मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

जब ‘चोरों’ में ही चुनाव की अनिवार्यता हो तो आखिर शत-प्रतिशत मतदान से इस देश का भाग्य कैसे बदलेगा !

गुजरात में चुनाव में मतदान अनिवार्य किया गया है। यह सच है कि मौजूदा सरकारों के नकारा और जनविरोधी रवैये और मतदान में आने वाली कई अड़चनों परेशानियों के कारण कई सारे लोग वोट डालने में रुचि नहीं लेते है और अंततः तीस-चालीस प्रतिशत राजनैतिक रूप से मोटीवेटेड वोटरों के बीच पॉच-दस प्रतिशत वोटो के दम पर सरकारें बन जाती हैं । ये अल्पमत की सरकारें बहुमत पर बेशर्मी से राज करती हैं। हालाँकि यह राजनैतिक पार्टियों के लिए फायदे का सौदा है मगर प्रजातंत्र के लिए एक बेहद निराशाजनक स्थिति, फिर भी सिर्फ इस वजह से हंटर से हाँककर जबदस्ती वोट डलवाने की प्रक्रिया को किसी भी दृष्टि से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। यह सरासर एक नादिरशाही रवैया है।

मतदान को अनिवार्य कर दिये जाने का सीधा मतलब है एक और फासीवादी कानून बनाकर डंडे के दम पर नागनाथ या साँपनाथ को जबरदस्ती चुनवाकर जनता के सिर पर बिठाया जाना। मौजूदा चुनाव प्रक्रिया की यह विडंबना है कि चंद गुंडे-बदमाश, डाकू-लुटेरे, बेईमान-दलाल और भ्रष्ट किस्म के लोग अपने आपको हमारे नेता के रूप में पेश करते हैं और हमें इन असामाजिक तत्वों को चुनने की मजबूरी से दो-चार होना पड़ता है। दिन पर दिन कम होते जा रहे मतदान प्रतिशत् के कारण तंत्र की निगाहें मतदान ना करने वाले मतदाताओ पर तो वक्र हो रही है परन्तु हमारे इन तथाकथित ‘अगुओं’ को जो कि अपनी स्थार्थपरता एवं लोभी प्रवृति के कारण अब बस जूते खाने लायक रह गए हैं, उन्हें सुधारने की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा। इस स्थिति में मतदाता यदि जानबूझकर अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करता है तो कौन सा अपराध करता है। मतदान अनिवार्य किये जाने की वकालत करने वालों को इस बात का भी जवाब देना चाहिये कि जब ‘चोरों’ में ही चुनाव की अनिवार्यता हो तो आखिर शत-प्रतिशत मतदान से इस देश का भाग्य कैसे बदलेगा!

इस मुद्दे को एक दूसरे नज़रिए से भी देखने की आवश्यकता है। सत्ता कब्जाए रखने के लिए अंग्रेजों ने जन्म दी, फूट डालो राज करो की नीति पर कायम रहते हुए पिछले बासठ सालों में आई-गई सभी राजनैतिक पार्टियों की सरकारों द्वारा देश की जनता को जात-पात, धर्म-प्रांत भाषा-सम्प्रदाय के नाम पर लगातार विखंडित किया जाता रहा है। किसी ने सोचा तक न था कि विखंडन का यह सिलसिला बहुत दूर तक जाकर इतनी भयानक व्यक्तिवादी मानसिकता पनपा देगा कि लोग सामाजिक स्वार्थ को भी ताक पर रख देंगे। सत्ता पर काबिज बने रहने के लालच में सत्ताधारी ताकतों द्वारा जाने-अनजाने पूरे देश का जन-मानस कर्तव्य एवं जिम्मेदारी की भावना से दूर कर दिया गया। परिणामस्वरूप, लम्बे सामाजिक संघर्ष के बाद राजनैतिक प्रणाली के तौर पर उपजी चुनावी प्रक्रिया के प्रति देश की अधिकांश जनता गैर जिम्मेदाराना मानसिकता से ग्रसित होती चली गई।
सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों का एक दूसरे से समन्वयविहीन पृथक-पृथक रूप से परिचालित होते रहने की वस्तुगत परिस्थिति, जिसे पूँजीवादी सत्ता ने अपने पक्ष में एकतरफा इस्तेमाल किया, ने भी आम जन-साधारण को सामाजिक चेतना के स्तर पर निष्क्रीय किया है। इसी कारण राजनैतिक स्तर पर जनविरोधी कार्यव्यापार, व्यापक भ्रष्टाचार एवं अनैतिक गतिविधियों के बावजूद आम जन साधारण की ओर से किसी प्रकार की कोई सचेत प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती। इसलिए मतदान अनिवार्य करने जैसी अवधारणा का समर्थन करने की बजाय ज्यादा जरूरी यह लगता है कि सामाजिक राजनैतिक शक्तियाँ एक व्यापक पुनर्जागरण आन्दोलन का सूत्रपात करें जिससे ना केवल चुनाव जैसी सामाजिक गतिविधियों में स्वार्थी एवं भ्रष्ट समाज विरोधी तत्वों को दूर रखा जा सके साथ ही सामाजिक गतिविधियों से दूर हो गये लोगों को सहज स्वयंस्फूर्त तरीके से जिम्मेदारी की भावना के साथ चुनाव को एक अनिवार्य सामाजिक गतिविधि के तौर पर सम्पन्न कराने की भूमिका निभाने का मौका मिल सके।
आम जनसाधारण को भी इस बात को समझना आवश्यक है कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं और यह राजनैतिक तंत्र समाज विरोधी ताकतों द्वारा हथियाकर अपने पक्ष में इस्तेमाल किया जा रहा है । इस स्थिति में हम अपने आप को तटस्थ रखकर, चुनाव प्रक्रिया में भाग ना लेकर, चुनाव का बहिष्कार करके इन समाज विरोधी शक्तियों को ही मजबूत बना रहे हैं। हमें यदि इस चुनाव प्रक्रिया में ही कोई खोट लगता है, जो कि है ही, तो इसे बदलने के लिए सामाजिक रूप से संगठित एवं सक्रिय होने की ऐतिहासिक अनिवार्यता सम्मुख है, इससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। आज की महती आवश्यकता यह है कि चुनाव प्रक्रिया को आमूल-चूल बदल दिया जावे और उन सब खामियों को दूर किया जाए जिससे समाज के वास्तविक सर्वमान्य नेताओं, प्रगतिशील एवं रचनात्मक मानसिकता के लोगों, निस्वार्थ सामाजिक-राजनैतिक शक्तियों का ही चुनाव सुनिश्चित किया जा सके, ताकि विगत 62 वर्षों से कीचड़ में धंसे इस देश को बाहर निकालकर धोया-पोछा जा सकें।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

