रविवार, 26 दिसंबर 2010

प्रसंग विनायक सेन-व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी

           दुनिया के सबसे बडे़ प्रजातंत्र की एक अदालत ने जनसंघर्षों के एक प्रबल समर्थक को ‘‘उम्रकैद’’ की सजा सुनाई है, स्पष्ट है कि यह जर्जर व्यवस्था बिल्कुल नहीं चाहती कि ‘‘डॉ. विनायक सेन’’ जैसे लोग किसी भी सूरत में शोषित-पीड़ित आम जनता को संगठित करने, उनके साथ चल रहे पूँजीवादी षड़यंत्रों का पर्दाफाश करने, और मुट्ठी भर शोषकों के द्वारा चलाए जा रहे जबरदस्ती के शासन के विरुद्ध सच्चे जनतंत्र की चेतना का अलख जगाए।
          डॉ. विनायक सेन को सुनाई गई उम्र कैद की सजा पर बुद्धिजीवियों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई है, जिसका लब्बो-लुबाब महज़ यह है कि जब देश में बड़े-बड़े अपराधी, घोटालेबाज, भ्रष्ट लोग, चोर-लुटेरे-डाकू, साम्प्रदायिक शुचिता को नष्ट करने वाले अपराधी, बलात्कारी और तमाम जनद्रोही खुले आम आज़ाद घूम रहे हैं तो फिर विनायक सेन को क्यों उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है! सवाल सुनने में बड़ा आकर्षक और विचारोत्तेजक लगता है लेकिन इसका सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है वह यह कि-तुम जैसे, व्यवस्था से छोटे-छोटे लाभ पाने के लालच में उससे चिपके हुए खामोशी से यह तमाशा देखते रहने वाले शिखंडी बुद्धिजीवियों के कारण यह सब हो रहा है। सत्य को दफनाने के लिए इन अवसरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा जिस तरह से मूक रहकर व्यवस्था का साथ दिया जाता है उससे तो यही कहा जा सकता है कि यही इस युग के सबसे बड़े अपराधी है जो कुव्यवस्था के खिलाफ खुलकर सामने आने से कतराते हैं ताकि उनके घटिया स्वार्थों की पूति बंद ना हो जाए।
          देश में जो कुछ चल रहा है वह हिटलर के समय की याद ताज़ा करता है जब चुन-चुनकर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को काल कोठरियों में पहुँचा दिया जाता था। यदि हम हिटलर के नेतृत्व में चले सर्वहारा मजदूर वर्ग विरोधी व्यापक फासीवादी दुष्चक्र को सिर्फ इसलिए याद न करना चाहें कि उसके साथ कम्युनिस्ट आन्दोलन की यादें जुड़ी हैं, और विनायक सेन भी वैचारिक रूप से साम्यवादी आदोलन के ही समर्थक हैं, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की उन घटनाओं को याद करके भी हम इस समय की गंभीरता को सुविधाजनक रूप से समझ सकते हैं जब तथाकथित ब्रिटिश कानून सीधे तौर पर अँग्रेज शोषक-शासक वर्ग का पक्षधर कानून था। ब्रिटिश शासनकाल में भी दमन और उत्पीड़न का वह दौर गुजरा है जब ब्रिटिश राजसत्ता ने अपने विरोधियों को जेल की सलाखों के पीछे कैद किया था, फॉसी की सज़ा सुनाई थी। वह भी ऐसा ही समय था जब मुट्ठी भर सत्ताधारियों ने जनता की आवाज़ को दबाने के लिए प्राणघातक दमनचक्र चलाया था, जबकि उस समय तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रजातंत्रकी अवधारणा आज की बनिस्पत ज्यादा नई और प्रगतिशील थी।
          आँख खोलकर देखने की ज़रूरत है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र अब मूल में लोकतंत्र विहीन होकर रह गया है जिसकी कानून व्यवस्था, पूँजीवादी शोषक-शासक राजसत्ता की ही पक्षधर है। शोषक और शोषित के मध्य एकता के फर्जी सिद्धांत लोकतंत्र के सारे मुखौटे अब उतर चुके हैं और अब यह शुद्ध रूप से पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी पर उतर आया है, इसलिए इसके लिए अब यह अनिवार्यता सी हो गई है कि डा.विनायक सेनजैसे, जनता की समझ विकसित कर, मुट्ठी भर शोषकों के विरुद्ध उन्हें लामबंद करने वाले लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
          डा. विनायक सेन को दी गई सज़ा देश भर में फैले उन जैसे हज़ारों सर्वहारा जन समर्थकों के लिए भी एक चेतावनी है कि अब भी अगर उन्होंने अपना अभियान बंद न किया, व्यवस्था के आड़े आए तो उनका भी यही हश्र होगा। साथ ही साथ जनता के दुख दर्द को समझने वाले उन हज़ारों लोगों के लिए भी यह घटना एक सबक है कि यदि अब भी वे इस प्रतिक्रियावादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में ऐसे ही छितरे-छितरे रहे, एकजुट न हुए तो यह व्यवस्था उन्हें भी धीरे धीरे कुचल देगी।   

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

राजधानी भोपाल में किसानों का हल्ला बोल.......



          राजधानी भोपाल में प्रदेश भर के किसानों ने ऐन मुख्यमंत्री बंगले के नीचे जबरदस्त धरना देकर अपनी ताकत दिखा दी है। कल दिन भर भोपाल में आम जनता की आवाजाही एवं तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुई। आज के अखबारों में किसानों एवं उनके नेताओं के बयान छपे है कि जब उनकी परेशानियाँ किसी को नहीं दिखती तो वे भी किसी की परेशानियाँ क्यों देखें। किसान अपने साथ खाने-पीने का सामान और सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर के आएँ है जिससे लगता है कुछ दिन और राजधानी को उनकी कैद में रहना पडे़गा। 
          धरना भारतीय किसान संघ का है जो कि भारतीय जनता पार्टी का ही भाई-बंद है और राष्ट्रीय सेवक संघ का जाया संगठन है इसलिए इस आयोजन को शक की निगाह से देखा जाना जरूरी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान जो कि आमतौर पर धरना-प्रदर्शनों पर लाठी चार्ज करने में आगे-पीछे नहीं देखते, और अभी कुछ ही दिनों पहले मास्टरों की अच्छी खासी मरम्मत करके उन्हें राजधानी से भगाया गया था, ऐसे में कई महीनों से चल रही किसानों की तैयारी और उनके आक्रामक मूढ़ को न भांप पाकर आज शिवराज प्रशासन पंगु होकर रह गया है यह मानना सरासर नादानी होगी। हमें लगता है कि यह धरना भारतीय जनता पार्टी के उस गुट का प्रायोजित धरना हो सकता है जो शिवराज की राहों में कांटे बिछाने की कई कोशिशें कर चुके हैं और अभी भी करते आ रहे हैं, या फिर जिस तरह से पुलिस-प्रशासन आन्दोलनकारियों के साथ दोस्ताना रवैया अपनाए हुए है उससे लगता है कि इसमें शिवराज सिंह चौहान की ही कोई चाल हो सकती है। यदि शिवराज की चाल है तो खुद उनके विरोधी एक दो दिन में इसका खुलासा कर देंगे, ऐसी उम्मीद है।
          बहरहाल, जो भी हो किसान चाहे भारतीय किसान संघ का किसान हो या किसी और संगठन से जुड़ा किसान, उसकी समस्याओं को पूँजीवादी घरानों की दादागिरी के इस दौर में जिस तरह से नज़रअन्दाज़ किया जा रहा था, उसका प्रतिफल तो मौजूदा पूँजीवाद परस्त सरकारों को मिलना ही चाहिए था। देशभर में जिस तरह किसानों के साथ भेदभाव, षड़यंत्र चल रहे है उसके खिलाफ किसान को एक जुट होना बेहद जरूरी था वर्ना कृषि और किसानों का सर्वनाश सुनिश्चित था। इस धरने में शामिल किसान राजनैतिक रूप से कितने सचेत हैं और अपने ऊपर हो रहे पूँजीवादी हमलों से कितना वाकीफ हैं कहना मुश्किल है, मगर तमाम तथाकथित प्रजातांत्रिक सरकारें जनता की असली ताकत को भूलकर, उन्हें महज वोट समझकर जिस तरह राजकाज चलाती आ रहीं हैं, उन्हें किसानों के इस आक्रामक मूढ़ से डरकर उनके हित में राजकाज चलाना सीखना होगा वर्ना यह तय है कि आने वाले समय में देश की केन्द्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें किसानों और आम जनता के इस आक्रोश से बच नहीं पाएँगी। जनता एक ना एक दिन सच्चाई समझ जाती है और संगठित होकर तख्ते पलटती है आज के पूंजीपरस्त राजनेता इस बात को अगर भूल गए हों तो फिर से याद करलें।
          भोपाल में किसानों का यह हल्ला बोल आन्दोलन राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से परे पूरे देश के किसानों में फैल सकता है और एक राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन में तब्दील हो सकता है इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
पुनश्च- आज राजधानी भोपाल के सारे अखबार किसानों के इस धरने से जनता को हो रही परेशानी की खबरों से भरे पड़े हैं, वे यदि आम जनता को किसानों की परेशानी विस्तार से बताते तो ज़्यादा अच्छा रहता। आखिर किसान राजधानियों की तमाम सुविधाभोगी आम जनता के लिए अन्न उपजाता, है इस बात को नहीं भूलना चाहिए।         

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

गैस त्रासदी 26वी वर्षगांठ - जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं......

