मंगलवार, 17 मई 2011

नकली कम्युनिस्ट जितनी जल्दी दफन हो जाएँ, भारतीय समाज के लिए अच्छा है।

    ओसामा के खात्में से जैसे आतंकवाद मर नहीं गया है उसी तरह पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों के चुनावी पतन से आम भारतीय समाज और मजदूर वर्ग के लिए ‘कम्युनिस्ट’ नामधारी नकली मार्क्सवादियों (जो सोशल डेमोक्रेट भी कहे जाते हैं) का खतरा टल नहीं गया है। सिर्फ इतना ही हुआ है कि ये सोशल डेमोक्रेट जो कई बार व्यवहार में सीधे-सीधे फासिस्ट भी साबित हो हुए हैं, सत्ता की ताकत के इस्तेमाल से पूँजीवादी स्वार्थों की पूर्ती नहीं कर पाएँगे, ना ही सत्ता के डंडे के माध्यम से अपने फासिस्ट चरित्र गुण-धर्मों का बर्बर प्रदर्शन भी नहीं कर पाएँगे।


    यूँ तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने जन्म से लेकर अब तक अनेक ऐसी त्रृटियाँ की हैं जिनके कारण उसके एक सही क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी न होने बाबत् शक की कोई गुंजाइश ही कभी नहीं रही, परन्तु वैश्विक स्तर पर कम्युनिस्ट सत्ताओं के पतन के बाद से तो इसके चरित्र में और भी खतरनाक परिवर्तन आते देखे गए। इन्होंने खुलकर पूँजीवाद की सेवा में उतर कर भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को पूरी तरह बेच खाया। टाटा की नैनो कार के लिए वाम मोर्चा सरकार ने सिंगुर और नंदीग्राम में जिस तरह से आम जनता, किसानों पर गोली चलाई, जिस तरह से उनके कैडर ने पुलिस बलों के सहयोग से आन्दोलनरत ग्रामवासियों के घरों में धुस-धुसकर हत्याएँ और महिलाओं के साथ बलात्कार किये, वह सब घटनाएँ हरेक के ज़हन में अभी ताज़ा ही हैं। मल्टी नेशनल कम्पनियों का इस देश में सध रहा स्वार्थ किसी से छुपा नहीं है, परन्तु मजदूर आन्दोलन की समझ और अर्थव्यवस्था के ताने-बाने की वैज्ञानिक समझदारी की पृष्ठभूमि में किसी भी सर्वहारा की हितैषी पार्टी को जिस तरह से पेश आना चाहिए था, सी.पी.आई., सी.पी.एम. दोनों ही नकली कम्युनिस्ट पार्टियाँ उस तरह से कभी पेश नहीं आई।


