देश में पूँजीवादी शोषण, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, धर्माध साम्प्रदायिकता, जातिवाद, गरीबी, बेरोजगारी और इससे उपजी अनैतिकता, लोभ-स्वार्थ जनित असामाजिक गतिविधियाँ, और भी ऐसे कई मुद्दों को दरकिनार करते हुए अभी कल ही चिदम्बरम ने नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया था कि आज छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने अब तक की सबसे बड़ी कार्यवाही को अंजाम देते हुए ‘पूँजीवादी स्टेट मशीनरी’ को भारी क्षति पहुँचाई है। देखा जाए तो देश में बदहाली की जिम्मेदार ‘स्टेट मशीनरी’ की रक्षा में लगे लाखों भारतीयों के मुकाबले महज़ पचहत्तर नौजवानों का क़त्लेआम संख्या के लिहाज़ से कोई खास मायने नहीं रखता लेकिन इस घटना का निहितार्थ बहुत गहरा है।
अभी कुछ ही महीनों पहले मध्यप्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री को उनके चुनाव क्षेत्र से टेलीफोन पर नक्सलियों के नाम से धमकी सी दी गई थी। मामला चूँकि मंत्री महोदय का था तो पुलिस ने अतिरिक्त तत्परता बरतते हुए धमकी देने वाले उन दो तथाकथित नक्सलियों को ढूँढ निकाला जो कि अपनी किसी व्यक्तिगत परेशानी में मुब्तिला, मंत्री महोदय के चुनाव क्षेत्र के अत्यंत दूरदराज के किसी गाँव के बच्चे निकले। बात आई-गई हो गई लेकिन इस घटना से यह खुलासा होता है कि सभी तरह के प्रतिबंधों के बावजूद भी नक्सल आन्दोलन मानसिक धरातल पर देश के कोने-कोने में जनमानस के बीच जा पहुँचा है। नक्सल आंदोलन का इतिहास, ध्येय, सोच-विचार, सिद्धांत, आदि-आदि कुछ भी पता ना होने के बावजूद, अन्याय के विरुद्ध एक उचित रास्ते के रूप नक्सलवाद जन-साधारण की चेतना में घर करता जा रहा है।
पूँजीवादी राज्य के लिए इससे बड़ी खतरे की घंटी दूसरी नहीं हो सकती। लेकिन सबसे दयनीय बात यह है कि सरकारें इससे निपटने के लिए ताकत के इस्तेमाल के अलावा दूसरा कोई विचार मन में नहीं लाना चाहती। आज सेना को छोड़कर, पुलिस-प्रशासन और जो कोई भी उपलब्ध पेरा मिलिट्री फोर्सेस हैं उनकी ताकत को नक्सलियों के खिलाफ इस्तेमाल कर स्टेट मशीनरी इस लघु गृहयुद्ध को जीतना चाहती हैं जो कि आयतन के रूप में लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हो सकता है कल जब आस-पड़ोस के दुश्मनों से भी ज़्यादा बड़े ये दुश्मन हो जाएँ तो जल-थल-वायुसेना को भी अपने ही इन भारतीय भाइयों का खून बहाने के लिए तैनात कर दिया जाय। इसका अंतिम नतीजा जो हो सकता है वह यह कि देश के कोने-कोने नक्सल नाम का हर प्राणी ज़मीदोज़ कर दिया जाए, मगर चेतना में जो नक्सलवाद बैठा हुआ है उसका क्या होगा इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी सरकार को नहीं है। देर-सबेर चेतना में बैठा नक्सलवाद फिर संगठित होकर सामने आएगा ही।
हम कई बार कई लोगों के मुँह से नक्सलियों की प्रशंसा सुनते रहते है, छोटे-मोटे अन्याय से परेशान होकर लोग सीधे नक्सली बनने की बातें करने लगते हैं। इससे बड़ी असफलता भारतीय राज्य की और कुछ नहीं हो सकती कि जिन लोगों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया जा रहा है उन्हें आम जनसाधारण की बीच में सहानुभूति हासिल है। कल को जब नक्सल साहित्य के ज़रिए, जो अब तक पाबंदी के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के बीच पहुँचा नहीं है, नक्सलियों की राजनैतिक विचारधारा का व्यापक प्रचार होगा तब स्थितियाँ और भी अलग होंगी।
पूँजीवादी स्टेट मशीनरी के लिए अब भी समय है कि वह अपने भी सुधार लाए। विगत बासठ वर्षों में देश की आम जनता के साथ हुए अन्याय का वास्तविक विष्लेषण किया जाए और जनविरोधी शासन-प्रशासन को अधिक प्रजातांत्रिक, जनवादी बनाया जाए। पूँजीवादी हितों को ताक पर रखते हुए रोटी, कपड़ा, मकान की आधारभूत ज़रूरतों की पूर्ति की जाए, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय को सुलभ बनाया जाए। समाज में स्वार्थ सिद्धी और नैतिक पतन की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँ। पूँजी का सैलाब जो आम जनसाधारण, व्यापक समाज के स्थान पर चंद पूँजीपतियों की तिज़ोरी की ओर बह रहा है, उसे रोका जाए।