    आज विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना की छब्बीसवी वर्षगांठ है, जिसे विश्व के सबसे बडे़ औद्योगिक षड़यंत्र के रूप में याद किया जाना चाहिए। भोपाल में गैस पीड़ित बस्तियों में कुछ बद्धिजीवी लोग, कुछ सरकारी-गैर सरकारी गैस पीड़ित संगठन कुछ राजनैतिक पार्टियों, कुछ अखबार वाले कुछ न्यूज़ चैनल अपनी औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराकर कर्तव्य की इतिश्री करेंगे और उधर भारतीय पूँजीवाद, विश्व साम्राज्यवाद की बाहों में बाहें डालकर जश्न मनाएगा।
    विगत 26 वर्षों के दौरान गैस पीड़ितों के प्रश्नों पर चली तमाम गतिविधियों की विवेचना करने पर एक जो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर सामने आता है वह यह है कि आखिर क्यों कर गैस पीड़ितों का आन्दोलन एक विराट आन्दोलन के रूप  में उभरकर सामने नहीं आ पाया, जबकि इसमें भोपाल की गैस पीड़ित जनता के स्वास्थ्य, पुनर्वास, रोजगार और तो और सीमेंटिंग फैक्टर के रूप  में काम करने वाले राहत और मुआवजे़ का प्रश्न भी शामिल था, जिसका सहारा लेकर गैस पीड़ितों के आन्दोलन को प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक लड़ाई की दिशा से पथभ्रष्ट किया गया। क्यों यह आन्दोलन एक ताकतवर आन्दोलन नही बन पाया जबकि इसमें ‘धन’ प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ मौजूद थीं। आमतौर पर यही पाया जाता है कि जब पैसा हासिल करने का मुद्दा सामने हो तो भारतीय जनमानस सक्रिय रूप से आन्दोलनों में भागीदारी निभाता है।
    इस प्रश्न के उत्तर में कई एक बिन्दु सामने आते हैं। पहला यह कि मध्यप्रदेश में राजनैतिक आन्दोलनों का कोई गौरवशाली इतिहास और परम्परा कभी रहीं नहीं इसलिए आम जनता केवल वोटर के रूप में जीती रही है, जिसका फायदा उठाकर जहाँ एक ओर तमाम संसदीय पार्टियों ने गैस पीड़ितों के आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग के हितों की दलाली की मंशा-स्वरूप गैस पीड़ितों के आन्दोलन को नष्ट करने का काम किया वहीं गैर सरकारी संगठनों और उनके प्रतिनिधियों ने जनवादी राजनैतिक चेतना के अभाव में गैस पीड़ितों की लड़ाई को एक राजनैतिक लड़ाई के रूप  में खड़ा ना कर मामूली धरना-प्रदर्शन की औपचारिकता एवं कानूनी दांवपेचों में फँसाकर नष्ट करने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारनामा अंजाम दिया। जनता की लड़ाइयों को अदालतों में ले जाकर सीमित कर देने वाले इन संगठनों से पूछा जाना चाहिए कि -‘‘क्या होता अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अदालतों में लड़ा जाता.........? इसका एक ही जवाब है कि भारतीय आम जनता युगों-युगों तक आज़ादी की साँस नहीं ले पाती।’’
    गैस पीड़ितों के सवालों पर मध्यप्रदेश और भारत सरकार की कुर्सियों पर समय-समय पर काबिज पार्टियों, ब्यूरोक्रेट्स, कानून, अदालत इत्यादि-इत्यादि ने जो विश्वासघात किये वे तो अपनी जगह पर हैं, और जब जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं, परन्तु जो लोग लम्बे समय से गैस पीड़ितों के आंदोलन का नेतृत्व करने का भ्रम पाले हुए विगत 26 वर्षों से अपनी दुकानें चला रहे हैं, उन सभी को एक बार अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कारण है वे गैस पीड़ितों की लड़ाई का सफल प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। इस बात पर भी उन्हें मंथन करना चाहिए कि जब लड़ाई के मुद्दे समान हैं तो अलग-अलग ढेर सारे संगठनों की आखिर ज़रूरत क्या है ? क्यों नहीं वे तमाम छोटे-मोटे संगठन लड़ाई को साझी लड़ाई के रूप में आत्मसात कर मज़बूत बना पाते ? ज़ाहिर है वे सब भी अन्ततः उन लोगों के स्वार्थ को सधने दे रहे हैं जिनका ध्येय है कि गैस पीड़ितों की लड़ाई ताकतवर रूप में खड़ी होकर कभी भी उनके आड़े ना आ सके, और यह स्थार्थ यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमरीकी साम्राज्यवाद और भारतीय पूँजीवाद के जनविरोधी गठबंधन के अलावा किसका हो सकता है ? गैस पीड़ितों के भीतर यह चेतना फूँकने वाला कोई नहीं, यहीं उनका दुर्भाग्य है।       

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरुंधति का अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए


     अरुधंति राय के बहाने तथाकथित राष्ट्रवादियों को फिर मौका मिल गया है राष्ट्र-राष्ट्र चिल्लाने का। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस देश ने 200 साल तक अंग्रेज़ों के साथ कठिन संघर्ष करके यह स्वतंत्रता हासिल की है, उस देश में एक महिला का किसी की स्वतंत्रता की लड़ाई को समर्थन देना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि उसे फाँसी देने की माँग उठने लगी है। ज़ाहिर ऐसे लोगों का स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ अवश्य ही कुछ लेना-देना नहीं रहा होगा।
            अरुधंति ने क्या गलती की इस पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले देखें कि आखिर यह राष्ट्र आखिर किसे कहा जा रहा है। दुनिया जानती है कि अंग्रेज़ों के इस भूभाग पर कब्ज़ा करने के पहले भारत जैसा कोई भी देश अस्तित्व में नहीं था, यह कई सारे राजे-रजवाड़ों, रियासतों का एक समूह था जिसमें अलग-अलग भाषा, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों का निवास था। सबका अपना आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आधार था, उनकी अपनी राष्ट्रीयता थी। अनेक राष्ट्रीयताओं के इस समूह को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों के मद्देनज़र एक सूत्र में पिरोया जिसे इन्डिया कहा गया। स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ताकत से लोहा लेने के लिए इसी एक सूत्र में आबद्ध राजनैतिक ढॉचे के आधार पर स्वतंत्रता आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन कहा गया। कालान्तर में जब गांधी जी के नेतृत्व में चले आन्दोलन के परिणाम स्वरूप अंग्रेज यह देश छोड़कर चले गए तो हमारी देशी सरकार को विरासत में वही साम्राज्यवादी नज़रिया देकर गए जिसके आधार पर भविष्य में भारत सरकार ने अपने गठन के बाद कई रियासतों को जबरदस्ती इस देश भारत का हिस्सा बना लिया। गोवा की बात अगर ना भी निकाली जाए क्योंकि वहाँ पुर्तगालियों का शासन था, और गोवा के लोग भारत की ताकत के दम पर उससे मुक्ति पाना भी चाहते थे लेकिन फिर भी मदद के बहाने भारत की गोवा को अपने अधीन कर लेने की विस्तारवादी कोशिशों के खिलाफ वहाँ कोई आन्दोलन नहीं हुआ हो ऐसी बात नहीं है। लेकिन, हैदराबाद में तो बाकायदा निज़ाम के खिलाफ भारतीय सेना को उतारा जाकर उसे ज़बरदस्ती संधीय भारत में शामिल किया गया। और भी ऐसी कई रियासतें रहीं है हम जानते हैं। प्रश्न यह है कि कश्मीर सहित ऐसी सारी रियासतों को जिन्हें भारत ने अपने अधीन ले लिया वहाँ की आम जनता से क्या पूछा गया कि वे क्या चाहते हैं ? कभी नहीं ?
            कश्मीर का सवाल भी इसी तरह का है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का नज़रिया क्या है और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का इस मुद्दे पर क्या स्टेंड है इसे दरकिनार रखकर, पूछा जाय तो क्या आज़ादी की महान लड़ाई लड़ चुके राष्ट्र को अपने अधीन किसी भी राज्य, जिसकी अपनी निजी राष्ट्रीयता है, जो सास्कृतिक, सामाजिक, रूप से अपनी एक निजी पहचान रखता है, की जनता से यह जान लेना क्या आवश्यक और प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों के अनुरूप नहीं है कि वे क्या चाहते है ? या उन्हें हमेशा ही डंडे के दम पर यह कहा जाएगा कि अपने हक में स्वतंत्रता की बात करोगे तो राष्ट्रद्रोही करार दिये जाकर जेल में सड़ा दिया जाएगा। क्या यह नज़रिया तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के समान ही नहीं नज़र आता जो उस वक्त आज़ादी की माँग करने वालों को फॉसी पर चढ़ा दिया करते थे क्योंकि यह माँग उनकी साम्राज्यवादी मंसूबों पर पानी फेरने वाली माँग थी।
            आज यदि कश्मीर की आमजनता यह चाहती है कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए, तो इसे हम अपने प्रजातंत्र की नाकामी क्यों नहीं मानते ? क्यों नहीं हम यह स्वीकार कर लेते कि हमने अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को मिलाकर एक राष्ट्र तो बना लिया मगर हम एक राष्ट्रीय संस्कृति विकसित करने में असफल रहे हैं जो हमारे अलग-अलग राष्ट्रीयताओं वाले देश को एक सूत्र में पिरो पाती। क्यों हमारे देश में अब भी भाषा, और प्रांतीय झगड़े मौजूद हैं। क्यों मुम्बई में मराठियों के द्वारा गैर मराठियों का जीना हराम किया जाता है। इसका जवाब एक ही है कि हमारा राजनैतिक और आर्थिक ढॉचा आज़ादी के बाद से लेकर अब तक मात्र और मात्र दोहन में लगा रहा है और अब भी लगा हुआ है। यदि हम प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए एक राष्ट्रीय संस्कृति का विकास करने में सफल हुए होते तो ना तो कश्मीर का झंझट खड़ा होता और ना ही देश के और दूसरे कोने अपने आप में भीतर ही भीतर सुलग रहे होते।
            अरुंधति ने कश्मीर की स्वतंत्रता के मुद्दे को आम जनता का मुद्दा मानते हुए उसका समर्थन किया है। उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी मुल्क की आम जनता कभी स्वयंस्फूर्त रूप से कुछ नहीं करती। पूँजीवाद के दौर में स्वतंत्रता का मुद्दा छोटे पूँजीवादियों का बड़े पूँजीखोरों के पंजे से मुक्ती का मुद्दा होता है। हिन्दुस्तान से अलग होकर पाकिस्तान बनने की भी यही कहानी थी, भारतीय पूँजीवाद जिसके हाथों अंग्रेज सत्ता का हस्तांतरण कर गए थे पाकिस्तान का स्थानीय पूँजीपति असुरक्षित महसूस करता था, इसीलिए उसने अपने विकास के लिए अलग राष्ट्र के सिद्धांत को अपनाया। बांगलादेश बनने की भी यही कहानी है। पूर्वी बंगाल में छोटे पूँजीपति चूँकि पाकिस्तानी पूँजी के हाथों बरबाद हो रहे थे तो उसने अपने दादा भारतकी मदद से अपने आप को पाकिस्तान के पंजे से छुड़ा लिया, और भारत में शामिल होने की बजाय स्वतंत्र अस्तित्व का चुनाव किया।
            अरुंधति को यह समझना चाहिए था कि असली मुक्ति किस चीज़ में है। कश्मीर की आम जनता तब तक सुखी नहीं हो सकती जब तक पूँजीवाद का अंत नहीं होता। कश्मीरी स्थानीय पूँजीवाद पाकिस्तानी पूँजी के दम पर कितना भी उछलता रहे मगर वहाँ की आम जनता को तभी सुख मिलेगा जब उसके आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक हित पूँजीवादी ताकतों से छुटकारा पा सकें। अरुंधति को यह जानना चाहिए, और वे शायद अच्छी तरह जानती हैं कि यह देश घोर प्रजांतांत्रिक अवमूल्यन की समस्या से पीड़ित है, समानता यहाँ दूभर हो चुकि है, आर्थिक विषमता एक पाटी ना जा सकने वाली खाई के समान है, और यह कश्मीर समेत पूरे देश की समस्याएँ है। ऐसी स्थिति में कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन जो कि किसी भी सूरत में वहाँ की आम जनता मजदूर वर्ग का आंदोलन नहीं है, भारतीय पूँजीवाद की छत्रछाया में छटपटाते कश्मीरी पूँजीवाद का आन्दोलन मात्र ही उसे कहा जा सकता है तब उन्होंने उनके सुर में सुर मिला कर अच्छा तो खैर किसी दृष्टि से नहीं किया, लेकिन फिर भी उनका अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए, फॉसी देने की बात की जाए। वे सही कह रहीं है, देश में इस समय नाना तरीके के देशद्रोह के अपराधी खुले आम घूम रहे हैं उन्हें छुट्टा छोड़कर देश की एक प्रबुद्ध महिला को इस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर प्रताड़ित किया जाए, ऐसा राष्ट्रवाद अपनी तो समझ के परे है।               