क्रिसमस प्रसंग-धर्म को कूडे़दान में डाल दो.......


दुनिया भर में धार्मिक कपोल कल्पनाओं का कोई अन्त नहीं है। उन्हीं में से एक है ईसा मसीह का जन्म। आज 25 दिसम्बर को सारी दुनिया के ईसाई लोग मध्ययुग के एक तथाकथित ईश्वर-अवतार ईसा मसीह का जन्मदिन बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं, जिनका जन्म स्त्री-पुरुष के दैहिक संसर्ग, गर्भधारण, प्रसव इत्यादि तमाम अनिवार्यताओं से मुक्त ईश्वर के आशीर्वाद मात्र से हुआ था। कहने की ज़रूरत नहीं कि वर्जिन मेरी की तरह ही आज भी हमारे देश में कई कुँवारी माताएँ (अवैध यौनाचार, बलात्कार इत्यादि की शिकार होकर) नवजात शिशुओं को जन्म देती हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश कचरे के ढेर पर डले मिलते हैं या गला घोटकर नाले में फेंक दिये जाते हैं। आज यदि किसी ऐसे बच्चे को ईश्वर का अवतार प्रचारित किया जाए तो हम में से कोई यह मानने का तैयार नहीं होगा।

आज के इस वैज्ञानिक युग में भी करोड़ों लोग ना केवल ईसामसीह के जन्म से जुड़ी इस झूठी कहानी पर विश्वास करते हैं बल्कि दुनिया के उद्भव के संबंध में बायबल में उल्लेखित भ्रामक और कल्पित अवधारणाओं को, अथक परिश्रम एवं संघर्षों से हासिल की गई वैज्ञानिक उपलब्धियों के ऊपर तरजीह देते हैं। करोड़ों वर्षों की प्रकृति, जीव जगत व मानव समाज की विकास यात्रा के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आई इस दुनिया के निर्माण की, बायबल में उल्लेखित सात दिवसीय कहानी पर आज भी जब दुनिया के कई पढ़-लिखे विद्वानों को विश्वास व्यक्त करते हुए देखा जाता है तो आश्चर्य ही नहीं दया भी आती है।

इस ईसाई धार्मिक अन्धता, जिसका विरोध करते हुए योरोप में वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न कई दार्शनिकों ने अपनी जान गँवाई है, को नज़रअन्दाज करते हुए यदि तत्कालीन परिस्थितियों पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि ईसामसीह एक ऐसे दौर में जननेता के रूप में उभरकर आए व्यक्तित्व थे जब तत्कालीन मध्ययुगीन कबीलाई समाज बेहद अराजक ढंग से जीवनयापन करता था, और बहुईश्वरवाद से ग्रस्त एक दूसरे के खून का प्यासा हुआ करता था। ईसा मसीह ने एकेश्वरवाद के विचार को इन अराजक लोगों में रोपते हुए तमाम कबीलों को एकजुट किया और ईश्वर की कल्पना के इर्दगिर्द एक विशेश नीति-नैतिकता में बाँधना प्रारंभ किया, कालान्तर में जिसे ईसाई धर्म के रूप में आत्मसात किया गया। विज्ञान एवं दर्शन के विकास के अभाव में इससे बड़ी सामाजिक गतिविधि की उम्मीद उस युग में नहीं की जा सकती थी। परन्तु, आज के युग में जब विज्ञान अपने चरम पर है, ना केवल ईसाई धर्म के अनुयाइयों की अंधभक्ति आश्चर्य पैदा करती है बल्कि इसके विभिन्न धड़ों, कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट इत्यादि-इत्यादि का आपसी मतभेद एवं वैमनस्य भी हतप्रभ करता है। जिस ईसा मसीह ने तत्कालीन कबीलाई समाज को संगठित किया आधुनिक ईसाइयों ने उसे कई हिस्सों में बाँट लिया और वे सब बेशर्मी से ईसामसीह के जन्मदिन की खुशियाँ भी मनाते हैं।

