14 अप्रैल की दृष्टिकोण की पोस्ट ‘‘मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं !’’ कुछ महानुभावों को इस कदर नागवार गुज़री कि उन्होंने हमारे ब्लॉग पर लम्बी लम्बी टिप्पणियों की बौछार के ज़रिए दृष्टिकोण को पूरी तौर पर नक्सल समर्थक घोषित कर दिया। कुछ सज्जन तो इस कदर आहत हुए कि उन्होंने बाकायदा अपने ब्लॉग पर हमारी पोस्ट के खिलाफ पूरी की पूरी पोस्ट लिख मारी ( क्या मैं भी नक्सली बन जाऊँ)। एक महाशय तो पोस्ट लिखने की जल्दबाज़ी में शीर्षक को उलटकर अपनी बौद्धिकता झाड़ने पर उतारू हो गए। उन्होंने लाल रंग को लाल सांड बनाकर एक अच्छी खासी बकवास लिख मारी (नारेबाज़ी से मूल प्रश्न गायब नहीं हो सकते)। कुछ बुद्धिजीवियों ने दृष्टिकोण के मेल पर माँ-बहन के पवित्र श्लोकों से हमारा अभिनन्दन किया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये वही देशभक्त हैं जो अपने अलावा हर एक इन्सान को देशद्रोही मानते हैं।
इस पूरे घटनाक्रम से एक बात जो सामने आई है वह यह कि ब्लॉगजगत में कुछ लोगों का पढ़ने -लिखने और गंभीर चिंतन से कोई ताल्लुक नहीं। ना वे टिप्पणी देने से पहले ब्लॉग पर प्रकाशित मुद्दे को ठीक से पढ़ते हैं और ना ही समझबूझ कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। न इन्हें सामाजिक राजनैतिक इतिहास की कोई वैज्ञानिक समझदारी हैं और ना ही देश की वर्तमान वस्तुस्थिति का इनके पास कोई ठोस विश्लेषण है। अपनी अधकचरी समझ को ही वे अन्तिम समझदारी मानकर इधर-उधर के झंडे उठाए हुए भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं।
बड़ा ताज्जुब होता है कि आज जब देश को आज़ाद हुए बासठ साल हो चुके हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी पूरी प्रगतिशीलता खोकर शुद्ध रूप से पूँजीवादी हथियार के रूप में बेनकाब हो चुकी है इन बेचारों के पास आज भी इस पर भरोसा करने के जायज़ कारण मौजूद हैं। लोकतंत्र की जिस अलोकतांत्रिकता ने देश में अमीर-गरीब की एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी है वह इनमें से किसी को दिखाई नहीं देती। इस विभाजन रेखा के एक तरफ करोड़ों लोग ऐसे है जिन्हें सरकार ही मानती है कि वे बीस रुपए रोज़ की औसत आमदनी पर जिन्दा है और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके कुत्ते बीस हज़ार रुपए रोज़ चट कर जाते हैं। इसी भ्रष्ट लोकतंत्र के आशीर्वाद से गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, कुशासन, शोषण, दमन उत्पीड़न का जो ज़ोरदार तांडव चल रहा है वह इन्हें दिखाई नहीं देता।
ये नक्सलियों को चुनाव के रास्ते शोषितों का कल्याण करने की सलाह दे रहे है, जैसे इन्हें पता ही नहीं कि इस देश में चुनाव किसी तरह से होते हैं। मात्र तीस-चालीस प्रतिशत वोटों में से पाँच-सात प्रतिशत वोटों को घेरकर अल्पमत की सरकारें बनती हैं जो बहुमत पर राज करती हैं, ये लोग इसे लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र के ये चुने हुए नुमाइंदे संसद में बैठकर गरीबों की जगह अमीरों, पूँजीपति धन्नासेठों के लिए नीतियाँ बनाते हैं, इसी को शायद इनकी भाषा में लोकतंत्र कहा जाता है। वामपंथियों ने भी संसद के रास्ते क्रांति के फालतू सपने को संजोकर रखा है जिसका हश्र पूँजीवाद के भरोसेमंद दलाल के रूप में उनके आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में दुनिया देख रही है। जिस संसद ने पूँजीवाद की सेवा के यंत्र के रूप में दुनिया में जन्म लिया हो उससे आम आदमी मजदूर वर्ग की सेवा की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज की तारीख में संसद में कोई भी शक्ति ऐसी नज़र नहीं आती है जो संसद से सही मायने में जनतांत्रिक सरोकारों के नतीजे हासिल करने का संघर्ष कर रही हो।
