बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!

    जबसे दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला करके अपनी ताकत का एहसास कराया है तब से तमाम मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों में नक्सलवादियों के खिलाफ अनोखा आक्रोश फूटा पड़ रहा है। यह कर डालों, वह कर डालों, ईंट से ईट बजा दो, नेस्तोनाबूद कर डालों ऐसे कई एक जुमले प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीड़िया में रोज़ाना सुनाई दे रहे हैं। नपूंसकों से इससे ज़्यादा की उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती। समाज के वास्तविक ताने-बाने के प्रति सूरदासी भाव बनाए रखकर, कूलर ए.सी. की ठंडक में घर-दफ्तर में बैठकर सुविधाभोग करते हुए किसी के भी खिलाफ कागज़ काले करने और स्टूडियों में बकवास करने के धंधे से अच्छा तो दूसरा कोई धंधा होता ही नहीं। सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन शूरवीरों की कलम या ज़बान से देश के दयनीय सामाजिक हालातों पर कभी कोई बात नहीं निकलती। दरअसल ये सामाजिक दुर्व्यस्था का लाभ उठा रहे उन्हीं दलालों की परम्परा के वाहक दलाल हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा के प्रतिनिधियों को भी उन दिनों अपनी दलाल मानसिकता से कोस कोस कर अंग्रेज प्रभु को खुश करने का पराक्रम किया था। भगतसिंह को आतंकवादी इन्होंने ही कहा था और उनकी फांसी का मूक समर्थन भी इन्होंने ही किया था।  
    नक्सलियों की अव्यावहारिक राजनीति के विरोध का अधिकार सुरक्षित रखते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि नक्सल समस्या, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों भारतीय पूंजीवाद को सत्ता के हस्तांतरण के कारण, आज़ादी के बाद आम जनसाधारण मजदूर वर्ग का सपना पूरा ना होने की हताशा से उपजी समस्या है। इसको इस तरह कब तक हम पूँजीवादी व्यवस्था की एकमात्र आँख से देखते रहेंगे! क्या आज़ादी के बासठ साल बाद भी हम हमारे देश की गरीब आम जनता, मजदूर, किसानों के प्रश्नों के बारे में गंभीरता से सोचने का नैतिक कर्तव्य निभाना नहीं चाहते। समस्या को अगर इंसानियत के नाते से देखने का प्रयास किया जाएगा तो, अपना घर-बार सुख-सुविधा छोड़कर वर्षो से दर-दर भटक रहे इन बागियों के प्रति अपने आप सहानुभूति उभरने लगेगी। यह बात अलग है कि नक्सलियों की राजनैतिक समझ और चुने गए रास्ते को लेकर मतभेद हों मगर यह तय है कि किसी भी हालत में विघटनकारी आतंकवादियों और नक्सलवादियों को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता, हालाँकि हत्याएँ दोनों कर रहे हैं। आखिर कब तक हम हाशिए पर पड़ी देश की बहुसंख्य गरीब आबादी के हितों को अनदेखा करके विकास की बातें करते रहेंगे ? किसी का तर्क हो सकता है कि -जब तक नक्सली हथियार नहीं डालते तब तक उनके साथ सहानुभूति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता !!!! तो हमारा प्रतिप्रश्न है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ?
    यह कहना बेहद आसान है कि नक्सली जघन्य हत्यारे हैं, खूनी हैं, क़ातिल हैं, जनविरोधी है, जनतंत्र विरोधी हैं, राष्ट्रद्रोही हैं, मगर जब किसी की जान पर ही बन आई हो तो यह कुतर्क भी किया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में तो भारतीय कानून भी आत्मरक्षा में हथियार उठाने की इजाज़त देता है। क्या इस कुतर्क के साथ यह तर्क जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण अंचलों में विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में शोषण, दमन, उत्पीड़न, सभ्य समाज की निर्दयी लूट-खसोट, व्यभिचार, इस कदर व्याप्त है कि वहाँ के लोगों के सामने मरता क्या करता की स्थिति है। गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, तो है ही शिक्षा, इलाज की मामूली व्यवस्थाएँ तक नहीं है, आधुनिक सुख-सुविधाएँ जो दो-चार प्रतिशत शहरी लोगों द्वारा भोगी जा रही हैं, वह तो बहुत दूर की बात है। बस मौत एक सच्चाई है, किसी ना किसी रूप में आनी ही है, चाहे भूख के रास्ते आए, चाहे प्यास के रास्ते, चाहे बीमारी के रास्ते, चाहे ज़िल्लत उठाकर रोज़-रोज मरें, चाहे पुलिस की गोली से एक बार ही में मौत आ जाए़, मरना तो तय है। तब अगर कोई इन्सान मजबूर होकर यह सोचता हैं कि नक्सली बनकर मरने में क्या बुराई है, तो इसमें उसका क्या कुसूर है। इस चिन्तन को उसके भीतर रोपने की वस्तुस्थिति तो इस व्यवस्था नहीं ही पैदा की है।
    आम जनसाधारण की आंकाक्षाओं पर सौ प्रतिशत् खोटा उतरने वाली इस व्यवस्था के लिए चिंतन का यह एक बेहद महत्वपूर्ण और बड़ा प्रश्न है और इस पर सोचना उनके लिए बेहद जरूरी है कि यदि अवाम में मौत को गले लगाने का जज़्बा पैदा हो गया, जैसा कि नक्सलवादियों में है, और हर इन्सान अपनी कुरबानी की तैयारी के साथ अगर अपने ऊपर हो रहे जुर्म-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए उठ खड़ा हो गया तो शायद उनके तोपखानों में इतना गोलाबारूद भी नहीं होगा जो देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी को नष्ट कर सके, क्योंकि आखिरकार यह प्रश्न देश की पनचानबे प्रतिशत आबादी के हितों से जुड़े हुए प्रश्न हैं।इससे आंख मूँदकर नहीं चला जा सकता।
    बुद्धिजीवियों में इस मुद्दे पर हो रही अजीबोगरीब प्रतिक्रियाएँ देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई सांड लाल रंग को देखकर भड़क रहा हो। चिंता का विषय है कि आखिरकार मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी सांड लाल रंग देखकर इतना भड़कते क्यों हैं!
              

