवा वर्ग के प्रतीक हुआ करते थे, आज उस हिन्दुस्तान के नौजवान वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों, शोषण शासन के दुष्चक्र से बिल्कुल बेखबर घोर गैर जिम्मेदाराना तरीके से जीवन यापन किये चले जा रहे हैं। समाज के दुख दर्दों से उन्हें कुछ लेना देना नहीं , महान आदर्शो से उन्हें कोई मतलब नहीं। कुछ घोर असामाजिक हो गए हैं, कुछ कैरियरिस्टिक हो गए हैं, कुछ कुंठित होकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं, कुछ ड्रग्स और नशीले पदार्थों के सेवन में अपनी जिन्दगी तबाह कर हरे हैं.......... न उन्हें भगतसिंह याद है ना भगतसिंह की यह बात -‘‘ जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर अपने हाथों में लेनी है उन्हें अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इसका जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। हम मानते हैं कि विद्यार्थी का मुख्य काम शिक्षा प्राप्त करना है उसे अपना सारा ध्यान इसी तरफ लगाना चाहिए लेकिन क्या देश के हालातों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना क्या विद्या में शामिल नहीं है ? अगर नहीं तो हम ऐसी विद्या को निरर्थक समझते हैं जो केवल क्लर्की के लिए ली जाए........।’’(भगतसिंह)

आज फिर भगतसिंह के इस आव्हान को याद करने की जरूरत है कि -‘‘ एक इंकलाब की भारी ज़रूरत है। वे पढ़े ज़रूर पढ़े। साथ ही राजनीति का ज्ञान भी हासिल करें और जब जरूरत हो मैदान में कूद पड़ें और ज़िन्दगियाँ इसी काम में लगा दें। अपनी जान इसी काम में दान कर दें। अन्यथा बचने का और कोई उपाय नज़र नहीं आता।’’(भगतसिंह)

आज फिर वह जरूरत आ पड़ी है, राजनीति में कूद पड़ने की ज़रूरत....... मगर राजनीति ऊँचे आदर्शों वाली अर्थात वर्तमान जर्जर समाज व्यवस्था को उखाड़ फेंककर नई समाज व्यवस्था कायम करने के संघर्ष की राजनीति, अर्थात क्रांतिकारी राजनीति ना कि घटिया संसदीय चुनावी राजनीति।

‍‍-समाप्त-

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-2)-जिसके लिए असंख्य कुरबानियाँ दी गई वह आज़ादी कैसी है.........

 भाग-१ के लिए यहाँ क्लिक करें।
यह बात आज सच साबित हो रही है । आज के हिन्दुस्तान की सामाजिक परिस्थिति देखने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 1 अरब से भी ज़्यादा आबादी में 95 प्रतिशत जनता बुरी तरह से 5 प्रतिशत शोषकों की शोषण की चक्की में पिस रहे हैं। चाहे कोई पढ़ा लिखा हो चाहे अनपढ़ औद्योगिक मजदूर हो चाहे सड़क पर देहाड़ी करने वाला मज़दूर, चाहे वह कृषि मज़दूर हो या छोटा किसान, चाहे वह सरकारी कर्मचारी हो या गैरसरकारी, स्त्री हो, पुरुष हो, छात्र हो, नौजवान हो या बच्चा, यहाँ तक कि किसी माँ के पेट में पलता हुआ अपरिपक्व भ्रूण........ इस हिन्दुस्तान के अन्दर हर एक व्यक्ति बुरी तरह से पूँजीवादी शोषण का शिकार है। हर एक के एकदम बुनियादी अधिकारों के ऊपर शोषक वर्ग ने नाना तरीके से आक्रमण कर उसे वंचित कर रखा हुआ है। जहाँ दिन पर दिन गरीबी की रेखा के नीचे जनता का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है, बेरोज़गारी का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है, महँगाई बढ़ती ही जा रही है। सभी को शिक्षा की कोई व्यवस्था पहले ही नहीं थी, अब शिक्षा के निजीकरण के ज़रिए आम जनता के शिक्षा के अधिकार को संकुचित कर दिया जा रहा है। गरीबों के लिए चिकित्सा की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं, जहाँ विश्व भर में साइंस और टेक्नालॉजी उन्नत से उन्नत होती चली जा रही है, हिन्दुस्तान में मामूली सी बीमारी से आदमी मर जाता है। भीषण कुपोषण जिसके चलते जन्म दर कम होती चली जा रही है, मृत्युदर बढ़ती चली जा रही है।