कोई भी धर्म एक समय विशेष में अपना काम सम्पन्न करने के पश्चात अप्रासंगिक हो जाता है। ज्ञान-विज्ञान की सच्चाइयों को नज़रअन्दाज करके धार्मिक कार्यवाहियों के ज़रिए पुरानी लकीर को पीटते रहना दरअसल जाने-अन्जाने समाज को पीछे खीचना ही है जो कि मानव समाज के लिए बेहद घातक है। इस सच्चाई को ईसाई धर्म ही नहीं बल्कि सभी धर्मों के अनुयाइयों को समझने की ज़रूरत है। धर्म को दरअसल कूड़ेदान में डाल देने की ज़रूरत है ताकि एक बेहतर मानव समाज बनाया जा सके।


गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

इस सेन्टा के कपड़े कौन ले भागा ?


कहीं यह संघ के स्वयंसेवकों की हरकत तो नहीं ?

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

कोपेनहेगन सम्मेलन‍ - आम जन साधारण के स्वार्थ की बलि

जोर-शोर से शुरु हुआ कोपेनहेगन सम्मेलन, जैसा कि अंदेशा था पूँजीवादी स्वार्थों की भेंट चढ़कर बेनतीजा खत्म होने की कगार पर आ पहुँचा है। दुनियाभर के देशों के जमावड़े के बीच इक्का-दुक्का मुल्क ही ऐसे दिखाई दिए जिनकी चिंताएँ वास्तव में उनके देश के जन-साधारण के अस्तित्व की लड़ाई से उत्प्रेरित प्रतीत हो रहीं थीं, अन्यथा अधिकांश देश अपने-अपने मुल्कों के पूँजीपतियों की चिंताओं को ही ढोते नज़र आए।

मालदीव के प्रतिनिधि का उद्गार-‘SIRVIVAL IS NOT NIGOTIABLE’ ना केवल मालदीव के आम जनसाधारण के जीवन पर आसन्न संकट के प्रति गहरी चिंता को अभिव्यक्त करता हैं, बल्कि एक तरह से यह वाक्य सारी दुनिया के जलवायु परिवर्तन से पीड़ित आम जनसाधारण की आवाज को भी अभिव्यक्ति देता सा लगता है।

अधिकांश विकासशील देशों ने, जिनसे उम्मीद थी कि वे प्रजातांत्रिक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपने-अपने देशों की पर्यावरण एवं आम जनता के हित में कार्बन उत्सर्जन में आवश्यक कटौती की जरूरत को शिद्दत से महसूस करते हुए स्वेच्छा से कटौती का हलफ उठाऐंगे, बेहद बेशर्मी से एकजुट होते हुए अपने देश के शोषक पूँजीवादी तंत्र की आवाज़ को ही अभिव्यक्त किया है।

इस बात पर ताज्जुब जताया जा सकता है कि कैसे उन ताकतवर साम्राज्यवादी देशों (जिनके टुकड़ों पर अधिकांश तथाकथित विकासशील देश पलते आ रहे हैं) के खिलाफ, उनसे दुश्मनी मोल लेते हुए उनके इरादों को ध्वस्त किया जा सका। मगर अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनज़र यह ज़्यादा आश्चर्य की बात नहीं है। मौजूदा समय में भारत, चीन जैसे शक्तिशाली पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था वाले देश विकसित साम्राज्यवादी देशों को टक्कर देने की स्थिति में आ चुके हैं और इसका निहितार्थ यह भी है कि वे खुद आर्थिक रूप से साम्राज्यवादी चरित्र को प्राप्त कर चुके हैं। कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर कोपेनहेगन में उभरकर आया द्वन्द्व दरअसल बड़ी साम्राज्यवादी व्यवस्थाओं और लगातार ताकतवर होती जा रही पूँजीवादी व्यवस्थाओं का द्वन्द्व है जिसमें बड़े ताकतवर देश, ताकतवर होते जा रहे दूसरे देशों के ‘पर’ कतरने की कोशिश में हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि साम्राज्यवादी देशों द्वारा थोपे जा रहे प्रतिबंधों के बहाने विकासशील देशों द्वारा अपनी जिम्मेदारी से भागने की इस मुहीम का नेतृत्व करने वालों में हमारा देश भी शामिल है जबकि जलवायु परिवर्तन से होने वाले समुद्र स्तर में वृद्धि से हमारे देश के कई शहर और गाँव जलमग्न होने वाले हैं और वहाँ के आम जनसाधारण के जीवन का प्रश्न भारत के पूँजीपतियों के मुनाफे में कटौती के प्रश्न से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, एक ताकतवार जनआंदोलन की अनुपस्थिति में जिसे दरकिनार कर दिया गया है।