हमने अपने आलेख में स्पष्ट तौर पर यह संकेत हैं कि हमारा नक्सली विचारधारा और कर्मकांड से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन फिर भी कुछ लोगों द्वारा हमारे ब्लॉग और अन्य ब्लॉगों पर जो हमारी पोस्ट पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए थे, पर दी गई टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि प्रवृत्ति में फासीवादी संस्कृति होने के कारण इन लोगों में दूसरों की बातों को सुनने समझने का ज़रा भी धैर्य बाकी नहीं है। हमने जो मूल मुद्दा उठाने की कोशिश की है उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र आखिरकार देश के ही लोगों के द्वारा पालित-पोषित तंत्र होता है जिसका काम होता है स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के उसूलों पर जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-प्रांत से निरपेक्ष रहकर देशवासियों के हित में नीतियाँ बनाना और कार्यान्वित करना। तंत्र यदि यह काम करने में अक्षम हो जाता है जैसा कि भारत में हो चुका है, तो उसकी खबर देशवासियों को ही लेना पड़ती है। उसमें आ गई विकृतियों को सुधारने के लिए संघर्ष भी देशवासियों को ही करना पड़ता है। दुर्भाग्य से इस देश का किसी ना किसी रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली सभी संसदीय पार्टियाँ जन अपेक्षाओं के अनुसार काम करने की जगह अपने-अपने समर्थक कार्पोरेट घरानों के हित साधने में ही लगी हुईं है। सबसे हैरत की बात सर्वहारा मजदूर-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ भी अपने पूँजीवादी आंकाओं को खुश करने के लिए आम जनता पर गोलियाँ चलाने का इतिहास रचती देखी जाती हैं। ऐसे में देश की गरीब आम जनता की हालत का वास्तविक अन्दाज़ लगा पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। इन्हीं बातों को इंगित करने के लिए हमने प्रतिप्रश्न किया है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के तमाम सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ? इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें भी हथियार उठा लेना चाहिए जिनके सवाल अब तक हल नहीं हुए हैं।
इनमें से कुछ लोगों ने हमारे सामने यह सवाल उठाया है कि नक्सलियों ने आज तक कितने पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों नेताओं को मारा है बताओ। हमारा सोचना है कि चाहे ग्रामवासी हों चाहे, गोलबंद नक्सली, पूँजीपति, नेता, अधिकारी या सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस प्रशासन के लोग, किसी को भी किसी का खून बहाने का कोई अधिकार नहीं है। मगर इतिहास बताता है कि सत्ताएँ कभी अपना वर्ग चरित्र नहीं बदलतीं और जन साधारण का शोषण करती रहती हैं इसलिए व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन का मसला तो हमेशा मौज़ू रहेगा। देश में सही राजनैतिक समझदारी के साथ एक सामाजिक राजनैतिक पुनर्जागरण आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है ताकि आज़ादी के जो सपने पूरे नहीं हो सके हैं उन्हें पूरा करने की दिशा में सत्ता शासन-प्रशासन की मशीनरी को मजबूर किया जा सके। दुर्भाग्य की बात है कि वह बुद्धिजीवी वर्ग जिसे पढ़ने लिखने का सौभाग्य मिला, जिसने पढ़-लिखकर परिस्थितियों को और भी बारीकी से समझने की क्षमता हासिल की है वह समाज के गरीब, शोषित पीड़ित तबके के सवालों से जूझने की बजाय अपने ज्ञान को संसाधनों की लूट का लाभ उठाने में ही झोक देता है। देश के संसाधनों पर देश के हर व्यक्ति का हक होना चाहिए चाहे वह गरीब हो या अमीर, इस बात को एक अनपढ़ व्यक्ति से बेहतर पढ़ा-लिखा व्यक्ति समझ सकता है। मगर पढ़े लिखे लोगों में इस नैसर्गिक न्याय के प्रति संवेदनशीलता का अंश मात्र भी इन दिनों नहीं दिखाई दे रहा है।