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान
            रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
           यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए।एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
          हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
         लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।

हस्ताक्षरकर्ता मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
आली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच, लखनऊ की पत्रिका के ब्लॉग जसम लखनऊ से साभार।

रविवार, 12 सितंबर 2010

गणपति बप्पा : ईश्वर कहीं नहीं, सिवा इन्सानी दिमाग के

       दुनिया के सबसे अनोखे देव इस समय भारतवर्ष के कुछ गली कूचों में आ बिराजे हैं, भक्त समाज अपने दिमाग की खिड़कियाँ बंदकर उनकी भक्ति में लीन हो गया है। आठ दस दिन बाद इन्हें नदी तालाबों में विसर्जित कर प्रदूषण बढ़ाया जाएगा।
    भारतीयों की उदारता का कोई जवाब नहीं है। वे प्रत्येक असंभव बात पर आँख बंदकर विश्वास कर लेते हैं यदि उसमें ईश्वर की महिमा मौजूद हो। पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया और नहाने की क्रिया के दौरान कोई ताकाझांकी ना करे इसलिए उस पुतले में प्राण फूँक कर उसे पहरे पर बिठा दिया। ऐसा कितना मैल पार्वती जी के शरीर से निकला होगा इस प्रश्न पर ना जाकर यह सोचा जाए कि पुतले में कैसे कोई प्राण फूँक सकता है, लेकिन चूँकि वे भगवान शिव की पत्नी थीं सो उनके लिए सब संभव था। दूसरा प्रश्न, भगवान की पत्नी को भी ताकाझांकी का डर ! बात कुछ पचती नहीं। किसकी हिम्मत थी जो इतने क्रोधी भगवान की पत्नी की ओर नहाते हुए ताकझांक करता !
    खैर, ज़ाहिर है कि चूँकि पुतला तत्काल ही बनाया गया था सो वह शिवजी को कैसे पहचानता ! पिता होने का कोई भी फर्ज़ उन्होंने उस वक्त तक तो निभाया नहीं था ! माता के आज्ञाकारी पुतले ने शिवजी को घर के अन्दर घुसने नहीं दिया तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन उड़ा दी। उस वक्त कानून का कोई डर जो नहीं था। पार्वती जी को पता चला तो उन्होंने बड़ा हंगामा मचाया और ज़िद पकड़ ली की अभी तत्काल पुतले को ज़िदा किया जाए, वह मेरा पुत्र है। शिवजी को पार्वती जी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा परन्तु भगवान होने के बावजूद भी वे गुड्डे का सिर वापस जोड़ने में सक्षम नहीं थे। सर्जरी जो नहीं आती थी। परन्तु शरीर विज्ञान के नियमों को शिथिल कर अति प्राकृतिक कारनामा करने में उन्हें कोई अड़चन नहीं थी, आखिर वे भगवान थे। उन्होंने हाल ही में जनी एक हथिनी के बच्चे का सिर काटकर उस पुतले के धड़ से जोड़ दिया। ना ब्लड ग्रुप देखने की जरूरत पड़ी ना ही रक्त शिराओं, नाड़ी तंत्र की भिन्नता आड़े आई। यहाँ तक कि गरदन का साइज़ भी समस्या नहीं बना। पृथ्वी पर प्रथम देवता गजानन का अविर्भाव हो गया।
  
प्रथम देवता की उपाधि की भी एक कहानी बुज़र्गों के मुँह से सुनी है। देवताओं में रेस हुई। जो सबसे पहले पृथ्वी के तीन चक्कर लगाकर वापस आएगा उसे प्रथम देवता का खिताब दिया जाएगा। उस वक्त पृथ्वी का आकार यदि देवताओं को पता होता तो वे ऐसी मूर्खता कभी नहीं करते। गणेशजी ने सबको बेवकूफ बनाते हुए पार्वती जी के तीन चक्कर लगा दिए और देवताओं को यह मानना पड़ा कि माँ भी पृथ्वी तुल्य होती है। गणेश जी को उस दिन से प्रथम देवता माना जाने लगा। बुद्धि का देवता भी उन्हें शायद तभी से कहा जाने जाता है, उन्होंने चतुराई से सारे देवताओं को बेवकूफ जो बनाया। आज अगर ओलम्पिक में अपनी मम्मी के तीन चक्कर काटकर कोई कहें कि हमने मेराथन जीत ली तो रेफरी उस धावक को हमेशा के लिए दौड़ने से वंचित कर देगा।  आज का समय होता तो मार अदालतबाजी चलती, वकील लोग गणेश जी के जन्म की पूरी कहानी को अदालत में चेलेन्ज करके माँ-बेटे के रिश्ते को ही संदिग्ध घोषित करवा देते।
    बहरहाल, इस बार भारत में गणेशजी ऐसे समय में बिराजे हैं जबकि दुनिया में ईश्वर है या नहीं बहस तेज हो गई है। इस ब्रम्हांड को ईश्वर ने बनाया है कि नहीं इस पर एक वैज्ञानिक ने संशय जताया जा रहा है जिसे पूँजीवादी प्रेस प्रचारित कर रहा है। जो सत्य विज्ञान पहले से ही जानता है और जिसे जानबूझकर मानव समाज से छुपाकर रखा गया है, उसे इस नए रूप में प्रस्तुत करने के पीछे क्या स्वार्थ हो सकता है सोचने की बात यह है। क्या विज्ञान की सभी शाखाओं को समन्वित कर प्रकृति विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के सत्यों को पहले कभी उद्घाटित नहीं किया गया ? किया गया है, परन्तु यह काम मार्क्सवाद ने किया है, इसीलिए वह समस्त विज्ञानों का विज्ञान है, परन्तु चूँकि वह शोषण से मुक्ति का भी विज्ञान है, इसलिए उसे आम जनता से दूर रखा जाता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-ऐतिहासिक भौतिकवाद को लोगों से छुपाकर रखा जाता है, जबकि अगर कोई सचमुच सत्य को खोजना चाहता है तो इस सर्वोन्नत विज्ञान को जानना बहुत ज़रूरी है।
    लोग ईश्वर की खोज के पीछे पड़े हैं। हम कहते हैं कि ईश्वर की समस्त धारणाएँ धर्म आधारित हैं, तो पहले यह खोज कीजिए कि धर्म कहाँ से आया, कैसे आया। धार्मिक मूल्य अब इस जम़ाने में मौजू है या नहीं। मध्ययुगीन धार्मिक मूल्यों के सामने आधुनिक मूल्यों का दमन क्यों किया जाता है। यदि आप यह समझ गए कि अब आपको मध्ययूगीन धार्मिक मूल्यों की जगह नए आधुनिक मूल्यों की आवश्यकता है जो वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित हों, तो ईश्वर की आपको कोई ज़रूरत नहीं पडे़गी।
    एक मोटी सी बात लोगों के दिमाग में जिस दिन आ जाएगी कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है, सारे अनसुलझे प्रश्न सुलझ जाऐंगे। क्योंकि पदार्थ (मस्तिष्क) इस सृष्टी में पहले आया, विचार बाद में। ईश्वर मात्र एक विचार है, उसका वस्तुगत अस्तित्व कहीं, किसी रूप में नहीं है, सिवा इन्सान के दिमाग के।

रविवार, 5 सितंबर 2010

शिक्षक दिवस : क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ‘शिक्षकों’ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए

    आज शिक्षक दिवस है। सारे अखबार या तो शिक्षकों की बदहाली अथवा प्रशंसा से भरे हुए हैं। अच्छी बात है, जो शिक्षक हमें एक सफल सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अपनी रचनात्मक भूमिका निभाकर एक महान कार्य करता है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना एक सुशिक्षित व्यक्ति के लिए लाज़मी है और दूसरी और इस महती सामाजिक कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाली महत्वपूर्ण इकाई के प्रति सरकार के असंवेदनशील रुख की भर्त्सना करना भी उतना ही ज़रूरी है।
    सरकार का शिक्षकों को दोयम दर्ज़े के सरकारी कर्मचारी की तरह ट्रीट करना, उनके वेतन, भत्तों, सुख-सुविधाओं के प्रति दुर्लक्ष्य करना, उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य से विमुख करना, इनके अलावा और भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक शिक्षक की भूमिका और महत्व को सिरे से खारिज करते से लगते हैं। लेकिन, इस सबसे परे, शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।
    पिछले दो-तीन सौ साल मानव सभ्यता के करोड़ों वर्षों के इतिहास में, विज्ञान के विकास की स्वर्णिम समयावधि रही है। इस अवधि में प्रकृति, विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के अधिकांश रहस्यों पर से पर्दा उठाकर सभ्यता ने व्यापक क्रांतिकारी करवटें ली हैं। एक अतिप्राकृतिक सत्ता की अनुपस्थिति का दर्शन भी इसी युग में आविर्भूत हुआ है जिसकी परिणति दुनिया भर में मध्ययुगीन सामंती समाज के खात्में के रूप में हुई थी जिसका अस्तित्व ही ईश्वरीय सत्ता की अवास्तविक अवधारणा पर टिका हुआ था।
    भारतीय समाज में सामंती समाज की अवधारणाओं, मूल्यों का पूरी तौर पर पतन आज तक नहीं हो सका है और ना ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की समझदारी, आधुनिक चिंतन, विचारधारा का व्यापक प्रसार ही हो सका है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस समाज में ’सत्य-सत्य‘ का डोंड सामंती समय से ही पीटा जाता रहा हो उस समाज में ’सत्य‘ सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है।
    हमें आज़ाद हुए 62 वर्ष से ज़्यादा हो गए, देश आज भी सामंत युगीय अज्ञान एवं कूपमंडूकता की गहरी खाई में पड़ा हुआ है। धर्म एवं भारतीय संस्कृति के नाम अवैज्ञानिक क्रियाकलापों कर्मकांडों का ज़बरदस्त बोलबाला हमारे देश में देखा जा सकता है। क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ? क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’शिक्षकों‘ की नहीं थी ? क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’शिक्षकों‘ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ? क्या मध्ययुगीन अवधारणाओं के दम पर विश्व गुरू होने का फालतू दंभ चूर चूर कर, वास्तव में ज्ञान की वह ’सरिता‘ प्रवाहित करना एक अत्यावश्यक ऐतिहासिक कार्य नहीं था जिसके ना हो सकने का अपराध किसी और के सिर पर नहीं प्रथमतः शिक्षकों के ही सिर पर है।
    अब भी समय है, प्रकृति मानव समाज एवं विश्व ब्रम्हांड के सत्य को गहराई में जाकर समझने और एकीकृत ज्ञान के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त अंधकार को दूर करने की लिए प्रत्येक शिक्षक आज भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है, बशर्ते वह अपने तईं ना केवल ईमानदार हो बल्कि सत्य के लिए प्राण तक तजने को तैयार हो।

रविवार, 8 अगस्त 2010

मुनि जी का अनर्गल प्रलाप ; क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।