14 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हारी ऐसी-तैसी साले

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  2. आदिवासी क्षेत्रों में अन्याय, शोषण, बेरोज़गारी है, निश्चित रूप से इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नक्सलियों का जो तरीका है वह गलत है… जब उनके पास "जनता" की ताकत है, जनसमर्थन उनके साथ है, फ़िर वे चुनाव लड़कर सत्ता में क्यों नहीं आते? फ़िर जो चाहे बदल लें अपने हिसाब से?
    स्कूलों, पुलों, बिजली ट्रांसफ़ार्मरों को उड़ाने से क्या सिर्फ़ पूंजीपतियों (जिसका वे विरोध करते हैं) का नुकसान हो रहा है? आम जनता का भी तो हो रहा है, फ़िर यह कैसे जायज़ हो गया? दिक्कत यह है कि "व्यवस्था" को बदलने के लिये उनके पास सिर्फ़ बन्दूक का ही विकल्प है, और बन्दूक थमाने के बहाने भारत विरोधी शक्तियाँ उन्हें अपना मोहरा बना चुकी हैं, यह बात वे समझ नहीं रहे। सैनिकों-पुलिस को मारकर आदिवासियों का भला कैसे होगा? समझ नहीं आता।

    आप जिन मध्यमवर्गीय लोगों की ओर उंगली उठा रहे हैं, क्या आपको लगता है कि ये लोग मौज-मजे का जीवन जी रहे हैं? जी नहीं, ये लोग भी नेताओं-अफ़सरों-नौकरशाही-भ्रष्टों से परेशान हैं, लेकिन नक्सलियों की तरह बन्दूक उठाने नहीं चल पड़े…। जबकि नक्सली भी कोई आदिवासियों के भले के लिये आंदोलन नहीं चला रहे… इस करोड़ों के खेल में उनका (या उनके आकाओं का) भी उल्लू सीधा हो रहा है।

    आज तक नक्सलवादियों ने कितने भ्रष्ट अफ़सरों-ठेकेदारों और नेताओं को मारा है? कृपया बतायें।

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  3. सही कहा आपने क्यों कि आदिवासियों को शोषण होता है इसलिए नक्सलियों को नरसंहार की इजाजत दी जानी चाहिये.....तो मैं भी नक्सली बन जाऊं......मेरे चारों और तथा कथित दलित समुदाय है जो रात दिन मुझे एट्रोसिटी मैं फैसाने की धमकी देता है.....रास्ते रोक देता है.....नालियों का पानी बंद कर देता है.....जनाब नक्सली देशद्रोही ही हैं जो इस देश पर चीन के कब्जे का सपना लिए जिये जा रहे हैं और मारे जा रहें हैं.....