हमने उन दलाल मानसिकता के लोगों की बात की है जो किसी भी तरह के संघर्ष करने वालों को अतिवादी कहते हैं, अँग्रेज़ों के ज़माने में भगतसिंह को भी यह सुनना पड़ा और सुभाष बोस को भी। आज भी चारों ओर ज़मीनी संघर्ष चलाने वालों को यह सुनना पड़ता है। एक बच्चे ने हमें सलाह दी है कि हम भगतसिंह का नाम नक्सलवादियों के साथ ना जोड़े, जो कि हमने जोड़ने का बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया है। लेकिन यह इशारा जरूर करने का प्रयास किया है कि मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में जनता के संघर्षो के प्रति असंवेदनशीलता वैसी ही है जैसी अंग्रेज़ों के ज़माने में हुआ करती थी। नक्सलियों की लड़ाई का तौर तरीका गलत हो सकता है मगर वे जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहें है देशवासियों को चाहिए कि वे उन्हें समझने की कोशिश करें। आखिरकार कोई भगतसिंह से नफरत नहीं करता भले ही उनके दर्शन को पसंद करे ना करे। नक्सलवादी आन्दोलन दिशाहीन और मार्क्सवादी विज्ञान व क्रांति की राह से पूरी तौर पर भटका हुआ होने के बावजूद भी आखिरकार संग्राम तो है। हज़ारों नौजवान युवक-युवतियों ने इसमें अपने प्राण गंवाएं हैं और गंवाते चले जा रहे हैं। जब हम उन पचहत्तर पुलिस वालों की मौत पर मातम मनाते हैं तो क्या यह भी जरूरी नहीं कि हमारे ही देश के नागरिक होने के नाते उन नक्सलियों के दुख-तकलीफ को भी करीब से जानने का प्रयास किया जाए जिनके प्रति हमारा नज़रिया अंततः पूँजीपति वर्ग का तैयार किया हुआ नज़रिया है। आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम से एक बात जो सामने आई है वह यह कि ब्लॉगजगत में कुछ लोगों का पढ़ने -लिखने और गंभीर चिंतन से कोई ताल्लुक नहीं। ना वे टिप्पणी देने से पहले ब्लॉग पर प्रकाशित मुद्दे को ठीक से पढ़ते हैं और ना ही समझबूझ कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। न इन्हें सामाजिक राजनैतिक इतिहास की कोई वैज्ञानिक समझदारी हैं और ना ही देश की वर्तमान वस्तुस्थिति का इनके पास कोई ठोस विश्लेषण है। अपनी अधकचरी समझ को ही वे अन्तिम समझदारी मानकर इधर-उधर के झंडे उठाए हुए भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं।
बड़ा ताज्जुब होता है कि आज जब देश को आज़ाद हुए बासठ साल हो चुके हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी पूरी प्रगतिशीलता खोकर शुद्ध रूप से पूँजीवादी हथियार के रूप में बेनकाब हो चुकी है इन बेचारों के पास आज भी इस पर भरोसा करने के जायज़ कारण मौजूद हैं। लोकतंत्र की जिस अलोकतांत्रिकता ने देश में अमीर-गरीब की एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी है वह इनमें से किसी को दिखाई नहीं देती। इस विभाजन रेखा के एक तरफ करोड़ों लोग ऐसे है जिन्हें सरकार ही मानती है कि वे बीस रुपए रोज़ की औसत आमदनी पर जिन्दा है और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके कुत्ते बीस हज़ार रुपए रोज़ चट कर जाते हैं। इसी भ्रष्ट लोकतंत्र के आशीर्वाद से गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, कुशासन, शोषण, दमन उत्पीड़न का जो ज़ोरदार तांडव चल रहा है वह इन्हें दिखाई नहीं देता।
ये नक्सलियों को चुनाव के रास्ते शोषितों का कल्याण करने की सलाह दे रहे है, जैसे इन्हें पता ही नहीं कि इस देश में चुनाव किसी तरह से होते हैं। मात्र तीस-चालीस प्रतिशत वोटों में से पाँच-सात प्रतिशत वोटों को घेरकर अल्पमत की सरकारें बनती हैं जो बहुमत पर राज करती हैं, ये लोग इसे लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र के ये चुने हुए नुमाइंदे संसद में बैठकर गरीबों की जगह अमीरों, पूँजीपति धन्नासेठों के लिए नीतियाँ बनाते हैं, इसी को शायद इनकी भाषा में लोकतंत्र कहा जाता है। वामपंथियों ने भी संसद के रास्ते क्रांति के फालतू सपने को संजोकर रखा है जिसका हश्र पूँजीवाद के भरोसेमंद दलाल के रूप में उनके आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में दुनिया देख रही है। जिस संसद ने पूँजीवाद की सेवा के यंत्र के रूप में दुनिया में जन्म लिया हो उससे आम आदमी मजदूर वर्ग की सेवा की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज की तारीख में संसद में कोई भी शक्ति ऐसी नज़र नहीं आती है जो संसद से सही मायने में जनतांत्रिक सरोकारों के नतीजे हासिल करने का संघर्ष कर रही हो।