किसी भी सही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के नुमाइन्दों का यह कर्तव्य है कि वह जलवायु परिवर्तन से आम जनसाधारण एवं पर्यावरण पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आने वाले संकट के मद्देनज़र कार्बन उत्सर्जन अथवा अन्य बंदिशों के पक्ष में प्रतिबद्धता का दृढ संकल्प लेते हुए, बड़े साम्राज्यवादी देशों को भी इस संकल्प में शामिल होने के लिए मजबूर करें मगर वर्तमान में सम्मेलन जिस दिशा में जा रहा है उससे यही लग रहा है कि पहली बार इतने बड़े स्तर पर किसी NOBLE CAUSE के लिए एकत्र हुए मुल्कों को देखकर दुनिया के आम लोगों में जो उम्मीद जगी थी वह धूमिल होती जा रही है। पूँजीवादी स्वार्थों के आगे आम जनसाधारण का स्वार्थ बलि चढ़ता नज़र आ रहा है।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

पूर्वजन्म की यादों के बहाने अंधविश्वास की बकवास

आजकल टी.वी पर एक धारावाहिक के ज़रिए देश के एक सदियों पुराने अंधविश्वास को भुनाकर पैसा कमाने की जुगत चल रही है। पूर्वजन्म की यादों को वापस लाने के निहायत अवैज्ञानिक, झूठे और आडंबरपूर्ण प्रदर्शन के ज़रिए लोगों में इस बचकाने अंधविश्वास को और गहरे तक पैठाने की कोशिश की जा रही है। यह कहना तो बेहद मूर्खतापूर्ण होगा कि आम जनता में गहराई तक मार करने वाले एक महत्वपूर्ण मीडिया पर ऐसे अवैज्ञानिक कार्यक्रमों को प्रसारित करने की अनुमति आखिर कैसे दे दी जाती है ! यह मामला नियम-कानून, और सांस्कृतिक-सामाजिक नीतियाँ बनाने वालों की मूढ़ता का भी नहीं है। दरअसल यह तो एक सोचे-समझे ब्रेनड्रेन कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसमें षड़यंत्रपूर्वक आम जन साधारण में वैचारिक अंधता पैदा करने, समझदारी और तर्कशक्ति को कुंद कर देने की जनविरोधी कार्यवाही अंजाम दी जाती है, ताकि लोगों का ध्यान देश की मूल समस्याओं की ओर से हटाया जा सके।
पूर्वजन्म और इसके मनगढन्त किस्सों पर इन दिनों पढ़े-लिखे, विज्ञान की शिक्षा हासिल किए, समझदार लोग भी ना केवल आँख मूँदकर विश्वास करते हैं, बल्कि इस रहस्यपूर्ण मामले को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की बजाय मूर्खतापूर्ण तरीके से यह समझाने की कोशिश करने लगते हैं कि ‘‘आजकल विज्ञान भी इसे मानता है’’। इसी से पता चलता है कि विज्ञान के प्रति भी लोगों में किस कदर गलत और भ्रामक समझकारी का बोल-बाला है, जो कि हमारे समुचित सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के रास्ते में बहुत बड़ा रोड़ा है।
जीव विज्ञान के अनुसार ‘याददाश्त’ एक गूढ सरंचना वाले पदार्थ ‘मस्तिष्क’ का एक विशेष गुण होता है जो कि मानव शरीर के खात्मे के साथ ही समाप्त हो जाता है। दुनिया भर में मृत्यु के बाद मृत शरीर को भिन्न-भिन्न तरीकों से नष्ट कर दिया जाता है, इसके साथ ही मस्तिष्क नाम के उस ‘पदार्थ’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जब याददाश्त को संचित रखने वाला मूल पदार्थ ही नष्ट हो जाता है (हिन्दुओं में दाह-संस्कार में वह राख में तब्दील हो जाता है) तो फिर याददाश्त के वापस लौटने का प्रश्न ही कहाँ उठता है, जो तथाकथित रूप से पुनर्जन्म बाद वापस उमड़ आए।
हमें पता है, लोग कहेंगे ‘आत्मा’ अमर है और एक मनुष्य के शरीर से मुक्त होने के बाद जब वह किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तो अपने साथ वह पुरानी याददाश्त भी ले आती है। जबकि इसके लिए तो उस ‘सूक्ष्म आत्मा’ के पास वह मस्तिष्क नाम का पदार्थ भी होना चाहिए जो कि पूर्ण रूप से ‘स्थूल’ है। फिर, पुराणों में यह बताया गया है कि चौरासी लाख योनियों के बाद प्राणी को मनुष्य का जन्म मिलता है । इसका अर्थ यह है कि पूर्वजन्म की याद करने वालों को चौरासी योनियों के पूर्व की बातें याद आना चाहिए, लेकिन देखा ये जाता है कि इस तरह की आडंबरपूर्ण गतिविधियों में लोग बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व की ऊलजुलूल बातें सुनाकर भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाते हैं।
देखा जाए तो पुनर्जन्म से बड़ा झूठ दुनिया में कोई नहीं। इंसान या किसी भी जीवित प्राणी के जैविक रूप से मृत होने के बाद ऐसा कुछ शेष नहीं रह जाता जिसे आत्मा कहा जाता है। ब्रम्हांड में ऐसी किसी चीज़ का अस्तित्व नहीं है जिसका कोई रंग, रूप, गुण, लक्षण, ना हो। जिसकी कोई लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई ना हो, जिसे नापा, तौला, ना जा सकता हो। जिसे जाँचा, परखा, देखा, सूँघा, चखा ना जा सकता हो। गीता के तथाकथित ज्ञान ‘आत्मा अमर है’ का विज्ञान के धरातल पर कोई औचित्य नहीं है ना ही उसके चोला बदलने की कहानी में कोई सत्यता है। एक और बात महत्वपूर्ण है कि इन सब बातों का वैश्विक धरातल पर भी कोई पुष्टीकरण नहीं है। दुनिया की कई सभ्यताओं, संस्कृतियों, परम्पराओं में इन भ्रामक मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है । यदि यह एक सार्वभौमिक सत्य है, तो इसका जिक्र दुनिया भर में समान रूप से होना चाहिए था, और विज्ञान।
आज के समय में जबकि मौजूदा जटिल सामाजिक परिस्थितियों में लोगों के अन्दर तर्कशक्ति का विकास करने की सख्त जरूरत है उन्हें पूर्वजन्म, पुनर्जन्म जैसी बकवास, अतार्किक बातों में उलझाकर उनकी चेतना के वैज्ञानिक विकास को अवरुद्ध करने की कोशिश की जा रही है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हिमायती लोगों को ऐसे कुत्सित प्रयासों के खिलाफ समवेत आवाज़ उठाना चाहिए।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