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  4. दूसरों को नपुंसक कहने से पहले अपना पौरुष तो दिखलाइए . बुर्के में छुपे रह कर कोई भी कुछ भी कहा सकता है .

    "आज तक नक्सलवादियों ने कितने भ्रष्ट अफ़सरों-ठेकेदारों और नेताओं को मारा है? कृपया बतायें।"
    है कोई जवाब इस बात का .
    एक माफिया संगठन को सर्वहारा का चिंतक नहीं माना जा सकता

    १४ अप्रैल २०१० १२:४

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  5. हमने पहले ही कहा है- नक्सलियों की अव्यावहारिक राजनीति के विरोध का अधिकार सुरक्षित रखते हुए....,तो फिर चिपलूनकर और मिहिर भोज के इस तरह कोई सवाल उठाने का मतलब ही नहीं है। हमने जो मूल मुद्दा उठाया है उनके पास उसका कोई जवाब है। हम उन्हें याद दिलाना चाहेंगे कि देश को आजाद हुए बासठ साल हो गए हैं, इन बासठ सालों में कई चुनाव हुए, क्या देश की समस्याएँ सुलझ गई।

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  6. आपने कहा - "गरीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, तो है ही शिक्षा, इलाज की मामूली व्यवस्थाएँ तक नहीं है".

    मेरे भाई, सिर्फ एक बात का जवाब दे दो कि जिन गरीबों के पास खाने को नहीं है उनके पास महंगे आधुनिक हथियार कहाँ से आ रहे हैं?

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  7. डा. सिन्हा का क्या यह ख्याल है कि संधियों, कांग्रसियों और नकली वामपंथियों को सर्वहारा का का चिंतक मान लिया जाय।

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  8. माओवाद या नक्सलवाद के बारे मे यह उनके साथ होने वाले भी नही जानते . बरगला कर गरीबो को खून की होली खेलने से अच्छा बैठकर बात करने से हल निकल्वाये आप . यह हमारा द्रष्टिकोण है

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  9. दृष्टिकोण जी, मैंने भी तो यही कहा कि बन्दूक से कोई समस्या हल होने वाली नहीं है, चुनाव लड़कर व्यवस्था को क्यों नहीं बदलते? जैसा वे दावा करते हैं, यदि वाकई में जनसमर्थन उनके साथ है तो… छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड में सरकार बना लें और आदिवासियों के कल्याण की योजनाएं बनाकर लागू करें, कौन रोक सकता है? आखिर मायावती भी तो इसी रास्ते से उत्तरप्रदेश जैसे बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हैं…

    लेकिन जब चीन की बौद्धिक गुलामी करते हुए लोकतन्त्र पर भरोसा ही नहीं, सीधे-सीधे धमकाकर सत्ता लेना चाहें तो कैसे मिलेगी, भारत सरकार से तो पहले ही काफ़ी गुट उलझ चुके हैं… उलझ रहे हैं, देर-सवेर उन्हें भी समझ में आया ही है कि बन्दूक की लड़ाई थकाने वाली है… इससे ज़मीनी बदलाव आने वाला नहीं है… यदि नक्सली वाकई आदिवासियों और गरीबों का भला चाहते हैं तो लोकतन्त्र के रास्ते आयें… वरना खामखा यूं ही खूनखराबा जारी रहेगा। मरेगा आम आदमी ही, नेताओं-पूंजीपतियों का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। आदिवासियों और गरीबों से सहानुभूति किसे नहीं है, जैसा कि आप आरोप लगा रहे हैं मध्यमवर्गीय के दिल में तो बिलकुल है, और जिन नेताओं-पूंजीपतियों-अफ़सरों के दिल में आदिवासियों को सिर्फ़ लूटने का इरादा है, उनका तो नक्सली कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे… अब बताईये पिस कौन रहा है, नुकसान किसका हो रहा है? उधर दंतेवाड़ा में स्कूल उड़ाने पर शिक्षा से वंचित होने वाला गरीब बालक और इधर माओवादियों से निपटने के नाम पर जबरन टैक्स उगाहे जाने पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति। नेताओं का क्या बिगड़ा? पूंजीपति का क्या नुकसान हुआ? भ्रष्ट अफ़सर को कौन सी सजा मिल गई?