कुल जमा बात यह है कि चाहे नक्सली हों या पेरा मिलिट्री फोर्सेस, दोनों ही पहले इस देश की आम जनता हैं। खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है। इसलिए सरकारों को जाहिए कि अब वे पूँजीवाद और ग्लोबजाइजेशन के अंधड़ में खो गए परोपकारी राज्य की ओर वापस लौटने के बारे में गंभीरता से सोचें अन्यथा खून की नदियाँ बहने से नहीं रोकी जा सकेंगी।
अभी कुछ ही महीनों पहले मध्यप्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री को उनके चुनाव क्षेत्र से टेलीफोन पर नक्सलियों के नाम से धमकी सी दी गई थी। मामला चूँकि मंत्री महोदय का था तो पुलिस ने अतिरिक्त तत्परता बरतते हुए धमकी देने वाले उन दो तथाकथित नक्सलियों को ढूँढ निकाला जो कि अपनी किसी व्यक्तिगत परेशानी में मुब्तिला, मंत्री महोदय के चुनाव क्षेत्र के अत्यंत दूरदराज के किसी गाँव के बच्चे निकले। बात आई-गई हो गई लेकिन इस घटना से यह खुलासा होता है कि सभी तरह के प्रतिबंधों के बावजूद भी नक्सल आन्दोलन मानसिक धरातल पर देश के कोने-कोने में जनमानस के बीच जा पहुँचा है। नक्सल आंदोलन का इतिहास, ध्येय, सोच-विचार, सिद्धांत, आदि-आदि कुछ भी पता ना होने के बावजूद, अन्याय के विरुद्ध एक उचित रास्ते के रूप नक्सलवाद जन-साधारण की चेतना में घर करता जा रहा है।
पूँजीवादी राज्य के लिए इससे बड़ी खतरे की घंटी दूसरी नहीं हो सकती। लेकिन सबसे दयनीय बात यह है कि सरकारें इससे निपटने के लिए ताकत के इस्तेमाल के अलावा दूसरा कोई विचार मन में नहीं लाना चाहती। आज सेना को छोड़कर, पुलिस-प्रशासन और जो कोई भी उपलब्ध पेरा मिलिट्री फोर्सेस हैं उनकी ताकत को नक्सलियों के खिलाफ इस्तेमाल कर स्टेट मशीनरी इस लघु गृहयुद्ध को जीतना चाहती हैं जो कि आयतन के रूप में लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हो सकता है कल जब आस-पड़ोस के दुश्मनों से भी ज़्यादा बड़े ये दुश्मन हो जाएँ तो जल-थल-वायुसेना को भी अपने ही इन भारतीय भाइयों का खून बहाने के लिए तैनात कर दिया जाय। इसका अंतिम नतीजा जो हो सकता है वह यह कि देश के कोने-कोने नक्सल नाम का हर प्राणी ज़मीदोज़ कर दिया जाए, मगर चेतना में जो नक्सलवाद बैठा हुआ है उसका क्या होगा इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी सरकार को नहीं है। देर-सबेर चेतना में बैठा नक्सलवाद फिर संगठित होकर सामने आएगा ही।
हम कई बार कई लोगों के मुँह से नक्सलियों की प्रशंसा सुनते रहते है, छोटे-मोटे अन्याय से परेशान होकर लोग सीधे नक्सली बनने की बातें करने लगते हैं। इससे बड़ी असफलता भारतीय राज्य की और कुछ नहीं हो सकती कि जिन लोगों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया जा रहा है उन्हें आम जनसाधारण की बीच में सहानुभूति हासिल है। कल को जब नक्सल साहित्य के ज़रिए, जो अब तक पाबंदी के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के बीच पहुँचा नहीं है, नक्सलियों की राजनैतिक विचारधारा का व्यापक प्रचार होगा तब स्थितियाँ और भी अलग होंगी।
पूँजीवादी स्टेट मशीनरी के लिए अब भी समय है कि वह अपने भी सुधार लाए। विगत बासठ वर्षों में देश की आम जनता के साथ हुए अन्याय का वास्तविक विष्लेषण किया जाए और जनविरोधी शासन-प्रशासन को अधिक प्रजातांत्रिक, जनवादी बनाया जाए। पूँजीवादी हितों को ताक पर रखते हुए रोटी, कपड़ा, मकान की आधारभूत ज़रूरतों की पूर्ति की जाए, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय को सुलभ बनाया जाए। समाज में स्वार्थ सिद्धी और नैतिक पतन की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँ। पूँजी का सैलाब जो आम जनसाधारण, व्यापक समाज के स्थान पर चंद पूँजीपतियों की तिज़ोरी की ओर बह रहा है, उसे रोका जाए।
कुल जमा बात यह है कि चाहे नक्सली हों या पेरा मिलिट्री फोर्सेस, दोनों ही पहले इस देश की आम जनता हैं। खून किसी का भी बहे नुकसान देश का ही है। इसलिए सरकारों को जाहिए कि अब वे पूँजीवाद और ग्लोबजाइजेशन के अंधड़ में खो गए परोपकारी राज्य की ओर वापस लौटने के बारे में गंभीरता से सोचें अन्यथा खून की नदियाँ बहने से नहीं रोकी जा सकेंगी।
मुझे समझ नहीं आया कि आप नक्सली कि तारीफ कर रहे हैं या सरकार कि??