पृथ्वी के सर्वनाश को कतई नहीं रोका जा सकता, यदि

कोपेनहेगन में पर्यावरण की चिंता को लेकर दुनिया भर के लोग इकट्ठे हुए हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से होने वाले नुकसान और उससे बचाव के रास्ते खोजने की मशक्कत करने वाले हैं। इरादा तो बेहद नेक है मगर इस जमावड़े के गर्भ से कई बातों की एक बात निकलती दिखाई दे रही है वह यह कि अब सचमुच विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों को पर्यावरण की चिंता होने लगी है, क्योंकि यह खतरा खुद उसके अस्तित्व पर सीधा वार करने लगा है।
ज़ाहिर है आग के गोले में तब्दील होती जा रही इस पृथ्वी से दूर, चन्द्रमा, मंगल या अन्य किसी ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की खोज में देरी हो रही है। इस स्थिति में निर्णायक संकट आने पर पृथ्वी के गरीब-गुरबों और मध्यमवर्गीय आम जनता को छोड़कर भागने की फिलहाल कोई सूरत बन नहीं पा रही है, इसलिए किसी तरह स्थिति को थोड़ा बहुत संभाला जाए, यही नीयत इस पूरी कवायद से स्पष्ट हो रही है। मगर पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के आपसी अन्तर्विरोधों की पृष्ठभूमि में इस सम्मेलन से कुछ फैसले सफलतापूर्वक निकाले जा सकेंगे और उन फैसलों पर पूँजी के भूखे दुनिया भर के औद्योगिक घराने अमल कर पाऐंगे इस में शक है।
मसलन, भारत के ही कुछ औद्योगिक घरानों से आवाज़ें आने लगीं हैं कि हमारी राय नहीं ली जा रही है और यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में रोकथाम के बहाने, उद्योग-धंधों की चहल-पहल में कटौती की गई तो फिर हम 9 प्रतिशत की विकास दर कैसे हासिल कर पाएँगे! यह सुर भारत जैसे विकासशील देशों के पूँजीपतियों के हैं जिनके पेट अभी पूँजीवादी शोषण से भरे नहीं हैं। इन सूरों में यह आलाप भी शामिल है कि यह सम्मेलन साम्राज्यवादी देशों का षड़यंत्र है जो कि भारत, चीन जैसे आर्थिक विकास की ओर अग्रसर देशों के कदम रोकने के लिए हैं, और यहीं से कोपेनहेगन से कोई सिद्धांत निकलने के पहले ही उसके असफल होने का अंदेशा उपजता है।
पर्यावरण की सूरतेहाल में किसी तरह का कोई परिवर्तन आने की कोई संभावना नहीं है अगर पूँजीवादी शक्तियाँ अपने निहित स्वार्थों से समझौता न करें। पर्यावरण के साथ संतुलन की चिंता किये बगैर यदि अंधाधुंध औद्योगिकरण की सनक पर अंकुश नहीं लगाया गया, वातावरण को कार्बन प्रदूषण से मुक्त नहीं किया गया, विकास के नाम पर हरियाली को स्वाहा कर यदि कांक्रीट के जंगल खड़े किये जाते रहे, ग्रामों को शहरों से जोड़कर विकास की धारा में लाने के बहाने खेती योग्य ज़मीन का खात्मा कर डामर और सीमेंट की सड़कों का जाल बिछाया जाता रहा, चंद रुपयों की लिए यदि वनों की अंधाधुध कटौती कराई जाती रही, नदियों तालाबों और समुद्र को रसायनों के सांद्र घोल में तब्दील होने से नहीं रोका गया, तो पृथ्वी के सर्वनाश को कतई नहीं रोका जा सकता। कुल जमा, स्वार्थी लोगों के अन्दर से इफरात पैसा उगाहने की भूख पर रोकथाम नहीं की गई तो कोपेनहेगन जैसे कई सम्मेलन करलो उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला।
अंततः यह मुद्दा आम जनता को ही अपने हाथ में लेना पडे़गा। सरकारों को, उद्योगों को मजबूर करना पड़ेगा कि वे अपनी पैसा कमाने की हवस पर अंकुश लगाएँ और विकास का ऐसा रास्ता चुने जिससे सही मायने में विकास हो बरबादी नहीं।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मंदिर-मस्ज़िद के बहाने क़त्लेआम का जवाब लो

