कोपेनहेगन में पर्यावरण की चिंता को लेकर दुनिया भर के लोग इकट्ठे हुए हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से होने वाले नुकसान और उससे बचाव के रास्ते खोजने की मशक्कत करने वाले हैं। इरादा तो बेहद नेक है मगर इस जमावड़े के गर्भ से कई बातों की एक बात निकलती दिखाई दे रही है वह यह कि अब सचमुच विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों को पर्यावरण की चिंता होने लगी है, क्योंकि यह खतरा खुद उसके अस्तित्व पर सीधा वार करने लगा है।
ज़ाहिर है आग के गोले में तब्दील होती जा रही इस पृथ्वी से दूर, चन्द्रमा, मंगल या अन्य किसी ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की खोज में देरी हो रही है। इस स्थिति में निर्णायक संकट आने पर पृथ्वी के गरीब-गुरबों और मध्यमवर्गीय आम जनता को छोड़कर भागने की फिलहाल कोई सूरत बन नहीं पा रही है, इसलिए किसी तरह स्थिति को थोड़ा बहुत संभाला जाए, यही नीयत इस पूरी कवायद से स्पष्ट हो रही है। मगर पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के आपसी अन्तर्विरोधों की पृष्ठभूमि में इस सम्मेलन से कुछ फैसले सफलतापूर्वक निकाले जा सकेंगे और उन फैसलों पर पूँजी के भूखे दुनिया भर के औद्योगिक घराने अमल कर पाऐंगे इस में शक है।
मसलन, भारत के ही कुछ औद्योगिक घरानों से आवाज़ें आने लगीं हैं कि हमारी राय नहीं ली जा रही है और यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में रोकथाम के बहाने, उद्योग-धंधों की चहल-पहल में कटौती की गई तो फिर हम 9 प्रतिशत की विकास दर कैसे हासिल कर पाएँगे! यह सुर भारत जैसे विकासशील देशों के पूँजीपतियों के हैं जिनके पेट अभी पूँजीवादी शोषण से भरे नहीं हैं। इन सूरों में यह आलाप भी शामिल है कि यह सम्मेलन साम्राज्यवादी देशों का षड़यंत्र है जो कि भारत, चीन जैसे आर्थिक विकास की ओर अग्रसर देशों के कदम रोकने के लिए हैं, और यहीं से कोपेनहेगन से कोई सिद्धांत निकलने के पहले ही उसके असफल होने का अंदेशा उपजता है।
पर्यावरण की सूरतेहाल में किसी तरह का कोई परिवर्तन आने की कोई संभावना नहीं है अगर पूँजीवादी शक्तियाँ अपने निहित स्वार्थों से समझौता न करें। पर्यावरण के साथ संतुलन की चिंता किये बगैर यदि अंधाधुंध औद्योगिकरण की सनक पर अंकुश नहीं लगाया गया, वातावरण को कार्बन प्रदूषण से मुक्त नहीं किया गया, विकास के नाम पर हरियाली को स्वाहा कर यदि कांक्रीट के जंगल खड़े किये जाते रहे, ग्रामों को शहरों से जोड़कर विकास की धारा में लाने के बहाने खेती योग्य ज़मीन का खात्मा कर डामर और सीमेंट की सड़कों का जाल बिछाया जाता रहा, चंद रुपयों की लिए यदि वनों की अंधाधुध कटौती कराई जाती रही, नदियों तालाबों और समुद्र को रसायनों के सांद्र घोल में तब्दील होने से नहीं रोका गया, तो पृथ्वी के सर्वनाश को कतई नहीं रोका जा सकता। कुल जमा, स्वार्थी लोगों के अन्दर से इफरात पैसा उगाहने की भूख पर रोकथाम नहीं की गई तो कोपेनहेगन जैसे कई सम्मेलन करलो उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला।