लगातार लिए जा रहे कर्ज़ों का बोझ जनता के कंधों पर अनिवार्य जुए की तरह लदा हुआ है। बाहर से पैसा आता है विकास योजनाओं के लिए और तिजोरियाँ भरती चली जाती है हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग की। इस बात से आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिन टाटा-बिड़ला की संपति आज़ादी के पहले मात्र कुछ करोड़ थी और अम्बानी जैसे पूँजीपति परिदृष्य में ही नहीं थे वहाँ आज कोई चार-पाँच सौ घराने देश की अकूत सम्पदा का उपभोग कर रहे हैं। जिस पूँजी को देश के औद्योगिक विकास में लगना चाहिए, जिस पूँजी को देश के कृषि के आधुनिकीकरण में लगना चाहिए, जिस पूँजी को देश के भीतर फिजूल नष्ट हो रही श्रम शक्ति के उपयोग और आम जनता के रोज़गार की व्यवस्था के लिए लगना चाहिए, वह मात्र कुछ घरानों की तिजोरी में कैद पड़ी हुई है, बल्कि भारतीय आम जनता का पर्याप्त शोषण करने के बाद अब वह देश की सीमाएँ लाँधकर दूसरे देशों की जनता के श्रम का शोषण करने भी पहुँच गई है। मतलब जो काम ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने यहाँ भारत में आकर किया, वही भारतीय पूँजीपति भी कर रहे हैं, यानी भारतीय पूँजीपति वर्ग भी साम्राज्यवाद का चरित्र अख्तियार कर चुका है..........।

सम्पूर्ण देश में नौकरशाही, हाथी के रूप में पाल छोड़ी गई है जो कि हिंसक एवं आदमखोर हो चुकी है। जाने कितने सारे आर्थिक घोटाले देश की जनता की कीमत पर खुले आम हो रहे हैं। लगातार नये नये टेक्सों को जबरदस्ती जनता के ऊपर लादकर दिन पर दिन उसकी कमर तोड़ी जा रही है। वहीं दूसरी ओर सरकारें दिन पर दिन नए नए कानून अध्यादेश लागू कर देश की आम जनता की बुनियादी अधिकारों को भी छीने ले रही है, जिसमें से हर एक अधिकार मेहनतकश जनता ने काफी संघर्ष के बाद हासिल किया है।

देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद की लहर व्याप्त है। जातीयता, प्रांतीयता, भाषा के झगड़े आदि आम बात हो गए हैं। साम्प्रदायिक संगठन हज़ारों की तादात में युवकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। और यह सब कुछ हो रहा है महज वोटों की राजनीति के चलते जिस राजनीति का काम है कि पूँजीपतियों के इस या उस खेमें के स्वार्थ की रक्षा करना, आम जनता के शोषण के लिए इस या उस घराने के लिए यथा सम्भव रास्ते खोलना।

निरन्तर भाग-३, दोपहर २ बजे।

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-1)-ये आज़ादी-ब्रिटिश साम्राज्यवाद और हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग के साथ महज़ एक समझौता।

फिर वह काला दिन आ गया है जिस दिन हिन्दुस्तानी आज़ादी आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा के प्रमुख प्रतिनिधि योद्धा शहीदेआज़म भगतसिंह को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के क्रूर पंजों ने हमसे छीन लिया था। यूँ तो ब्रिटिश शोषण-शासन के शिकार हिन्दुस्तान के हज़ारों नौजवान देशप्रेमी हुए थे, परन्तु उन सबमें से भगतसिंह ही ऐसे नौजवान रहे जो आज इतने साल बाद भी अपनी शहादत के लिए शिद्दत से याद किए जाते हैं, और बहुत साफ है कि इसका प्रमुख कारण वह विचारधारा, वह आदर्श है जिसको अपने मजबूत नैतिकता-बोध की वजह से एक मात्र सही विचारधारा मानने हुए बेहद कच्ची उम्र में ही भगत सिंह ने स्वाभाविक रूप से अपना लिया था, जबकि वे जानते थे कि उस वक्त की खास राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में वह विचारधारा अपनाने का मतलब सर पर कफन बांधे चलना और अपने प्राण तक गँवाना था।