          भोपाल में इन दिनों पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोग एक दिगम्बर मुनि के कड़वे प्रवचनों का आनन्द ले रहे हैं। वे दिगम्बर मुनि जब बैंडबाजे के साथ सड़क से गुज़रते हैं तो उनके अनुयाई महिला पुरुष तो श्रद्धा से सिर झुका लेते हैं मगर समाज के दूसरे वर्गों के लोगों को खासकर महिलाओं को परेशानी होती है या वे उन्हीं पागलों की तरह इन दिगम्बर मुनि जी को भी नज़रअन्दाज़ करती चलती हैं जो शहर में विक्षिप्त हालत में अपने बदन पर से कपड़े उतार फेंककर अक्सर यहाँ वहाँ घूमते दिखाई देते रहते हैं, यह एक प्रश्न है।
          एक सुसंस्कृत समाज में जहाँ भाँति भाँति के धर्म और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं, महज़ धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर किसी को इस तरह सड़क पर निर्वस्त्र घूमने की इजाज़त दी जानी चाहिए या नहीं इस प्रश्न को उठाने से परहेज करते हुए इससे भी बड़ा एक प्रश्न उठाने की आवश्यकता महसूस हो रही है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को भी कुछ भी ऊटपटांग बोलने की इजाज़त दी जानी चाहिए या धार्मिक प्रवचनों की आड़ में किसी प्रकार की अविवेकपूर्ण बातों को बर्दाश्त किया जाना चाहिए ?
          मुनि जी कहते हैं कि विधानसभा में खतरनाक लोग होते हैं, यह बात सुनकर सरकार के मुखिया से लेकर सारे राजनीतिज्ञ मंद मंद मुस्कुराते हुए मुनि जी से आशीर्वाद लेने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते हैं, उनमें से किसी के चेहरे पर मुनि जी के इस जुमले से कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। मुनि जी के कड़वे प्रवचन सुनने वाले प्रबुद्ध लोग भी इस बात से मंद मंद मुस्कुराकर रह जाते हैं, उनके चेहरे पर भी इस बात से कोई शिकन नहीं आती। ज़ाहिर है इस सत्य से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता मगर यह सत्य आम जनसाधारण के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण है जिसके कल्याण के लिए विधानसंभाएँ या संसद के ज़रिए प्रजातांत्रिक कर्त्तव्यों का निर्वहन किया जाता है। जब वहाँ खतरनाक लोग बैठे होंगे जिसका अर्थ है गुंडे, बदमाश, असामाजिक तत्व बैठे होंगे तो फिर आम जनता का क्या हश्र होगा यह समझा जा सकता है, मगर मुनि जी को इस संबंध में आगे कुछ नहीं कहना है।
          मुनि जी कहते हैं कि ’’अगर आप झुकना नहीं जानते तो फिर समझ लो की मुर्दा हो गए, क्योंकि मुर्दा ही ऐसा होता है जो कि झुकता नहीं।’’ अनुभवी लोग यही बात दूसरे अन्दाज़ में कहते हैं जब अंधड़ चलता है तो दूब-घास का कुछ नहीं बिगड़ता क्यों कि वह ज़मीन पर लेट जाती है परन्तु बड़े-बडे़ पेड़ जड़ से उखड़ जाते हैं। यहाँ घास के उदाहरण से जहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि आंधी गुज़रते ही जिस तरह घास दोबारा उठ खड़ी होती है फिर उसी तरह तनकर खड़े हो जाओ, वहीं मुनि जी के प्रवचन से यह समझ में आता है कि-अन्याय अत्याचार के सामने झुकना सीखो, गुंडे-बदमाश, असामाजिक तत्व जब दबाने की कोशिश करे तो उनके सामने झुक जाओ, देश में इतना कुछ अनाचार, झूठ-फरेब चल रहा है उस सबके सामने झुक जाओ, वर्ना मुर्दा कहलाओगे।
          एक दिन वे कह रहे थे, ‘‘यह देश बदलने वाला नहीं है इसलिए बेहतर है तुम खुद ही बदल जाओं।’’ इसका भी यही अर्थ है कि इस देश में जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ वर्तमान में मौजूद है वे कभी बदलने वाली नहीं है इसलिए तुम भी उन परिस्थितियों के गुलाम हो जाओ, उनके अनुसार आचरण करो। इसका अर्थ यह भी होता है कि देश में जात-पात, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर राष्ट्रीय हितों को ताक पर रख देते हैं, तुम भी रखो, एक दूसरे की गरदने काटते हैं तुम भी काटो, राजनीति में नीति नैतिकता की जो जर्जरता देखी जा रही है तुम भी उसी में लिप्त हो जाओ, आम जनता का खून चूसो, जिस तरह देश का पूँजीपति वर्ग आम जनता का आर्थिक शोषण कर रहा है तुम भी करों, सभी उत्कृष्ट मूल्यों को तिलांजलि देकर एक जानवर की तरह का जो आचरण आजकल जन मानस में देखा जा रहा है, तुम भी उसी तरह का आचरण अपना लो, आदि आदि।
          रोजाना वे दिगम्बर मुनि इस प्रकार की ऊटपटांग बातें करते रहते हैं और भी कई स्वयंभू गुरु इस तरह कि आधारहीन, अवैज्ञानिक बातों से पढ़े-लिखे लोगो तक को भरमाते रहते हैं, मगर सबसे ज्यादा ताज़्जुब की बात यह है कि देश के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, प्रगतिशील राजनैतिक पार्टियाँ, मानव अधिकार संगठन, महिला संगठन, और तमाम व्यक्तिगत एवं संस्थागत रूप से सामाजिक जद्दोजहद में लगे लोग इस विषय में चुप्पी साधे रहते हैं। क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।    

शुक्रवार, 11 जून 2010

क्या ये जनद्रोही नहीं हैं ??????????

सभी चित्र दैनिक भास्कर से साभार
घड़ियाली आँसू
कौन लेकर रहेगा इंसाफ ?26 साल पहले ये सब कहाँथे जब भोपाल के चंद कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, समाजसेवियों ने गैस पीड़ितों के कंधे से कंधा मिलाकर उनके लिए संघर्ष किया, पुलिस प्रशासन का अत्याचार सहा, लाठियाँ खाई, जेल तक गए। तब ये सारे घड़ियाली आँसू बहाने वाले लोग कहाँ थे ?
मध्यप्रदेश की सत्ताधारी पार्टी और उसके सांसद विधायक तत्कालीन कांग्रसी नेताओं को कटघरे में खड़ा कर उनके मज़े ले रहे हैं। सच्चाई यह है कि उनके दामन भी उतने ही दागदार हैं जितने कांग्रसियों के। इन 26 सालों में केन्द्र में और मध्यप्रदेश में भी भाजपा की सरकार लम्बे समय तक रहीं, उन्होंने इस मुदृदे पर क्या किया यह भी जगजाहिर है।  हर बार चुनाव आने पर उन्होंने पूरे भोपाल को मुवावज़ा बटवाने का सपना दिखाकर वोट हासिल किए।
अब जब कि सारी बातों का खुलासा हो गया है क्या शिवराज सरकार में नैतिक साहस है कि वे सरकारी मशीनरी के उन तमाम  अफसरों और राजनीतिज्ञो के ऊपर शिकंजा कसे जिन्होने भोपाल की जनता के साध विश्वासघात किया ?

 
 और भी ना जाने कौन कौन ? 

क्या ये जनद्रोही नहीं हैं ??????????
इन सब को सज़ा कौन देगा ???

गुरुवार, 10 जून 2010

ये हैं नाइंसाफी के जवाबदेह

भोपाल के गैस पीड़ितों ने उनके साथ हुई नाइन्साफी के लिए इन लोगों को जिम्मेदार ठहराया है
(फोटो दैनिक भास्कर से साभार)

क्या क्या हुआः-
-घनी आबादी के बीच में अमानक स्तर का कारखाना चलाने देने, और खतरनाक, पाबंदी वाले उत्पादनों का कारोबार बेराकटोक चलते रहने देने के लिए आज तक किसी को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से नहीं हुआ।जबकि इस मामले में दोषी औ?ोगिक इन्सपेक्टर से लेकर तत्काली मुख्यमंत्री तक सबको कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।

-हादसे के बाद गैस पीड़ितों की किसी भी प्रकार की कानूनी लड़ाई को लड़ने का अधिकार अपने हाथ में लेकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने गैस पीड़ितों के हाथ काट दिए।

- गैस त्रासदी  की विभिषिका को वास्तविकता से बेहद कम आंका जाकर अदालत के सामने प्रस्तुत किया गया।ताकि यूनीयन कार्बाइड सस्ते में छूटे।

-मरने वालों और प्रभावितों की संख्या को काफी कम दिखाया गया।ताकि यूनीयन कार्बाइड को कम से कम आर्थिक नुकसान हो।

-गैस के ज़रिए फैले ज़हर के बारे में जानकारियाँ छुपा कर रखी गई, कारण गैसपीड़ितों के शरीर पर पडने वाले दूरगामी परिणामों संबंधी समस्त शोधों को छुपाकर रखा गया ताकि यूनीयन कार्बाइड को लाभ पहुँचे।

-हादसे के बाद दोषियों को बचाने की भरपूर कोशिश की गई।जिसमें एंडरसन को बचाने का अपराध तो जगजाहिर हो गया है।

भोपाल की आम जनता को मुआवज़ा और राहत के जंजाल में फंसाकर वास्तविक समस्याओं से उनका ध्यान हटाया गया और इसमें दलाल किस्म के संगठनों ने विदेशी पैसों के दम पर अपनी  भूमिका निभाई।

-अब भी जब बेहद कम सज़ा पाने के कारण देश-दुनिया में नाराज़गी है चारों ओर घड़ियाली आँसू बहाए जा रहे है, समितियाँ बन रहीं है।इसमें मीड़िया और प्रेस भी शामिल है जिसने 26 सालों तक इस मामलें को जनता की स्मृति से धोने का काम किया।

-आगे और लम्बे समय तक एक और मुकदमें में मामले को ले जाने के कोशिशें हो रहीं हैं, ताकि तब तक तमाम दोषी मर-खप जाएँ और मामला शांत हो जाए।

यह सब कुछ नहीं होता अगर गैस पीड़ितों को एक सशक्त आंदोलन अस्तित्व में होता। भोपाल की गैस पीड़ित आम जनता को यदि सही तरह से संगठित किया जाता तो ना गैस पीड़ितों में दलाल संगठन पनप पाते, ना राजनैतिक दलों द्वारा मामले को दबाने के प्रयास हो पाते, ना सरकारी मशीनरी को मनमानी करने की छूट मिल पाती और ना ही शासन-प्रशासन के स्तर पर देशदोह श्रेणी का अपराध करने की हिम्मत होती।


मंगलवार, 8 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी-कानून का रास्ता पकड़ने वाले जन आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण सबक