आज 6 दिसम्बर है, बाबरी मस्ज़िद के ध्वंस की १७ वी वर्षगांठ। आज ही के दिन कुछ धार्मिक उन्मादियों ने अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद को ढहाकर देश में हिन्दु-मुस्लिम नफरत के एक और अध्याय की शुरूआत की थी। हिन्दुओं ने पाँच हज़ार वर्ष पूर्व के एक राजघराने के राजा रामचंद्र की तथाकथित जन्मभूमि पर, मंदिर निर्माण के मुद्दे को और मुसलमानों ने एक अज्ञात-अंजानी शक्ति ‘अल्लाह’ की इबादतगाह की रक्षा को अपनी-अपनी अस्मिता के प्रश्न से जोड़कर जी भरकर मानवता का खून बहाया है।

इस नाजुक मौके पर कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा की जाना गैरवाजिब नहीं होगा। हो सकता है ये बातें कुछ लोगों को बुरी लगे परन्तु मनुष्य मात्र के भले के लिए इसे बहस का मुद्दा बनाया जाना ज़रूरी है।
यदि उनका अस्तित्व था भी तो, पाँच हज़ार वर्ष पूर्व के एक राजा की स्तुति-अंधभक्ति का आज इक्कीसवी शताब्दी में क्या औचित्य है यह समझ से परे है, जबकि सामंती युग को तिरोहित हुए अर्सा हो गया है। उस युग की सामंती परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यबोधों का वर्तमान प्रजातांत्रिक परिवेश में कोई महत्व ना होने के बावजूद हम क्यों आस्था के बहाने उस एक नाम को ढोते चले जा रहे हैं ? इतना ही नहीं आज जबकि आधुनिक युग के सामाजिक मूल्यबोधों, धर्मनिरपेक्षता पर आधारित स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के सिद्धांतों की रक्षा की सख़्त आवश्यकता है, हम क्यों मंदिर-मस्ज़िद के नाम पर इन मूल्यों का तिरस्कार करते चले आ रहे हैं।

मुसलमानों के सामने भी यह प्रश्न रखा जाना ज़रूरी है कि क्या सैंकड़ों साल पहले अस्तित्व में आए इस्लामिक सोच-विचार, मूल्यबोधों को आधुनिक समाज की रोशनी में दफ्न नहीं हो जाना चाहिए था। क्या एक ऐसी शक्ति जिसके अस्तित्व का कोई प्रमाण दुनिया में नहीं है के नाम पर वे हमेशा अपने आप को दकियानूसी बनाए रखेंगे, क्या वे शरीयत के नाम पर हमेशा व्यापक सामाजिक हितों एवं प्रजातांत्रिक मूल्यों से दूरी बनाए रखेंगे। क्या उनका धार्मिक कठमुल्लापन वर्तमान सामाजिक प्रतिबद्धताओं से उन्हें विमुख नहीं करता, जबकि एक देश का अभिन्न हिस्सा होने के कारण उन्हें भी व्यापक समाज के एक अभिन्न अंग की तरह पेश आना चाहिए!

सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों के सम्मुख यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि एक राष्ट्र के अभिन्न अंग के तौर पर समाज वे अपनी क्या भूमिका आंकते हैं। चाहे हिन्दु हों या मुसलमान या और कोई बिरादरी, आधुनिक प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों का तकाज़ा है कि हम अपने व्यक्तिगत धार्मिक पूर्वाग्रहों को ताक पर रखकर मानव के रूप में अपने समय में जीना सीखें। बेशक एक बेहतर आज के लिए कल से सबक लिया जाना जरूरी है मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि पुरातन की अर्थी अपने कांधों पर रखकर अपने वर्तमान के सच को पैरों तले रोंदा जाए। हिन्दुओं-मुसलमानों और सभी धर्म सम्प्रदाय, जाति, भाषा, के लोगों को यह समझना जरूरी है कि परम्परा के नाम पर उनके ऊपर लादकर रखे गए ये लबादे उनकी मनुष्य के रूप में पहचान पर हावी होते जा रहे हैं। वे अपनी मानवीय विशेषताओं से नीचे गिरकर पशुवत होते चले जा रहे हैं।