हमने अपने आलेख में स्पष्ट तौर पर यह संकेत हैं कि हमारा नक्सली विचारधारा और कर्मकांड से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन फिर भी कुछ लोगों द्वारा हमारे ब्लॉग और अन्य ब्लॉगों पर जो हमारी पोस्ट पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए थे, पर दी गई टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि प्रवृत्ति में फासीवादी संस्कृति होने के कारण इन लोगों में दूसरों की बातों को सुनने समझने का ज़रा भी धैर्य बाकी नहीं है। हमने जो मूल मुद्दा उठाने की कोशिश की है उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र आखिरकार देश के ही लोगों के द्वारा पालित-पोषित तंत्र होता है जिसका काम होता है स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के उसूलों पर जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-प्रांत से निरपेक्ष रहकर देशवासियों के हित में नीतियाँ बनाना और कार्यान्वित करना। तंत्र यदि यह काम करने में अक्षम हो जाता है जैसा कि भारत में हो चुका है, तो उसकी खबर देशवासियों को ही लेना पड़ती है। उसमें आ गई विकृतियों को सुधारने के लिए संघर्ष भी देशवासियों को ही करना पड़ता है। दुर्भाग्य से इस देश का किसी ना किसी रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली सभी संसदीय पार्टियाँ जन अपेक्षाओं के अनुसार काम करने की जगह अपने-अपने समर्थक कार्पोरेट घरानों के हित साधने में ही लगी हुईं है। सबसे हैरत की बात सर्वहारा मजदूर-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ भी अपने पूँजीवादी आंकाओं को खुश करने के लिए आम जनता पर गोलियाँ चलाने का इतिहास रचती देखी जाती हैं। ऐसे में देश की गरीब आम जनता की हालत का वास्तविक अन्दाज़ लगा पाना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। इन्हीं बातों को इंगित करने के लिए हमने प्रतिप्रश्न किया है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के तमाम सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ? इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें भी हथियार उठा लेना चाहिए जिनके सवाल अब तक हल नहीं हुए हैं।
इनमें से कुछ लोगों ने हमारे सामने यह सवाल उठाया है कि नक्सलियों ने आज तक कितने पूँजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों नेताओं को मारा है बताओ। हमारा सोचना है कि चाहे ग्रामवासी हों चाहे, गोलबंद नक्सली, पूँजीपति, नेता, अधिकारी या सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस प्रशासन के लोग, किसी को भी किसी का खून बहाने का कोई अधिकार नहीं है। मगर इतिहास बताता है कि सत्ताएँ कभी अपना वर्ग चरित्र नहीं बदलतीं और जन साधारण का शोषण करती रहती हैं इसलिए व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन का मसला तो हमेशा मौज़ू रहेगा। देश में सही राजनैतिक समझदारी के साथ एक सामाजिक राजनैतिक पुनर्जागरण आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है ताकि आज़ादी के जो सपने पूरे नहीं हो सके हैं उन्हें पूरा करने की दिशा में सत्ता शासन-प्रशासन की मशीनरी को मजबूर किया जा सके। दुर्भाग्य की बात है कि वह बुद्धिजीवी वर्ग जिसे पढ़ने लिखने का सौभाग्य मिला, जिसने पढ़-लिखकर परिस्थितियों को और भी बारीकी से समझने की क्षमता हासिल की है वह समाज के गरीब, शोषित पीड़ित तबके के सवालों से जूझने की बजाय अपने ज्ञान को संसाधनों की लूट का लाभ उठाने में ही झोक देता है। देश के संसाधनों पर देश के हर व्यक्ति का हक होना चाहिए चाहे वह गरीब हो या अमीर, इस बात को एक अनपढ़ व्यक्ति से बेहतर पढ़ा-लिखा व्यक्ति समझ सकता है। मगर पढ़े लिखे लोगों में इस नैसर्गिक न्याय के प्रति संवेदनशीलता का अंश मात्र भी इन दिनों नहीं दिखाई दे रहा है।