26 साल के लम्बे इन्तज़ार के बाद आखिर भोपाल गैस त्रासदी के अपराधियों पर चल रहे मुकदमें का अपेक्षित फैसला आ गया। जिस गंभीर आपराधिक मामले में राज्य और केन्द्र सरकार की एजेंसियाँ शुरु से ही अपने पूँजीवादी वर्ग चरित्र के अनुरूप अपने साम्राज्यवादी आंकाओं को बचाने में लगी थी, उसका हश्र इससे कुछ जुदा होता तो ज़्यादा आश्चर्य की बात होती।
भोपाल गैस त्रासदी उन्ही दिनों की बात है जब भूमंडलीकरण के साम्राज्यवादी षड़यंत्र के रास्ते अमरीका और दीगर मुल्क दुनिया के गरीब मुल्कों में पांव पसारने पर आमादा हो गए और इससे हमारे देश के पूँजीपतियों को भी दुनिया के दूसरे देशों में अपने पांव पसारने का मौका मिला। ऐसे में हज़ारों लोगों की बलि लेने वाली और लाखों लोगों को जीवन भर के लिए बीमार बना देने वाली अमरीकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन और उसकी भारतीय ब्रांच यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड को नाराज़ करके तत्कालीन राजीव गांधी सरकार भारतीय पूँजीपतियों की विश्वव्यापी कमाई को बट्टा कैसे लगा सकती थी ? लिहाज़ा भोपाल की आम जनता को निशाना बनाया गया। गैस त्रासदी के भयानक अपराध से संबंधित किसी भी तरह की न्यायिक कार्यवाही को बाकायदा  कानून पास करके केन्द्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और भोपाल की आम जनता की आवाज को कुंद कर दिया। फिर शुरू हुआ अपने ही देश के नागरिकों के साथ दगाबाजी का लम्बा कार्यक्रम जिसका प्रथम पटाक्षेप कल भोपाल की अदालत में हुआ। एक दो पटाक्षेप हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में और होंगे और भोपाल की जनता की आवाज़ को पूरी तौर पर दमित कर दिया जायगा। यही पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र है।
    मगर आज यह सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या पूँजीवादी व्यवस्था के इस चरित्र को भोपाल की आम जनता और उनका आंदोलन चलाने वाले जन संगठन समझ नहीं पाए ? क्या आज से 26 साल पहले कानून और प्रशासन का चरित्र कुछ अलग था ? क्या उस समय सरकार, प्रशासन, कानून में बैठे लोग आम जनता के हितैशी हुआ करते थे ? जवाब है नहीं । फिर क्यों जनसंगठनों ने न्यायिक लड़ाई पर भरोसा करके एक उभरते सशक्त जनआंदोलन को कानून और अदालत में ले जाकर कुंद कर दिया ?
क्या कल के इस ऐतिहासिक जनविरोध फैसले से यह स्पष्ट नहीं है कि इस देश की व्यवस्था की मशीनरी के किसी भी कलपुर्जे को, देश की आम जनता की ना तो कोई फिक्र है और ना ही उसके प्रति किसी प्रकार की प्रतिबद्धता की चिंता। देश के कानून, शासन, प्रशासन, और किसी भी संस्थान को आम जनता के गुस्से से कोई डर नहीं लगता, क्योंकि आम जनता को सही मायने में संगठित करने का काम अब इस देश कोई नहीं करता,  और जब आम जनता संगठित ना हो, सही राजनैतिक चेतना से लैस ना हो तो उसके बीच ऐसे जनविरोधी संगठन भी पनपते हैं जो जन आंदोलनों को जनतांत्रिक आंदोलन का नाम देकर  अदालतों में ले जाकर फंसा देते हैं ताकि मुकदमा खिचते खिचते इतना समय ले लें कि किसी को ध्यान ही ना रहे कि हम लड़ क्यों रहे थे।
भोपाल में भी कमज़ोर जन आन्दोलन का नतीजा 26 साल के लम्बे इन्तज़ार के बाद महज़ कुछ सालों की सज़ा पाकर, जमानत पा गए उन अपराधियों और भोपाल के ठगे गए गैस पीडितों के चेहरों से पढ़ा जा सकता है।
उम्मीद है अब भी कोर्ट-कचहरी, प्रेस-मीडिया, और छद्म आंदोलन के छाया से निकलकर गैस पीड़ित और उनके संगठन कोई ताकतवर जन आन्दोलन खड़ा करने की तैयारी करेंगे, ताकी आगे होने वाले फैसलों को जनता के हित में प्रभावित किया जा सके।    

और भी पढ़े- भोपाल  गैस पीड़ितो के साथ विश्वासघात

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे।

    14 अप्रैल की दृष्टिकोण की पोस्ट ‘‘मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं !’’ कुछ महानुभावों को इस कदर नागवार गुज़री कि उन्होंने हमारे ब्लॉग पर लम्बी लम्बी टिप्पणियों की बौछार के ज़रिए दृष्टिकोण को पूरी तौर पर नक्सल समर्थक घोषित कर दिया। कुछ सज्जन तो इस कदर आहत हुए कि उन्होंने बाकायदा अपने ब्लॉग पर हमारी पोस्ट के खिलाफ पूरी की पूरी पोस्ट लिख मारी ( क्या मैं भी नक्सली बन जाऊँ)। एक महाशय तो पोस्ट लिखने की जल्दबाज़ी में शीर्षक को उलटकर अपनी बौद्धिकता झाड़ने पर उतारू हो गए। उन्होंने लाल रंग को लाल सांड बनाकर एक अच्छी खासी बकवास लिख मारी (नारेबाज़ी से मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते)। कुछ बुद्धिजीवियों ने दृष्टिकोण के मेल पर माँ-बहन के पवित्र श्लोकों से हमारा अभिनन्दन किया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये वही देशभक्त हैं जो अपने अलावा हर एक इन्सान को देशद्रोही मानते हैं।
    इस पूरे घटनाक्रम से एक बात जो सामने आई है वह यह कि ब्लॉगजगत में कुछ लोगों का पढ़ने -लिखने और गंभीर चिंतन से कोई ताल्लुक नहीं। ना वे टिप्पणी देने से पहले ब्लॉग पर प्रकाशित मुद्दे को ठीक से पढ़ते हैं और ना ही समझबूझ कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। न  इन्हें सामाजिक राजनैतिक इतिहास की कोई  वैज्ञानिक समझदारी हैं और ना ही देश की वर्तमान वस्तुस्थिति का इनके पास कोई ठोस विश्लेषण है। अपनी अधकचरी समझ को ही वे अन्तिम समझदारी मानकर इधर-उधर के झंडे उठाए हुए भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं।
    बड़ा ताज्जुब होता है कि आज जब देश को आज़ाद हुए बासठ साल हो चुके हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी पूरी प्रगतिशीलता खोकर शुद्ध रूप से पूँजीवादी हथियार के रूप में बेनकाब हो चुकी है इन बेचारों के पास आज भी इस पर भरोसा करने के जायज़ कारण मौजूद हैं। लोकतंत्र की जिस अलोकतांत्रिकता ने देश में अमीर-गरीब की एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी है वह इनमें से किसी को दिखाई नहीं देती। इस विभाजन रेखा के एक तरफ करोड़ों लोग ऐसे है जिन्हें सरकार ही मानती है कि वे बीस रुपए रोज़ की औसत आमदनी पर जिन्दा है और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके कुत्ते बीस हज़ार रुपए रोज़ चट कर जाते हैं। इसी भ्रष्ट लोकतंत्र के आशीर्वाद से गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, कुशासन, शोषण, दमन उत्पीड़न का जो ज़ोरदार तांडव चल रहा है वह इन्हें दिखाई नहीं देता।
    ये नक्सलियों को चुनाव के रास्ते शोषितों का कल्याण करने की सलाह दे रहे है, जैसे इन्हें पता ही नहीं कि इस देश में चुनाव किसी तरह से होते हैं। मात्र तीस-चालीस प्रतिशत वोटों में से पाँच-सात प्रतिशत वोटों को घेरकर अल्पमत की सरकारें बनती हैं जो बहुमत पर राज करती हैं, ये लोग इसे लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र के ये चुने हुए नुमाइंदे संसद में बैठकर गरीबों की जगह अमीरों, पूँजीपति धन्नासेठों के लिए नीतियाँ बनाते हैं, इसी को शायद इनकी भाषा में लोकतंत्र कहा जाता है। वामपंथियों ने भी संसद के रास्ते क्रांति के फालतू सपने को संजोकर रखा है जिसका हश्र पूँजीवाद के भरोसेमंद दलाल के रूप में उनके आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में दुनिया देख रही है। जिस संसद ने पूँजीवाद की सेवा के यंत्र के रूप में दुनिया में जन्म लिया हो उससे आम आदमी मजदूर वर्ग की सेवा की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज की तारीख में संसद में कोई भी शक्ति ऐसी नज़र नहीं आती है जो संसद से सही मायने में जनतांत्रिक सरोकारों के नतीजे हासिल करने का संघर्ष कर रही हो।
    हमने अपने आलेख में स्पष्ट तौर पर यह संकेत हैं कि हमारा नक्सली विचारधारा और कर्मकांड से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन फिर भी कुछ लोगों द्वारा हमारे ब्लॉग और अन्य ब्लॉगों पर जो हमारी पोस्ट पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए थे, पर दी गई टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि प्रवृत्ति में फासीवादी संस्कृति होने के कारण इन लोगों में दूसरों की बातों को सुनने समझने का ज़रा भी धैर्य बाकी नहीं है। हमने जो मूल मुद्दा उठाने की कोशिश की है उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र आखिरकार देश के ही लोगों के द्वारा पालित-पोषित तंत्र होता है जिसका काम होता है स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के उसूलों पर जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-प्रांत से निरपेक्ष रहकर देशवासियों के हित में नीतियाँ बनाना और कार्यान्वित करना। तंत्र यदि यह काम करने में अक्षम हो जाता है जैसा कि भारत में हो चुका है, तो उसकी खबर देशवासियों को ही लेना पड़ती है। उसमें आ गई विकृतियों को सुधारने के लिए संघर्ष भी देशवासियों को ही करना पड़ता है। दुर्भाग्य से इस देश का किसी ना किसी रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली सभी संसदीय पार्टियाँ जन अपेक्षाओं के अनुसार काम करने की जगह अपने-अपने समर्थक कार्पोरेट घरानों के हित साधने में ही लगी हुईं है। सबसे हैरत की बात सर्वहारा मजदूर-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ भी अपने पूँजीवादी आंकाओं को खुश करने के लिए आम जनता पर गोलियाँ चलाने का इतिहास रचती देखी जाती हैं। ऐसे में देश की गरीब आम जनता की हालत का वास्तविक अन्दाज़ लगा पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। इन्हीं बातों को इंगित करने के लिए हमने प्रतिप्रश्न किया है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के तमाम सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ? इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें भी हथियार उठा लेना चाहिए जिनके सवाल  अब तक हल नहीं हुए हैं।
    इनमें से कुछ लोगों ने हमारे सामने यह सवाल उठाया है कि नक्सलियों ने आज तक कितने पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों नेताओं को मारा है बताओ। हमारा सोचना है कि चाहे ग्रामवासी हों चाहे, गोलबंद नक्सली, पूँजीपति, नेता, अधिकारी या सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस प्रशासन के लोग, किसी को भी किसी का खून बहाने का कोई अधिकार नहीं है। मगर इतिहास बताता है कि सत्ताएँ कभी अपना वर्ग चरित्र नहीं बदलतीं और जन साधारण का शोषण करती रहती हैं इसलिए  व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन का मसला तो हमेशा मौज़ू रहेगा। देश में सही राजनैतिक समझदारी के साथ एक सामाजिक राजनैतिक पुनर्जागरण आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है ताकि आज़ादी के जो सपने पूरे नहीं हो सके हैं उन्हें पूरा करने की दिशा में सत्ता शासन-प्रशासन की मशीनरी को मजबूर किया जा सके। दुर्भाग्य की बात है कि वह बुद्धिजीवी वर्ग जिसे पढ़ने लिखने का सौभाग्य मिला, जिसने पढ़-लिखकर परिस्थितियों को और भी बारीकी से समझने की क्षमता हासिल की है वह समाज के गरीब, शोषित पीड़ित तबके के सवालों से जूझने की बजाय अपने ज्ञान को संसाधनों की लूट का लाभ उठाने में ही झोक देता है। देश के संसाधनों पर देश के हर व्यक्ति का हक होना चाहिए चाहे वह गरीब हो या अमीर, इस बात को एक अनपढ़ व्यक्ति से बेहतर पढ़ा-लिखा व्यक्ति समझ सकता है। मगर पढ़े लिखे लोगों में इस नैसर्गिक न्याय के प्रति संवेदनशीलता का अंश मात्र भी इन दिनों नहीं दिखाई दे रहा है।
    हमने उन दलाल मानसिकता के लोगों की बात की है जो किसी भी तरह के संघर्ष करने वालों को अतिवादी कहते हैं, अँग्रेज़ों के ज़माने में भगतसिंह को भी यह सुनना पड़ा और सुभाष बोस को भी। आज भी चारों ओर ज़मीनी संघर्ष चलाने वालों को यह सुनना पड़ता है। एक बच्चे ने हमें सलाह दी है कि हम भगतसिंह का नाम नक्सलवादियों के साथ ना जोड़े, जो कि हमने जोड़ने का बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया है। लेकिन  यह इशारा जरूर करने का प्रयास किया है कि मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में जनता के संघर्षो के प्रति असंवेदनशीलता वैसी ही है जैसी अंग्रेज़ों के ज़माने में हुआ करती थी। नक्सलियों की लड़ाई का तौर तरीका गलत हो सकता है मगर वे जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहें है देशवासियों को चाहिए कि वे उन्हें समझने की कोशिश करें। आखिरकार कोई भगतसिंह से नफरत नहीं करता भले ही उनके दर्शन को पसंद करे ना करे।  नक्सलवादी आन्दोलन दिशाहीन और मार्क्सवादी विज्ञान व क्रांति की राह से पूरी तौर पर भटका हुआ होने के बावजूद भी आखिरकार संग्राम तो है। हज़ारों नौजवान युवक-युवतियों ने इसमें अपने प्राण गंवाएं हैं और गंवाते चले जा रहे हैं। जब हम उन पचहत्तर पुलिस वालों की मौत पर मातम मनाते हैं तो क्या यह भी जरूरी नहीं कि हमारे ही देश के नागरिक होने के नाते उन नक्सलियों के दुख-तकलीफ को भी करीब से जानने का प्रयास किया जाए जिनके प्रति हमारा नज़रिया अंततः पूँजीपति वर्ग का तैयार किया हुआ नज़रिया है। आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे। 
    अंत में भगतसिंह का एक कोटेशन याद करने की बेहद जरूरत महसूस हो रही है ताकि मूल बात को कुछ गहराई से समझा जा सके। भगतसिंह ने कहा था कि -‘‘भारतीय मुक्ति संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम को शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे ब्रिटिश हों या भारतीय।’’