उस वक्त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक रूप से पूंजीवादी, साम्राज्यवादी देशों की स्थिति बहुत ही खराब थी। पूरा पूँजीवादी साम्राज्यवादी तबका सोवियत रूस की सर्वहारा क्रांति के असर से आतंकित था। कई छोटे मोटे देशों में धड़ाधड़ क्रांतियाँ हो रही थीं। एक साम्राज्यवादी ताकत होने के कारण ब्रिटिश सरकार की स्थिति भी इसी वजह से उन दिनों बहुत नाज़ुक हो गई थी। इस स्थिति में 18-20 साल की उम्र के नौजवान भगतसिंह, शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति के एक मात्र विज्ञान ‘मार्क्सवाद’ को अपना आदर्श मानकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को सर्वहारा क्रांति की दिशा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि ‘‘महान आदर्श के मूर्त रूप होने का स्वप्न संजोने वाले सभी तरुणों को जेल में डालकर भी क्रांति के बढ़ते हुए कदमों को नहीं रोका जा सकता।’’(भगतसिंह)

दूसरे देशों की क्रांतियों से उनका यह विश्वास और भी ज़्यादा दृढ हुआ था -‘‘ फ्रांस के क्रूरतम कानून और बड़ी बड़ी जेलें भी क्रांतिकारी आन्दोलन को दबा नहीं सकीं। मृत्युदंड के वीभत्स तरीके और साइबेरिया की खदानें भी रूसी क्रांति को रोक नहीं सकीं, तब क्या ये अध्यादेश और सुरक्षा अधिनियम भारत में आज़ादी की लौ बुझा पाएंगे?’’(भगतसिंह)

शोषक वर्ग के प्रति उनका सोचना एकदम स्पष्ट था। वे यह जानते थे कि हिन्दुस्तान से ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना ही हिन्दुस्तानी आम आदमी की मुक्ति के लिए काफी नहीं है। उन्होंने कहा था कि -‘‘भारतीय मुक्ति संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम को शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे ब्रिटिश हों या भारतीय।’’(भगतसिंह)। मतलब वे यह अच्छी तरह जानते थे कि भारत में आम जनता के शोषण में भारतीय पूंजीपति वर्ग भी शामिल है, और गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस जिस तरह की आज़ादी चाहती थी वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद और हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग के साथ महज़ एक समझौता साबित होगी, और उससे हिन्दुस्तान की आम जनता, शोषित पीड़ित मजदूर वर्ग की मुक्ति कभी भी नहीं हो सकेगी।

निरन्तर भाग-२, दोपहर १२ बजे।

बुधवार, 3 मार्च 2010

हम ही हैं वो लोग- साहिर लुधियानवी को समर्पित सत्या शिवरमन की कविता

हम ही हैं वो लोग

हम ही है वो लोग जिनका हमें था इन्तज़ार
हम ही है वो ख़्वाब जो हमने देखा था।

वो सुबह जो कभी आई नहीं उसका क्या ग़म
हमारे हाथों से जो बरसती हैं रोशनी
हमारे कदमों की तेजी से उठा है उजाला
हमारी ही मेहनत से जलते हैं चिराग
और ये सब किसी सूरज से कम तो नहीं ।

हम ही हैं वो लोग जिनका हमें था इन्तज़ार
हम ही है वो ख़्वाब जो हमने देखा था।

दलालों से कहो राह दिखाने की जुर्रत ना करें
राह बनाते है हम, तय करते खुद दिशा अपनी
आखें खुली हैं, ना रहा पहले का बहरापन
चलते भी हैं हम अपने ही पैरों पर
अब रोकना हमें कहीं मुमकिन नहीं।

हम ही हैं वो लोग जिनका हमें था इन्तज़ार
हम ही हैं वो ख़्वाब जो हमने देखा था।

जब धरती नग़में गाएगी, और अम्बर झूम के नाचेगा
जहाँ इन्सानों की कीमत सिक्कों से ना तोली जाएगी
वो दुनिया जिसमें ना होगी भूख, प्यास, ना कोई कमी
वो सुबह हम बनाएँगे, तो सुबह जरूर आएगी
वो सुबह हम बनाएँगे, ये हमको है पूरा यकीन।

हम ही हैं वो लोग जिनका हमें था इन्तज़ार
हम ही है वो ख़्वाब जो हमने देखा था।

सत्या शिवरमन
(साहिर लुधियानवी को समर्पित )