यह नष्ट-भ्रष्ट हो चुका पूँजीवादी समाज है। मोहम्मद हो या राम, या और कोई पैगम्बर या अवतार, कोई भी इस पूँजीवादी समाज की बुराइयों, विडंबनाओं से निबटने में इन्सान की मदद नहीं कर सकता। चूक चुके मूल्यों के आधार पर आधुनिक चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता। हम शोषण पर आधारित मानव संबंधों की सामाजिक संरचना का शोषित-पीड़ित हिस्सा हैं। हमारी एकता शोषक शासक वर्ग के लिए खतरनाक होती आई है और आगे भी रहेगी, इसलिए हम हिन्दु या मुसलमान या अन्य कुछ बनाकर रखे जाते हैं। इसलिए हम परम्परा और संस्कृति के नाम पर राम या पैगम्बर मोहम्मद के अनुयाई के रूप में प्रचारित किये जाते हैं। यह शोषक-शासक वर्ग हमें जात-पात-धर्म सम्प्रदाय की बेड़ियों में जकडे़ रखकर, हमारे बीच आपसी संघर्ष को भड़काकर, उसे पाल-पोसकर हमें आपस में उलझाए रखता है। यह वह ताकत है जो नहीं चाहती कि इन्सान धर्मनिरपेक्षता आधारित स्वतंत्रता, समानता भाईचारे के मूल्यों को सही मायने में समझ पाएँ जिन्हें एक दिन धर्म की सत्ता को नेस्तोनाबूद कर हासिल किया गया था।

आज के दिन के लिए इससे बड़ा सबक दूसरा कोई हो नहीं सकता कि हम अपने अस्तित्व की धार्मिक, जातीय, साम्प्रदायिक, भाषाई पहचान को अपने अन्दर दफ्न कर उस व्याधि से मुक्ति पाएँ जो एक मनुष्य के रूप में हमारी एकता में बाधक है और एक व्यापक सामाजिक प्रतिबद्धता में बंधकर एक राष्ट्र में तब्दील होने के संघर्ष में उतरें और क़ातिलों से, चाहे वे हिन्दु हो या मुसलमान, मंदिर-मस्ज़िद के बहाने हजारों बेगुनाहों के क़त्लेआम का जवाब माँगें।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