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!

    जबसे दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला करके अपनी ताकत का एहसास कराया है तब से तमाम मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में नक्सलवादियों के खिलाफ अनोखा आक्रोश फूटा पड़ रहा है। यह कर डालों, वह कर डालों, ईंट से ईट बजा दो, नेस्तोनाबूद कर डालों ऐसे कई एक जुमले प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीड़िया में रोज़ाना सुनाई दे रहे हैं। नपूंसकों से इससे ज़्यादा की उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती। समाज के वास्तविक ताने-बाने के प्रति सूरदासी भाव बनाए रखकर, कूलर ए.सी. की ठंडक में घर-दफ्तर में बैठकर सुविधाभोग करते हुए किसी के भी खिलाफ कागज़ काले करने और स्टूडियों में बकवास करने के धंधे से अच्छा तो दूसरा कोई धंधा होता ही नहीं। सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन शूरवीरों की कलम या ज़बान से देश के दयनीय सामाजिक हालातों पर कभी कोई बात नहीं निकलती। दरअसल ये सामाजिक दुर्व्यस्था का लाभ उठा रहे उन्हीं दलालों की परम्परा के वाहक दलाल हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा के प्रतिनिधियों को भी उन दिनों अपनी दलाल मानसिकता से कोस कोस कर अंग्रेज प्रभु को खुश करने का पराक्रम किया था। भगतसिंह को आतंकवादी इन्होंने ही कहा था और उनकी फांसी का मूक समर्थन भी इन्होंने ही किया था।  
    नक्सलियों की अव्यावहारिक राजनीति के विरोध का अधिकार सुरक्षित रखते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि नक्सल समस्या, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों भारतीय पूंजीवाद को सत्ता के हस्तांतरण के कारण, आज़ादी के बाद आम जनसाधारण मजदूर वर्ग का सपना पूरा ना होने की हताशा से उपजी समस्या है। इसको इस तरह कब तक हम पूँजीवादी व्यवस्था की एकमात्र आँख से देखते रहेंगे! क्या आज़ादी के बासठ साल बाद भी हम हमारे देश की गरीब आम जनता, मजदूर, किसानों के प्रश्नों के बारे में गंभीरता से सोचने का नैतिक कर्तव्य निभाना नहीं चाहते। समस्या को अगर इंसानियत के नाते से देखने का प्रयास किया जाएगा तो, अपना घर-बार सुख-सुविधा छोड़कर वर्षो से दर-दर भटक रहे इन बागियों के प्रति अपने आप सहानुभूति उभरने लगेगी। यह बात अलग है कि नक्सलियों की राजनैतिक समझ और चुने गए रास्ते को लेकर मतभेद हों मगर यह तय है कि किसी भी हालत में विघटनकारी आतंकवादियों और नक्सलवादियों को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता, हालाँकि हत्याएँ दोनों कर रहे हैं। आखिर कब तक हम हाशिए पर पड़ी देश की बहुसंख्य गरीब आबादी के हितों को अनदेखा करके विकास की बातें करते रहेंगे ? किसी का तर्क हो सकता है कि -जब तक नक्सली हथियार नहीं डालते तब तक उनके साथ सहानुभूति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता !!!! तो हमारा प्रतिप्रश्न है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ?
    यह कहना बेहद आसान है कि नक्सली जघन्य हत्यारे हैं, खूनी हैं, क़ातिल हैं, जनविरोधी है, जनतंत्र विरोधी हैं, राष्ट्रद्रोही हैं, मगर जब किसी की जान पर ही बन आई हो तो यह कुतर्क भी किया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में तो भारतीय कानून भी आत्मरक्षा में हथियार उठाने की इजाज़त देता है। क्या इस कुतर्क के साथ यह तर्क जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण अंचलों में विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में शोषण, दमन, उत्पीड़न, सभ्य समाज की निर्दयी लूट-खसोट, व्यभिचार, इस कदर व्याप्त है कि वहाँ के लोगों के सामने मरता क्या करता की स्थिति है। गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, तो है ही शिक्षा, इलाज की मामूली व्यवस्थाएँ तक नहीं है, आधुनिक सुख-सुविधाएँ जो दो-चार प्रतिशत शहरी लोगों द्वारा भोगी जा रही हैं, वह तो बहुत दूर की बात है। बस मौत एक सच्चाई है, किसी ना किसी रूप में आनी ही है, चाहे भूख के रास्ते आए, चाहे प्यास के रास्ते, चाहे बीमारी के रास्ते, चाहे ज़िल्लत उठाकर रोज़-रोज मरें, चाहे पुलिस की गोली से एक बार ही में मौत आ जाए़, मरना तो तय है। तब अगर कोई इन्सान मजबूर होकर यह सोचता हैं कि नक्सली बनकर मरने में क्या बुराई है, तो इसमें उसका क्या कुसूर है। इस चिन्तन को उसके भीतर रोपने की वस्तुस्थिति तो इस व्यवस्था नहीं ही पैदा की है।
    आम जनसाधारण की आंकाक्षाओं पर सौ प्रतिशत् खोटा उतरने वाली इस व्यवस्था के लिए चिंतन का यह एक बेहद महत्वपूर्ण और बड़ा प्रश्न है और इस पर सोचना उनके लिए बेहद जरूरी है कि यदि अवाम में मौत को गले लगाने का जज़्बा पैदा हो गया, जैसा कि नक्सलवादियों में है, और हर इन्सान अपनी कुरबानी की तैयारी के साथ अगर अपने ऊपर हो रहे जुर्म-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए उठ खड़ा हो गया तो शायद उनके तोपखानों में इतना गोलाबारूद भी नहीं होगा जो देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी को नष्ट कर सके, क्योंकि आखिरकार यह प्रश्न देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी के हितों से जुड़े हुए प्रश्न हैं।इससे आंख मूँदकर नहीं चला जा सकता।
    बुद्धिजीवियों में इस मुद्दे पर हो रही अजीबोगरीब प्रतिक्रियाएँ देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई सांड लाल रंग को देखकर भड़क रहा हो। चिंता का विषय है कि आखिरकार मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!
              

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नक्सलवाद-खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है