    दृष्टिकोण जी, जब तक नक्सली या माओवादी इस प्रकार से आम आदमी को ही परेशान करते रहेंगे, उन्हें कभी सहानुभूति नहीं मिलने वाली… जरा एक बार किसी एकदम भ्रष्ट अफ़सर को गोली से उड़ाकर देखिये, जनता कुछ नहीं बोलेगी।

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  10. अंकल, मैंने एक से एक बढ़कर कलंकित ब्लाग देखे लेकिन आपका ब्लाग तो बाकई लाजबाब है. थोड़ा कसाब के पक्ष में भी हो जाय, थोड़ा चोर डाकुओं के पक्ष में भी हो जाय. हत्यारे माओ की नाजायज औलादें के लिये तड़प वाकई काबिले तारीफ है, तालिंयां...

    अब दलालों के नाम ले रहे हो तो सबसे बड़े दलाल तो चीन के बाप को अपना बाप कहने वाले एनजीओ के बेशर्म देशद्रोही है, आप इनका नाम क्यों नहीं लेरहे.. बेशर्मी करो, खूब करो लेकिन भगत सिंह का नाम इन नक्सलवादी हत्यारों में मत जोड़ो.

    नक्सलवाद के जनक और चीन में मिलिट्री ट्रेनिंग पाये कनु सान्याल तक को भी बुढ़ापे में अपने पापों से घबरा कर आत्महत्या करनी पड़ी थी.

    सांड़ लाल रंग से भड़कते हैं या नहीं ये तो मालूम नहीं लेकिन इतना जरूर मालूम है चीन के सबसे बड़े हत्यारे माओ की नाजायज औलादें भारत के लोकतंत्र पर अपनी आंखे जमाये बैठी है.

    शर्म आनी चाहिये आपको,
    वैसे मुझे मालूम है कि आपको नहीं आयेगी,

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  11. लेकिन 'चिपलूनकरिज़्म' के लव जिहाद के बारे में आपका क्या ख्याल है सुरेश जी, उधर सलीम भाई लाठी बल्लम लेकर मैदान में उतारे हुए हैं, कहीं ऐसा न हो की लाल झंडा हरा न हो जाये

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  12. यह बात अलग है कि नक्सलियों की राजनैतिक समझ और चुने गए रास्ते को लेकर मतभेद हों मगर यह तय है कि किसी भी हालत में विघटनकारी आतंकवादियों और नक्सलवादियों को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता, हालाँकि हत्याएँ दोनों कर रहे हैं। आखिर कब तक हम हाशिए पर पड़ी देश की बहुसंख्य गरीब आबादी के हितों को अनदेखा करके विकास की बातें करते रहेंगे ? किसी का तर्क हो सकता है कि -जब तक नक्सली हथियार नहीं डालते तब तक उनके साथ सहानुभूति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता !!!! तो हमारा प्रतिप्रश्न है कि-क्या नक्सलवाद से अप्रभावित देश के दूसरे हिस्सों के शोषितों-पीड़ितों के सवाल हल हो चुके है जिन्होंने अब तक हथियार नहीं उठाए हैं ?

    मुझे इस बात से सहमति है। हां यह स्पष्ट मानना है कि यह दल आतंकवादी भटकाव का शिकार है। गोधरा से लेकर मालेगांव तक के ख़ूनी खेल के समर्थक यहां अहिंसा के पुजारी की तरह उपदेश दे रहे हैं…इनका मंतव्य समझा जा सकता है!

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  13. @दृष्टिकोण
    मैंने किसी पार्टी का पक्ष नहीं लिया . लेकिन इन पार्टियों को जनता के सामने तो जाना पड़ता है , कोई बंदूक चला कर या खून करके तो वोट नहीं माँगा जाता या सरकार बनाई जाती है .
    देश के बाहर बैठे लोगों द्वारा प्रायोजित माओवाद से कोई देशभक्त तो नहीं एका कर सकता .आप अगर भारत को भी चीन बनाना चाहते हैं तो ?
    इस माफिया को बढ़ने देने में काँग्रेस और वाम दलों का भी बड़ा रोल है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से .

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  14. क्या कोई इतना बड़ा आंदोलन, वह भी हथियारबंद जिसे लगातार शेल्टर की ज़रूरत होती है, बिना जनसमर्थन के इतने लंबे समय तक चल सकता है?

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