हमने उन दलाल मानसिकता के लोगों की बात की है जो किसी भी तरह के संघर्ष करने वालों को अतिवादी कहते हैं, अँग्रेज़ों के ज़माने में भगतसिंह को भी यह सुनना पड़ा और सुभाष बोस को भी। आज भी चारों ओर ज़मीनी संघर्ष चलाने वालों को यह सुनना पड़ता है। एक बच्चे ने हमें सलाह दी है कि हम भगतसिंह का नाम नक्सलवादियों के साथ ना जोड़े, जो कि हमने जोड़ने का बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया है। लेकिन यह इशारा जरूर करने का प्रयास किया है कि मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में जनता के संघर्षो के प्रति असंवेदनशीलता वैसी ही है जैसी अंग्रेज़ों के ज़माने में हुआ करती थी। नक्सलियों की लड़ाई का तौर तरीका गलत हो सकता है मगर वे जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहें है देशवासियों को चाहिए कि वे उन्हें समझने की कोशिश करें। आखिरकार कोई भगतसिंह से नफरत नहीं करता भले ही उनके दर्शन को पसंद करे ना करे। नक्सलवादी आन्दोलन दिशाहीन और मार्क्सवादी विज्ञान व क्रांति की राह से पूरी तौर पर भटका हुआ होने के बावजूद भी आखिरकार संग्राम तो है। हज़ारों नौजवान युवक-युवतियों ने इसमें अपने प्राण गंवाएं हैं और गंवाते चले जा रहे हैं। जब हम उन पचहत्तर पुलिस वालों की मौत पर मातम मनाते हैं तो क्या यह भी जरूरी नहीं कि हमारे ही देश के नागरिक होने के नाते उन नक्सलियों के दुख-तकलीफ को भी करीब से जानने का प्रयास किया जाए जिनके प्रति हमारा नज़रिया अंततः पूँजीपति वर्ग का तैयार किया हुआ नज़रिया है। आखिर कब हम इस देश के एक अभिन्न अंग के रूप में देश के रिसते घावों को महसूस करेंगे।
अंत में भगतसिंह का एक कोटेशन याद करने की बेहद जरूरत महसूस हो रही है ताकि मूल बात को कुछ गहराई से समझा जा सके। भगतसिंह ने कहा था कि -‘‘भारतीय मुक्ति संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक लोग अपने फायदे के लिए आम जनता के श्रम को शोषण करते रहेंगे। शोषक चाहे ब्रिटिश हों या भारतीय।’’
अपशब्दों से घबराएँ नही ..यह यहाँ का पुराना रिवाज है ..लिखते रहें
जवाब देंहटाएंआप ने ही कहा कि मध्यमवर्गीय लोगों में समस्या को समझने का माद्दा नहीं? क्या आपकी दृष्टि में सबसे बड़े खलनायक मध्यमवर्गीय हैं? आपके अनुसार मध्यमवर्ग को देश की समस्याओं की समझ नहीं है, आपके अनुसार लगभग सारा मध्यमवर्ग मलाई खा रहा है, उसके जीवन में कोई संघर्ष नहीं है… इस बात पर लम्बी बहस चलाई जा सकती है, ले्किन वह फ़िर कभी।
जवाब देंहटाएंनक्सल समस्या पर :- जबकि गरीबी है… हम मानते हैं, आदिवासियों का शोषण हुआ है… हम मानते हैं, उन पर प्रशासनिक और राजनैतिक अत्याचार हुआ है… यह भी हम मानते हैं, फ़िर कहाँ असहमति है? आप खुद मान रहे हैं कि नक्सलियों के संघर्ष का रास्ता गलत है, यही हम कह रहे हैं… फ़िर क्या दिक्कत है?
क्या आप चाहते हैं कि हम भी नक्सलियों की कार्रवाईयों का समर्थन करें? या स्कूल-पुल-बिजली टावर उड़ाने, सैनिकों की हत्या का समर्थन करें? बाकी सभी को आप मूर्ख ठहरा चुके हैं, तो निश्चित ही आप विद्वान हैं, तो आप ही कोई रास्ता सुझाईये ना… हमें तो कोई समझ है ही नहीं।
पूंजीवाद,सर्वहारा,अत्याचार,नैसर्गिक न्याय,संघर्ष,सत्ता,दलाल,शोषण.....ये एक ऐसी शब्दावली है जिनके घालमेल से रोजाना हमारे प्रगतिवादी मानसिकता से बोझिल (जिन्हें हर हाल मैं प्रगतिवादी दिखना होता है)लोग एकाध पोस्ट ठेलते रहते हैंं...आपने भी अच्छा पुलाव बनाया है....पर पढकर आपको ही शायद पता लगे की आप नक्सलवाद के विरोध मैं या समर्थन मैं....दलाल,ठेकेदार,भ्रष्ट राजनेता,शोषण,मानवाधिकारों का हनन....धरती के हर छोर पर व्याप्त है....पर हमारे यहां चीन से और रूस से थोङा कम हैं....ये व्यवस्था इसलिए चल रही है कि कुछ अच्छे लोग अभी भी यहां हैं.....रही बात मेरी पोस्ट की तो मैं भी नक्सली क्यों नहीं बन जाऊं पर शायद आप मेरा मार्गदर्शन कर पाते तो मैं अपने आप को धन्य समझता ...
जवाब देंहटाएंसाहसिक विश्लेषण...
जवाब देंहटाएंयह बेबाकी अच्छी लगी....