देश में पूँजीवादी शोषण, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, धर्माध साम्प्रदायिकता, जातिवाद, गरीबी, बेरोजगारी और इससे उपजी अनैतिकता, लोभ-स्वार्थ जनित असामाजिक गतिविधियाँ, और भी ऐसे कई मुद्दों को दरकिनार करते हुए अभी कल ही चिदम्बरम ने नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया था कि आज छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने अब तक की सबसे बड़ी कार्यवाही को अंजाम देते हुए ‘पूँजीवादी स्टेट मशीनरी’ को भारी क्षति पहुँचाई है। देखा जाए तो देश में बदहाली की जिम्मेदार ‘स्टेट मशीनरी’ की रक्षा में लगे लाखों भारतीयों के मुकाबले महज़ पचहत्तर नौजवानों का क़त्लेआम संख्या के लिहाज़ से कोई खास मायने नहीं रखता लेकिन इस घटना का निहितार्थ बहुत गहरा है।
अभी कुछ ही महीनों पहले मध्यप्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री को उनके चुनाव क्षेत्र से टेलीफोन पर नक्सलियों के नाम से धमकी सी दी गई थी। मामला चूँकि मंत्री महोदय का था तो पुलिस ने अतिरिक्त तत्परता बरतते हुए धमकी देने वाले उन दो तथाकथित नक्सलियों को ढूँढ निकाला जो कि अपनी किसी व्यक्तिगत परेशानी में मुब्तिला, मंत्री महोदय के चुनाव क्षेत्र के अत्यंत दूरदराज के किसी गाँव के बच्चे निकले। बात आई-गई हो गई लेकिन इस घटना से यह खुलासा होता है कि सभी तरह के प्रतिबंधों के बावजूद भी नक्सल आन्दोलन मानसिक धरातल पर देश के कोने-कोने में जनमानस के बीच जा पहुँचा है। नक्सल आंदोलन का इतिहास, ध्येय, सोच-विचार, सिद्धांत, आदि-आदि कुछ भी पता ना होने के बावजूद, अन्याय के विरुद्ध एक उचित रास्ते के रूप नक्सलवाद जन-साधारण की चेतना में घर करता जा रहा है।
पूँजीवादी राज्य के लिए इससे बड़ी खतरे की घंटी दूसरी नहीं हो सकती। लेकिन सबसे दयनीय बात यह है कि सरकारें इससे निपटने के लिए ताकत के इस्तेमाल के अलावा दूसरा कोई विचार मन में नहीं लाना चाहती। आज सेना को छोड़कर, पुलिस-प्रशासन और जो कोई भी उपलब्ध पेरा मिलिट्री फोर्सेस हैं उनकी ताकत को नक्सलियों के खिलाफ इस्तेमाल कर स्टेट मशीनरी इस लघु गृहयुद्ध को जीतना चाहती हैं जो कि आयतन के रूप में लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हो सकता है कल जब आस-पड़ोस के दुश्मनों से भी ज़्यादा बड़े ये दुश्मन हो जाएँ तो जल-थल-वायुसेना को भी अपने ही इन भारतीय भाइयों का खून बहाने के लिए तैनात कर दिया जाय। इसका अंतिम नतीजा जो हो सकता है वह यह कि देश के कोने-कोने नक्सल नाम का हर प्राणी ज़मीदोज़ कर दिया जाए, मगर चेतना में जो नक्सलवाद बैठा हुआ है उसका क्या होगा इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी सरकार को नहीं है। देर-सबेर चेतना में बैठा नक्सलवाद फिर संगठित होकर सामने आएगा ही।
हम कई बार कई लोगों के मुँह से नक्सलियों की प्रशंसा सुनते रहते है, छोटे-मोटे अन्याय से परेशान होकर लोग सीधे नक्सली बनने की बातें करने लगते हैं। इससे बड़ी असफलता भारतीय राज्य की और कुछ नहीं हो सकती कि जिन लोगों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया जा रहा है उन्हें आम जनसाधारण की बीच में सहानुभूति हासिल है। कल को जब नक्सल साहित्य के ज़रिए, जो अब तक पाबंदी के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के बीच पहुँचा नहीं है, नक्सलियों की राजनैतिक विचारधारा का व्यापक प्रचार होगा तब स्थितियाँ और भी अलग होंगी।
पूँजीवादी स्टेट मशीनरी के लिए अब भी समय है कि वह अपने भी सुधार लाए। विगत बासठ वर्षों में देश की आम जनता के साथ हुए अन्याय का वास्तविक विष्लेषण किया जाए और जनविरोधी शासन-प्रशासन को अधिक प्रजातांत्रिक, जनवादी बनाया जाए। पूँजीवादी हितों को ताक पर रखते हुए रोटी, कपड़ा, मकान की आधारभूत ज़रूरतों की पूर्ति की जाए, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय को सुलभ बनाया जाए। समाज में स्वार्थ सिद्धी और नैतिक पतन की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँ। पूँजी का सैलाब जो आम जनसाधारण, व्यापक समाज के स्थान पर चंद पूँजीपतियों की तिज़ोरी की ओर बह रहा है, उसे रोका जाए।
कुल जमा बात यह है कि चाहे नक्सली हों या पेरा मिलिट्री फोर्सेस, दोनों ही पहले इस देश की आम जनता हैं। खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है। इसलिए सरकारों को जाहिए कि अब वे पूँजीवाद और ग्लोबजाइजेशन के अंधड़ में खो गए परोपकारी राज्य की ओर वापस लौटने के बारे में गंभीरता से सोचें अन्यथा खून की नदियाँ बहने से नहीं रोकी जा सकेंगी।          

मंगलवार, 30 मार्च 2010

हवा में उड़ने वाले वानर देवता का जन्मदिन-अंध विश्वास इसी को कहते हैं

    आज हनुमान जयंती है। हनुमान जी एक ऐसे वानर देवता के रूप में जाने जाते हैं जो ना केवल हवा में उड़ लेते हैं बल्कि एक समूचा पहाड़ भी अपनी हथेली पर साध लेते हैं। वे ना केवल मनुष्यों की तरह बोलते हैं बल्कि गुस्से में आकर सूर्य नारायण तक को निगल लेते हैं। और भी ना जाने क्या क्या!
    असंभव कारनामों की ऐसी अनेक कथाओं की पृष्ठभूमि में जो महज़ कल्पनाओं के सहारे खड़े किये गए एक चरित्र का द्योतक है, हनुमान जी के प्रति अंध श्रद्धा-भक्ति का हमारे देश में चलन बहुत पुराना है, विज्ञान का यहाँ कोई काम ना तो पहले था और ना अब है। अब तो सारे तर्क ताक पर रखकर युवाओं में हनुमान जी की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है इससे आधुनिक शिक्षा में पनपे वैचारिक खोखलेपन का भी पर्दाफाश होता है।
    वानर, मानवों का पुरखा होने के बावजूद मानवों की तरह का सामाजिक रूप से उन्नत प्राणी नहीं हो सकता। मानव समाज में घुल-मिलकर कुछ आदतें ज़रूर सीख सकता है परन्तु मनुष्यों की तरह बातें नहीं कर सकता। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को मात देकर मात्र इच्छाशक्ति से उड़ने की क्षमता तो अब तक पृथ्वी के सबसे उन्नत जीव ‘मनुष्य’ तक में पैदा नहीं हुई है, तब एक वानर में यह शक्ति कैसे पैदा हो सकती है। इतनी तरक्की के बावजूद दुनिया में ऐसी कोई मशीन नहीं बनी है जो एक समूचे पहाड़ को उठाकर जस का तस दूसरे स्थान पर पहुँचा दे, तब कोई सीमित शक्ति वाला वानर कैसे यह काम कर सकता है।
    फिर, सूर्य को निगलना..............!!!!! पृथ्वी से कुई गुणा बड़ी एक ठोस संरचना को निगलना, जिसका ताप करोड़ों किलोमीटर दूर पृथ्वी पर 40-50 डिग्री तक पहुँचने के साथ ही साथ मनुष्यों और समस्त प्राणियों को हैरान परेशान कर देता है, दुनिया भर के वैज्ञानिक जिसके करीब तक पहुँचाने लायक धातु का विकास अभी तक नहीं कर पाए हैं, ऐसे भस्म कर देने वाले अग्नि पिंड को लड्डू की तरह निगल लिया जाना असंभव ही नहीं कल्पनातीत है। मगर यह भारत भूमि है......... यहाँ देवता प्राकृतिक नियम कायदों, सत्यों से ऊपर उठकर अतिप्राकृतिक शक्तियों के मालिक हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। भारतीयों से यह अपेक्षित है कि वे श्रद्धा, आस्था के बीच में वैज्ञानिक तथ्यों को बिल्कुल भी ना लाएँ।
    वैज्ञानिक विकास के अभाव में प्रकृति की अबूझ पहेलियों से उलझे तत्कालीन मनुष्यों ने हज़ारों साल पहले, अपनी अनोखी कल्पनाओं के आधार पर जो काव्य, कथाएँ सृजित की थीं, उन्हें एक युग विशेष का साहित्य ना मानकर ईश्वरीय शक्ति के चमत्कार के रूप में जीवन भर अपने सीने से लगाए रखना, अंध-श्रद्धा अंध-भक्ति अंध-विश्वास इसी को तो कहते हैं।   

रविवार, 28 मार्च 2010

बलात्कार.........बलात्कार..............बलात्कार


भोपाल में पाँच साल की बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसका कत्ल। दिन पर दिन बढ़ती जा रही इस दरिंदगी पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को तुरंत आगे आकर इसके विरुद्ध कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। ब्लॉग जगत, पत्र-पत्रिकाओं, मीड़िया, और विभिन्न सामाजिक मंचों को अपने अपने स्तर पर और सामूहिक रूप से इस मसले पर गहन विचार विमर्श कर स्वयं भी जनचेतना जागृत करने के लिए सड़क पर आना चाहिए और सरकार,प्रशासन और विभिन्न सामाजिक संस्थानों को भी इस मामले पर परिणामकारक कार्यवाही करने, समाज में नैतिकता के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए आवश्यक योजना तैयार करने के लिए मजबूर करना चाहिए।


इसी मसले पर नवम्बर में दृष्टिकोण में जारी एक लेख का लिंक नीचे दिया जा रहा है कृपया इसे अवश्य पढ़े/पढ़ाएँ और अपने बहुमूल्य सुझाव भी अंकित करें।
 
नैतिक पतन और कला -संस्कृति-साहित्य की जिम्मेदारियाँ

मंगलवार, 23 मार्च 2010

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-3)-एक इंकलाब की भारी ज़रूरत है।

भाग-१ के लिए यहाँ क्लिक करें।
भाग-२ के लिए यहाँ क्लिक करें।
क्या इसी हिन्दुस्तान का चित्र आँखों में लिए हुए भगतसिंह फाँसी पर चढे थे? क्या उनकी कल्पना का हिन्दुस्तान ऐसा ही था? नहीं, बात ऐसी नहीं, भगतसिंह तो बहुत दूर की बात, हिन्दुस्तानी आज़ादी आन्दोलन में अपनी जान की कुरबानी देने वाले किसी भी क्रांतिकारी का सपना हरगिज़ ऐसा नहीं रहा होगा। बल्कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो लोग थे उन्होंने भी कभी भारतीय समाज का यह घिनौना सपना कभी नहीं देखा होगा। भगतसिंह का सपना था-‘‘अन्त में समाज की एक ऐसी व्यवस्था जिसमें किसी प्रकार के हड़कम्प का भय ना हो, और जिसमें मजदूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए, और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूँजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्धार कर सकें।’’(भगतसिंह)। उनका सपना इस उद्धरण में झलकता है कि -‘‘ क्रांति, पूँजीवाद और वर्गभेदों तथा विशेष सुविधाओं की मौत की घंटी बजा देगी। आज विदेशी और भारतीय शोषण के क्रूर जुए के नीचे कराहते पसीना बहाते तथा भूखों मरते हुए करोड़ों लोगों के लिए वह हर्ष और सम्पन्नता लाएगी। वह देश को उसके पैरों पर खड़ा कर देगी। वह एक नई राज्य व्यवस्था को जन्म देगी। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मज़दूर वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित कर देगी और समाज की जोकों को राजनीतिक शक्ति के आसन से सदा के लिए च्युत कर देगी।’’(भगतसिंह)

ये शब्द हैं उस 23 साल के नौजवान के, कितने शक्तिशाली, कितने वज़नदार कितने साफ साफ......... और आज अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाली, तथाकथित नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ संसद के अन्दर बैठकर जनता के हितों को ताक पर रख वोटों की राजनीति कीचड़ में लिप्त होकर सौदेबाज़ी में मशगूल हैं। इतना ही नहीं आज ये सभी वामपंथी पार्टियाँ खुलेआम पूँजीपति वर्ग की दलाली पर उतर आई हैं।