जवाब देंहटाएंमैं नहीं जानता कि आप कौन हैं मगर जहाँ से भी यह लिखा गया होगा वहाँ आराम से कंप्यूटर पर बैठ कर ऐसी बाते करने से आसान काम और कुछ नहीं होता है..
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है/ अक्सर वह विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते है राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और../ लेते है सभाएं कि बदलनी है यह व्यवस्था दिलाना है इन्साफ.../ हत्यारे बड़े चालाक होते है/खादी के मैले-कुचैले कपडे पहन कर वे/ कुछ इस मसीहाई अंदाज से आते है/ कि लगता है महात्मा गांधी के बाद सीधे/ये ही अवतरित हुए है इस धरा पर/ कि अब ये बदल कर रख देंगे सिस्टम को/ कि अब हो जायेगी क्रान्ति/ कि अब होने वाला ही है समाजवाद का आगाज़/ ये तो बहुत दिनों के बाद पता चलता है कि/ वे जो खादी के फटे कुरते-पायजामे में टहल रहे थे/और जो किसी पंचतारा होटल में रुके थे हत्यारे थे./ ये वे ही लोग हैं जो दो-चार दिन बाद / किसी का बहता हुआ लहू न देखे/ साम्यवाद पर कविता ही नहीं लिख पते/ समलैंगिकता के समर्थन में भी खड़े होने के पहले ये एकाध 'ब्लास्ट'' मंगाते ही माँगते है/ कहीं भी..कभी भी..../ हत्यारे विचारधारा के जुमलों को/ कुछ इस तरह रट चुकते है कि/ दो साल के बच्चे का गला काटते हुए भी वे कह सकते है / माओ जिंदाबाद.../ चाओ जिंदाबाद.../ फाओ जिंदाबाद.../ या कोई और जिंदाबाद./ हत्यारे बड़े कमाल के होते हैं/ कि वे हत्यारे तो लगते ही नहीं/ कि वे कभी-कभी किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले/ छात्र लगते है या फिर/ तथाकथित ''फेक'' या कहें कि निष्प्राण-सी कविता के / बिम्ब में समाये हुए अर्थो के ब्रह्माण्ड में/ विचरने वाले किसी अज्ञातलोक के प्राणी./ हत्यारे हिन्दी बोलते हैं/ हत्यारे अंगरेजी बोल सकते हैं/ हत्यारे तेलुगु या ओडिया या कोई भी भाषा बोल सकते है/ लेकिन हर भाषा में क्रांति का एक ही अर्थ होता है/ हत्या...हत्या...और सिर्फ ह्त्या.../ हत्यारे को पहचानना बड़ा कठिन है/ जैसे पहचान में नहीं आती सरकारें/ समझ में नहीं आती पुलिस/उसी तरह पहचान में नहीं आते हत्यारे/ आज़ाद देश में दीमक की तरह इंसानियत को चाट रहे/ लोगों को पहचान पाना इस दौर का सबसे बड़ा संकट है/ बस यही सोच कर हम गांधी को याद करते है कि/ वह एक लंगोटीधारी नया संत/ कब घुसेगा हत्यारों के दिमागों में/ कि क्रान्ति ख़ून फैलाने से नहीं आती/ कि क्रान्ति जंगल-जंगल अपराधियों-सा भटकने से नहीं आती / क्रांति आती है तो खुद की जान देने से/ क्रांति करुणा की कोख से पैदा होती है/ क्रांति प्यार के आँगन में बड़ी होती है/ क्रांति सहयोग के सहारे खड़ी होती है/ लेकिन सवाल यही है कि दुर्बुद्धि की गर्त में गिरे/ बुद्धिजीवियों को कोई समझाये तो कैसे/ कि भाई मेरे क्रान्ति का रंग अब लाल नहीं सफ़ेद होता है/ अपनी जान देने से बड़ी क्रांति हो नहीं सकती/ और दूसरो की जान लेकर क्रांति करने से भी बड़ी/ कोई भ्रान्ति हो नहीं सकती./ लेकिन जब खून का रंग ही बौद्धिकता को रस देने लगे तो/ कोई क्या कर सकता है/ सिवाय आँसू बहाने के/ सिवाय अफसोस जाहिर करने कि कितने बदचलन हो गए है क्रांति के ये ढाई आखर जो अकसर बलि माँगते हैं/ अपने ही लोगों की/ कुल मिला कर अगर यही है नक्सलवाद/ तो कहना ही पड़ेगा-.हो बर्बाद/ प्यार मोहब्बत हो आबाद/
जवाब देंहटाएंसधा हुआ विश्लेषण।
जवाब देंहटाएं