    बाकी सब कुछ यदि छोड़ भी दिया जाए तो एक सर्वहारा की पार्टी से कम से कम क्या उम्मीद की जाना चाहिए, यही न कि वह अपने राज्य में अर्थ व्यवस्था को पूँजीपतियों का गुलाम न रहने दे, एक समाजवादी मॉडल पर उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए कदम उठाए जाएँ, प्रदेश में गरीबी-बेरोजगारी न रहे, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग आम जनता मजदूर वर्ग की बदहाली दूर करने के लिए हो सके न कि पूँजीपतियों की तिजोरी भरने में। शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिससे वैज्ञानिक चिंतन पद्धति से लैस छात्रों-नौजवानों की एक पीढ़ी खड़ी हो और अपने प्रदेश को अवैज्ञानिक चिंतन से मुक्त करें और देश को भी राह दिखाए। महिलाओं की मुक्ति के प्रश्न पर हमें बहुत खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि पश्चिम बंगाल में खासकर कोलकाता और आसपास के इलाके में ‘वैश्यावृति’ जिस तरह से पनप और फल-फूल रही है उससे वामपंथियों की छद्म क्रांतिकारिता का अच्छी तरह से खुलासा होता है। ‘सोनागाछी’ जैसा वैश्यागमन का पारम्परिक अड्डा, जिसे वामपंथियों के सत्ता में आते ही बंद हो जाना चाहिए था और उन हालात की मारी औरतों और लड़कियों के लिए वैकल्पिक रोज़गार की व्यवस्था की जाना चाहिए थी, वह न होकर कोलकाता का यह धब्बा आज भी शान से चल रहा है। जन साधारण में कुसंस्कृति, नैतिक पतन, दुराचार, भ्रष्टाचार और तमाम पूँजीवादी प्रवृत्तियाँ इस कदर घर कर गईं हैं कि जिस बंगाल के बारे में कभी यह कहा जाता था कि - what Bengal thinks today, India thinks tomorrow (बंगाल आज जो सोचता है, कल पूरा भारत सोचता है), वह बंगाल इन नकली कम्युनिस्टों के कारण आज कई दशक पीछे चला गया है और देश को देने के लिए उसके पास पूँजीवादी संस्कृति के अलावा फिलहाल तो कुछ नहीं है। यही वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियाँ अगर वास्तव में सही रास्ते पर चलकर अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर रही होतीं तो सचमुच पूरे देश को इस पूँजीवादी संकट से मुक्ति का रास्ता दिखा पातीं, मगर वह तो खुद पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, केरल के अलावा कहीं अपने पॉव पसार नहीं पाईं। यदि एक वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर संगठन के विकास की चेतना इन कम्युनिस्ट पार्टियों में होती तो इन चौतीस वर्षों में सत्ता के उपयोग से देश का कायापलट किया जा सकता था मगर इसके लिए जिस वर्ग दृष्टिकोण की आवश्यकता है उसका नितांत अभाव इन नकली कम्युनिस्टों में रहा है।
    अब रही बात ऋणमूल कांग्रेस की तथाकथित विजय की। यह तो स्पष्ट ही है कि चूँकि पश्चिम बंगाल में और कोई संसदीय पार्टी इतनी ताकतवर नहीं है जिसका राज्यभिषेक पूँजीपति वर्ग कर पाता, और चूँकि विगत कुछ वर्षों से ममता बैनर्जी जो क्रांग्रेस और दूसरी तरफ वामपंथियों की असफलताओं पर आग तापकर अपना उल्लू सीधा करने में सफल रही है, पूँजीपति वर्ग के लिए रेडीमेड एक मोहरे के रूप में उपलब्ध हो गई हैं, इसलिए इतनी आसानी से वे और उनकी पार्टी राज्य की सत्ता पर काबिज़ हो गई, जिसका अंदाज़ा पूरे देश ने पहले ही लगा रखा था। हालांकि विगत चौतीस सालों से जो कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वनवास काट रही थी वह केन्द्र में सत्तारूढ होने के बावजूद वामपंथियों के खिलाफ चल रही हवा का फायदा नहीं उठा पाई, यह भी एक मार्के की बात है जिसके कई मतलब निकलते हैं।
    बहरहाल, इस परिवर्तन से सिर्फ इतना फर्क हुआ है कि हसिया-हथौड़ा की आड़ में छुपकर पूँजीवाद की सेवा करने वाली पार्टी के स्थान पर सीधे-सीधे पूँजीवादी पार्टी सत्ता में आ गई है, इससे राज्य की हालत में कोई परिवर्तन आएगा इसकी कोई संभावना नहीं है। वही ‘टाटा घराना’ फिर यदि राज्य के किसानों की ज़मीन हड़पने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करेगा तो ममता बैनर्जी उन्हें खुश करने के लिए किसानों पर गोली नहीं चलाएँगी ऐसा लगता नहीं है, क्योंकि राज्य का चरित्र तो वही है, सीट पर चाहे कोई और क्यों न आ जाए।
    एक और बात मार्क्सवाद को गालियाँ देने वालों के लिए। अगर कोई हवाई जहाज़ हवा में उड़ता हुआ गिर पड़ता है तो हम, गुरुत्वाकर्षण और गति के नियम खोजने वाले ‘न्यूटन’ को अथवा हवाई जहाज़ का अविष्कार करने वाले राइट बंधुओं को गाली नहीं देते, गाली देते हैं उस पायलेट को जो हवाई जहाज को ठीक से सम्हाल नहीं पाया। इसी प्रकार भारत में वामपंथियों द्वारा राजनीति की की गई दुर्दशा अथवा विश्व स्तर पर कम्युनिस्ट आंदोलन ध्वस्त होने के कारण हम मार्क्सवाद या उसके जनक और विकासकर्ताओं को गाली नहीं दे सकते। मार्क्सवाद मानवता का दुश्मन नहीं है, बल्कि वह तो एक ऐसा विज्ञान है जो मौजूद समस्त विज्ञानों के समन्वय से मानव समाज के विकास का रास्ता उपलब्ध कराता है। मगर यदि वह गलत हाथों में पड़ जाए जैसा कि वह हमारे देश में सी.पी.आई. सी.पी.एम. और दूसरे तमाम अति वामपंथी कम्युनिस्टों और नक्सली संगठनों के हाथ हुआ है, तो उसकी क्षमता का अन्दाज़ा लगा पाना असंभव है। परिवर्तन इस प्रकृति, मानव समाज एवं विश्वब्रम्हांड का अनिवार्य नियम है, इसे मानव समाज के हित की दिशा में ले जाने का रास्ता बताता है मार्क्सवाद, बस इसे ठीक से समझना और सचेत रूप से लागू करने का श्रम, मनुष्य को करना पड़ता है, तब परिवर्तन होता है, समाज बदलता है। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा सोशल डेमोक्रेटिक ताकतें नकली कम्युनिस्ट जितनी जल्दी दफन हो जाए, भारतीय समाज के लिए अच्छा है।