बहरहाल, फांसी से पहले भगतसिंह ने कहा था-‘‘ मेरी शहादत हिन्दुस्तानी नौजवानों के भीतर आज़ादी की लौ जलाएगी..........।’’(भगतसिंह) आज के नौजवानों को देखकर लगता है कि कभी इन लोगों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के इन महान नौजवानों खुदीराम, भगतसिंह, सुभाष बोस, इनसे कुछ भी सीखने का ज़रा भी प्रयास किया है ? जिस देश के ये ओजस्वी नौजवान कभी पूरी दुनिया में हिन्दुस्तानी युवा वर्ग के प्रतीक हुआ करते थे, आज उस हिन्दुस्तान के नौजवान वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों, शोषण शासन के दुष्चक्र से बिल्कुल बेखबर घोर गैर जिम्मेदाराना तरीके से जीवन यापन किये चले जा रहे हैं। समाज के दुख दर्दों से उन्हें कुछ लेना देना नहीं , महान आदर्शो से उन्हें कोई मतलब नहीं। कुछ घोर असामाजिक हो गए हैं, कुछ कैरियरिस्टिक हो गए हैं, कुछ कुंठित होकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं, कुछ ड्रग्स और नशीले पदार्थों के सेवन में अपनी जिन्दगी तबाह कर हरे हैं.......... न उन्हें भगतसिंह याद है ना भगतसिंह की यह बात -‘‘ जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर अपने हाथों में लेनी है उन्हें अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इसका जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। हम मानते हैं कि विद्यार्थी का मुख्य काम शिक्षा प्राप्त करना है उसे अपना सारा ध्यान इसी तरफ लगाना चाहिए लेकिन क्या देश के हालातों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना क्या विद्या में शामिल नहीं है ? अगर नहीं तो हम ऐसी विद्या को निरर्थक समझते हैं जो केवल क्लर्की के लिए ली जाए........।’’(भगतसिंह)

आज फिर भगतसिंह के इस आव्हान को याद करने की जरूरत है कि -‘‘ एक इंकलाब की भारी ज़रूरत है। वे पढ़े ज़रूर पढ़े। साथ ही राजनीति का ज्ञान भी हासिल करें और जब जरूरत हो मैदान में कूद पड़ें और ज़िन्दगियाँ इसी काम में लगा दें। अपनी जान इसी काम में दान कर दें। अन्यथा बचने का और कोई उपाय नज़र नहीं आता।’’(भगतसिंह)

आज फिर वह जरूरत आ पड़ी है, राजनीति में कूद पड़ने की ज़रूरत....... मगर राजनीति ऊँचे आदर्शों वाली अर्थात वर्तमान जर्जर समाज व्यवस्था को उखाड़ फेंककर नई समाज व्यवस्था कायम करने के संघर्ष की राजनीति, अर्थात क्रांतिकारी राजनीति ना कि घटिया संसदीय चुनावी राजनीति।

‍‍-समाप्त-

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-2)-जिसके लिए असंख्य कुरबानियाँ दी गई वह आज़ादी कैसी है.........

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यह बात आज सच साबित हो रही है । आज के हिन्दुस्तान की सामाजिक परिस्थिति देखने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 1 अरब से भी ज़्यादा आबादी में 95 प्रतिशत जनता बुरी तरह से 5 प्रतिशत शोषकों की शोषण की चक्की में पिस रहे हैं। चाहे कोई पढ़ा लिखा हो चाहे अनपढ़ औद्योगिक मजदूर हो चाहे सड़क पर देहाड़ी करने वाला मज़दूर, चाहे वह कृषि मज़दूर हो या छोटा किसान, चाहे वह सरकारी कर्मचारी हो या गैरसरकारी, स्त्री हो, पुरुष हो, छात्र हो, नौजवान हो या बच्चा, यहाँ तक कि किसी माँ के पेट में पलता हुआ अपरिपक्व भ्रूण........ इस हिन्दुस्तान के अन्दर हर एक व्यक्ति बुरी तरह से पूँजीवादी शोषण का शिकार है। हर एक के एकदम बुनियादी अधिकारों के ऊपर शोषक वर्ग ने नाना तरीके से आक्रमण कर उसे वंचित कर रखा हुआ है। जहाँ दिन पर दिन गरीबी की रेखा के नीचे जनता का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है, बेरोज़गारी का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है, महँगाई बढ़ती ही जा रही है। सभी को शिक्षा की कोई व्यवस्था पहले ही नहीं थी, अब शिक्षा के निजीकरण के ज़रिए आम जनता के शिक्षा के अधिकार को संकुचित कर दिया जा रहा है। गरीबों के लिए चिकित्सा की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं, जहाँ विश्व भर में साइंस और टेक्नालॉजी उन्नत से उन्नत होती चली जा रही है, हिन्दुस्तान में मामूली सी बीमारी से आदमी मर जाता है। भीषण कुपोषण जिसके चलते जन्म दर कम होती चली जा रही है, मृत्युदर बढ़ती चली जा रही है।

लगातार लिए जा रहे कर्ज़ों का बोझ जनता के कंधों पर अनिवार्य जुए की तरह लदा हुआ है। बाहर से पैसा आता है विकास योजनाओं के लिए और तिजोरियाँ भरती चली जाती है हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग की। इस बात से आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिन टाटा-बिड़ला की संपति आज़ादी के पहले मात्र कुछ करोड़ थी और अम्बानी जैसे पूँजीपति परिदृष्य में ही नहीं थे वहाँ आज कोई चार-पाँच सौ घराने देश की अकूत सम्पदा का उपभोग कर रहे हैं। जिस पूँजी को देश के औद्योगिक विकास में लगना चाहिए, जिस पूँजी को देश के कृषि के आधुनिकीकरण में लगना चाहिए, जिस पूँजी को देश के भीतर फिजूल नष्ट हो रही श्रम शक्ति के उपयोग और आम जनता के रोज़गार की व्यवस्था के लिए लगना चाहिए, वह मात्र कुछ घरानों की तिजोरी में कैद पड़ी हुई है, बल्कि भारतीय आम जनता का पर्याप्त शोषण करने के बाद अब वह देश की सीमाएँ लाँधकर दूसरे देशों की जनता के श्रम का शोषण करने भी पहुँच गई है। मतलब जो काम ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने यहाँ भारत में आकर किया, वही भारतीय पूँजीपति भी कर रहे हैं, यानी भारतीय पूँजीपति वर्ग भी साम्राज्यवाद का चरित्र अख्तियार कर चुका है..........।

सम्पूर्ण देश में नौकरशाही, हाथी के रूप में पाल छोड़ी गई है जो कि हिंसक एवं आदमखोर हो चुकी है। जाने कितने सारे आर्थिक घोटाले देश की जनता की कीमत पर खुले आम हो रहे हैं। लगातार नये नये टेक्सों को जबरदस्ती जनता के ऊपर लादकर दिन पर दिन उसकी कमर तोड़ी जा रही है। वहीं दूसरी ओर सरकारें दिन पर दिन नए नए कानून अध्यादेश लागू कर देश की आम जनता की बुनियादी अधिकारों को भी छीने ले रही है, जिसमें से हर एक अधिकार मेहनतकश जनता ने काफी संघर्ष के बाद हासिल किया है।

देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद की लहर व्याप्त है। जातीयता, प्रांतीयता, भाषा के झगड़े आदि आम बात हो गए हैं। साम्प्रदायिक संगठन हज़ारों की तादात में युवकों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। और यह सब कुछ हो रहा है महज वोटों की राजनीति के चलते जिस राजनीति का काम है कि पूँजीपतियों के इस या उस खेमें के स्वार्थ की रक्षा करना, आम जनता के शोषण के लिए इस या उस घराने के लिए यथा सम्भव रास्ते खोलना।

निरन्तर भाग-३, दोपहर २ बजे।

शहीदे आज़म भगतसिंह की याद में (भाग-1)-ये आज़ादी-ब्रिटिश साम्राज्यवाद और हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग के साथ महज़ एक समझौता।

फिर वह काला दिन आ गया है जिस दिन हिन्दुस्तानी आज़ादी आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा के प्रमुख प्रतिनिधि योद्धा शहीदेआज़म भगतसिंह को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के क्रूर पंजों ने हमसे छीन लिया था। यूँ तो ब्रिटिश शोषण-शासन के शिकार हिन्दुस्तान के हज़ारों नौजवान देशप्रेमी हुए थे, परन्तु उन सबमें से भगतसिंह ही ऐसे नौजवान रहे जो आज इतने साल बाद भी अपनी शहादत के लिए शिद्दत से याद किए जाते हैं, और बहुत साफ है कि इसका प्रमुख कारण वह विचारधारा, वह आदर्श है जिसको अपने मजबूत नैतिकता-बोध की वजह से एक मात्र सही विचारधारा मानने हुए बेहद कच्ची उम्र में ही भगत सिंह ने स्वाभाविक रूप से अपना लिया था, जबकि वे जानते थे कि उस वक्त की खास राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में वह विचारधारा अपनाने का मतलब सर पर कफन बांधे चलना और अपने प्राण तक गँवाना था।

उस वक्त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक रूप से पूंजीवादी, साम्राज्यवादी देशों की स्थिति बहुत ही खराब थी। पूरा पूँजीवादी साम्राज्यवादी तबका सोवियत रूस की सर्वहारा क्रांति के असर से आतंकित था। कई छोटे मोटे देशों में धड़ाधड़ क्रांतियाँ हो रही थीं। एक साम्राज्यवादी ताकत होने के कारण ब्रिटिश सरकार की स्थिति भी इसी वजह से उन दिनों बहुत नाज़ुक हो गई थी। इस स्थिति में 18-20 साल की उम्र के नौजवान भगतसिंह, शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति के एक मात्र विज्ञान ‘मार्क्सवाद’ को अपना आदर्श मानकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को सर्वहारा क्रांति की दिशा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि ‘‘महान आदर्श के मूर्त रूप होने का स्वप्न संजोने वाले सभी तरुणों को जेल में डालकर भी क्रांति के बढ़ते हुए कदमों को नहीं रोका जा सकता।’’(भगतसिंह)

दूसरे देशों की क्रांतियों से उनका यह विश्वास और भी ज़्यादा दृढ हुआ था -‘‘ फ्रांस के क्रूरतम कानून और बड़ी बड़ी जेलें भी क्रांतिकारी आन्दोलन को दबा नहीं सकीं। मृत्युदंड के वीभत्स तरीके और साइबेरिया की खदानें भी रूसी क्रांति को रोक नहीं सकीं, तब क्या ये अध्यादेश और सुरक्षा अधिनियम भारत में आज़ादी की लौ बुझा पाएंगे?’’(भगतसिंह)

शोषक वर्ग के प्रति उनका सोचना एकदम स्पष्ट था। वे यह जानते थे कि हिन्दुस्तान से ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना ही हिन्दुस्तानी आम आदमी की मुक्ति के लिए काफी नहीं है। उन्होंने कहा था कि -‘‘भारतीय मुक्ति संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम को शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे ब्रिटिश हों या भारतीय।’’(भगतसिंह)। मतलब वे यह अच्छी तरह जानते थे कि भारत में आम जनता के शोषण में भारतीय पूंजीपति वर्ग भी शामिल है, और गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस जिस तरह की आज़ादी चाहती थी वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद और हिन्दुस्तानी पूँजीपति वर्ग के साथ महज़ एक समझौता साबित होगी, और उससे हिन्दुस्तान की आम जनता, शोषित पीड़ित मजदूर वर्ग की मुक्ति कभी भी नहीं हो सकेगी।

निरन्तर भाग-२, दोपहर १२ बजे।