अंततः यह मुद्दा आम जनता को ही अपने हाथ में लेना पडे़गा। सरकारों को, उद्योगों को मजबूर करना पड़ेगा कि वे अपनी पैसा कमाने की हवस पर अंकुश लगाएँ और विकास का ऐसा रास्ता चुने जिससे सही मायने में विकास हो बरबादी नहीं।
ज़ाहिर है आग के गोले में तब्दील होती जा रही इस पृथ्वी से दूर, चन्द्रमा, मंगल या अन्य किसी ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की खोज में देरी हो रही है। इस स्थिति में निर्णायक संकट आने पर पृथ्वी के गरीब-गुरबों और मध्यमवर्गीय आम जनता को छोड़कर भागने की फिलहाल कोई सूरत बन नहीं पा रही है, इसलिए किसी तरह स्थिति को थोड़ा बहुत संभाला जाए, यही नीयत इस पूरी कवायद से स्पष्ट हो रही है। मगर पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के आपसी अन्तर्विरोधों की पृष्ठभूमि में इस सम्मेलन से कुछ फैसले सफलतापूर्वक निकाले जा सकेंगे और उन फैसलों पर पूँजी के भूखे दुनिया भर के औद्योगिक घराने अमल कर पाऐंगे इस में शक है।
मसलन, भारत के ही कुछ औद्योगिक घरानों से आवाज़ें आने लगीं हैं कि हमारी राय नहीं ली जा रही है और यदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में रोकथाम के बहाने, उद्योग-धंधों की चहल-पहल में कटौती की गई तो फिर हम 9 प्रतिशत की विकास दर कैसे हासिल कर पाएँगे! यह सुर भारत जैसे विकासशील देशों के पूँजीपतियों के हैं जिनके पेट अभी पूँजीवादी शोषण से भरे नहीं हैं। इन सूरों में यह आलाप भी शामिल है कि यह सम्मेलन साम्राज्यवादी देशों का षड़यंत्र है जो कि भारत, चीन जैसे आर्थिक विकास की ओर अग्रसर देशों के कदम रोकने के लिए हैं, और यहीं से कोपेनहेगन से कोई सिद्धांत निकलने के पहले ही उसके असफल होने का अंदेशा उपजता है।
पर्यावरण की सूरतेहाल में किसी तरह का कोई परिवर्तन आने की कोई संभावना नहीं है अगर पूँजीवादी शक्तियाँ अपने निहित स्वार्थों से समझौता न करें। पर्यावरण के साथ संतुलन की चिंता किये बगैर यदि अंधाधुंध औद्योगिकरण की सनक पर अंकुश नहीं लगाया गया, वातावरण को कार्बन प्रदूषण से मुक्त नहीं किया गया, विकास के नाम पर हरियाली को स्वाहा कर यदि कांक्रीट के जंगल खड़े किये जाते रहे, ग्रामों को शहरों से जोड़कर विकास की धारा में लाने के बहाने खेती योग्य ज़मीन का खात्मा कर डामर और सीमेंट की सड़कों का जाल बिछाया जाता रहा, चंद रुपयों की लिए यदि वनों की अंधाधुध कटौती कराई जाती रही, नदियों तालाबों और समुद्र को रसायनों के सांद्र घोल में तब्दील होने से नहीं रोका गया, तो पृथ्वी के सर्वनाश को कतई नहीं रोका जा सकता। कुल जमा, स्वार्थी लोगों के अन्दर से इफरात पैसा उगाहने की भूख पर रोकथाम नहीं की गई तो कोपेनहेगन जैसे कई सम्मेलन करलो उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला।
अंततः यह मुद्दा आम जनता को ही अपने हाथ में लेना पडे़गा। सरकारों को, उद्योगों को मजबूर करना पड़ेगा कि वे अपनी पैसा कमाने की हवस पर अंकुश लगाएँ और विकास का ऐसा रास्ता चुने जिससे सही मायने में विकास हो बरबादी नहीं।
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