भोपाल गैस त्रासदी-गैस पीड़ितों के साथ विश्वासघात

2-3 दिसम्बर 2009 को विश्व के भीषणतम औद्योगिक नरसंहार भोपाल गैस कांड की पच्चीसवी बरसी मनाई जा रही है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि पिछले पच्चीस सालों में गैस पीड़ितों की समस्याएँ जस की तस होने के कारण हर साल की तरह इस साल भी भोपाल के लाखों गैस पीड़ितों के ज़ख्म ही ताज़ा होंगे, फर्क सिर्फ यह होगा कि इस साल मौत के उस तांडव का रजत वर्ष होने के कारण देश विदेश के सैकड़ों लोग गैस पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम लगाने भोपाल आएँगे, उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने के अलावा कुछ भी नहीं करेंगे।
जन-साधारण के साथ सरकारों के विश्वासघात के हज़ारों उदाहरण देश-दुनिया में देखने को मिलते रहते हैं परन्तु भोपाल गैस कांड को लेकर जिस तरह का विश्वासघात देश की केन्द्र सरकारों और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों ने, (चाहे वे किसी भी पार्टी की रहीं हों) गैस पीड़ितों के साथ किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता।
भोपाल गैस त्रासदी तो फिर भी विश्व की अन्यतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में शामिल है, जिससे हुए शारीरिक आर्थिक नुकसान का दूर बैठकर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। अमरीका अथवा पश्चिम के किसी भी देश में किसी छोटी-मोटी औद्योगिक दुर्घटना तक में लापरवाही बरतने एवं श्रमिकों, जनसाधारण के हताहत होने पर सज़ा एवं मुआवजे़ के जो कठोर प्रावधान हैं उनके आधार पर भोपाल गैस पीड़ितों के मामले में जिम्मेदार लोगों को सख़्त सज़ा के साथ-साथ कंपनी को जो आर्थिक मुआवज़ा भुगतना पड़ता उससे यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन को अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ सकता। परन्तु गैस कांड के तुरंत बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने गैस पीड़ितों के हितों के नाम पर समस्त कानूनी कार्यवाही का अधिकार अपने हाथ में लेकर गैस पीड़ितों के हाथ तो काट ही दिए बल्कि गैस पीड़ितों की लड़ाई को इतने कमज़ोर तरीके से लड़ा कि ना इस नरंसहार के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की जिम्मेदारी तय हो पाई और ना ही पश्चिमी कानूनों मुताबिक भोपाल गैस पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा ही मिल पाया। बड़े शर्म की बात है कि आज जब मामूली सी दुघर्टनाओं में हताहतों को इफरात मुआवज़ा मिल जाता है, भोपाल गैस पीड़ितों को इतना कम मुआवज़ा मिला है कि उसे भीख़ कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। दिल्ली में हुए उपहार अग्निकांड तक में पीड़ितों को लाखों रूपए मुआवज़ा मिला है जबकि भोपाल के गैस प्रभावितों को जिनकी पीढ़ियाँ तक विषैली गैस से विकृति की शिकार पाई जाने का अंदेशा है, नाम मात्र का मुआवज़ा देकर, (जिसमें से काफी कुछ दलाल और सरकारी मशीनरी खा गई) मरने के लिए छोड़ दिया गया है।
दरअसल देखा जाए तो इस दुर्घटना के राजनैतिक सिग्नीफिकेन्स को दरकिनार रखकर गैस पीड़ितों की पूरी जद्दोजहद मुआवज़े के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही है जिसे लेकर केन्द्र एवं राज्य सरकार के अलावा गैस पीड़ित संगठनों की भूमिका भी बेहद निराषाजनक रही है। मुआवज़े के नाम पर जो भी रकम सरकार के खाते में आई है उसके युक्तिसंगत प्रबंधन की जगह उसे फुटकर रूप से गैस पीड़ितों में बाँटकर अप्रत्यक्ष रूप से बाज़ार की मुनाफाखोर शक्तियों की जेब में पहुँचा दिया गया है। गैस पीड़ितों ने अपनी शारीरिक हालत की गंभीरता के प्रति अन्जान रहकर मुआवज़े के रूप में मिले उस पैसे को अपने इलाज पर खर्चने की जगह टी.वी. फ्रिज, मोटरसाइकिल और दीगर लक्ज़री आयटम्स की खरीदारी पर खर्च दिया। कुछ शारीरिक ताकत खोकर घर बैठने को मजबूर लोगों ने ज़रूर उस मुआवजे़ से कुछ दिन अपने जीवन की गाड़ी धकाई मगर अब उनके सामने अपने आप को मरते हुए देखने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। गैस पीड़ितों को पहुँचे गंभीर शारीरिक नुकसान के मद्देनज़र उसका बेहतर से बेहतर इलाज कराया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए था और इसके लिए मुआवजे़ की राशि को इस तरह न बाँटकर गैस पीड़ितों के लिए सर्व सुविधा युक्त आधुनिक अस्पतालों का जाल बिछाने के लिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए था ताकि उन्हें वैज्ञानिक पद्धति से उपयुक्त एवं सस्ता इलाज मुहैया हो पाता और वे डॉक्टरों की लूटमार से भी बच जाते । मगर अफसोस सरकारों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया।
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा रोज़गार का है। अपनी शारीरिक क्षमता खो चुके गैस पीड़ितों के लिए उपयुक्त रोज़गार और इलाज के साथ-साथ सुचारू जीवन यापन के लिए ऐसे बड़े-बडे़ औद्योगिक संस्थानों की स्थापना किये जाने की आवश्यकता थी जहाँ शारीरिक क्षमता के अनुसार दीर्घकालीन रोज़गार उपलब्ध हो सके। इसी तरह पुनर्वास के मुद्दे पर कुछ बड़े सामुदायिक संस्थान खड़े किये जाने आवश्यक थे। इस तरह के कार्यक्रमों के ज़रिए गैस पीड़ितों के लिए मिले मुआवज़े का समुचित उपयोग संभव होता जिसका लाभ लम्बे समय तक गैस पीड़ितों को मिल सकता था। परन्तु भोपाल में इसके उलट गैस पीड़ितों को सीधे मुआवजे़ की राशि मुहैया कर कज्यूमर प्रोडक्ट कम्पनियों के वारे-न्यारे कर दिए गए। गैस पीड़ितों के पैसों को सरकारी स्तर पर सौंदर्यीकरण इत्यादि दीगर कामों पर भी बड़े पैमाने पर खर्च किया गया जिसका सीधा लाभ गैस पीड़ितों को नहीं मिल पाया। गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले कई संगठनों ने भी अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद इस मामले में बिल्कुल भी दूरअंदेशी का परिचय नहीं दिया।
बहरहाल, एक भयानक पूँजीवादी साम्राज्यवादी षड़यंत्र के तहत भारत जैसे गरीब देश में मचाए गए मौत के इस तांडव के विरुद्ध एक सचेत राजनैतिक आन्दोलन के अभाव में गैस पीड़ितों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जाना तो आज पच्चीस साल बाद संभव नहीं है लेकिन फिर भी मिथाइल आइसो साइनाइड और अन्य कई रसायनों के दूरगामी परिणामों के कारण गैस पीड़ितों के ऊपर भविष्य में आने वाले संकटों के मद्देनज़र तमाम गैस पीड़ितों एवं उनके लिए काम कर रहे संगठनों को एकजुट होकर एक प्रभावशाली आन्दोलन का निर्माण करना चाहिए, यही 2-3 दिसम्बर 1984 की रात मारे गए बेकसूरों को सम्मानजनक श्रद्धांजलि हो सकती है।