आज विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना की छब्बीसवी वर्षगांठ है, जिसे विश्व के सबसे बडे़ औद्योगिक षड़यंत्र के रूप में याद किया जाना चाहिए। भोपाल में गैस पीड़ित बस्तियों में कुछ बद्धिजीवी लोग, कुछ सरकारी-गैर सरकारी गैस पीड़ित संगठन कुछ राजनैतिक पार्टियों, कुछ अखबार वाले कुछ न्यूज़ चैनल अपनी औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराकर कर्तव्य की इतिश्री करेंगे और उधर भारतीय पूँजीवाद, विश्व साम्राज्यवाद की बाहों में बाहें डालकर जश्न मनाएगा।
विगत 26 वर्षों के दौरान गैस पीड़ितों के प्रश्नों पर चली तमाम गतिविधियों की विवेचना करने पर एक जो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर सामने आता है वह यह है कि आखिर क्यों कर गैस पीड़ितों का आन्दोलन एक विराट आन्दोलन के रूप में उभरकर सामने नहीं आ पाया, जबकि इसमें भोपाल की गैस पीड़ित जनता के स्वास्थ्य, पुनर्वास, रोजगार और तो और सीमेंटिंग फैक्टर के रूप में काम करने वाले राहत और मुआवजे़ का प्रश्न भी शामिल था, जिसका सहारा लेकर गैस पीड़ितों के आन्दोलन को प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक लड़ाई की दिशा से पथभ्रष्ट किया गया। क्यों यह आन्दोलन एक ताकतवर आन्दोलन नही बन पाया जबकि इसमें ‘धन’ प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ मौजूद थीं। आमतौर पर यही पाया जाता है कि जब पैसा हासिल करने का मुद्दा सामने हो तो भारतीय जनमानस सक्रिय रूप से आन्दोलनों में भागीदारी निभाता है।
इस प्रश्न के उत्तर में कई एक बिन्दु सामने आते हैं। पहला यह कि मध्यप्रदेश में राजनैतिक आन्दोलनों का कोई गौरवशाली इतिहास और परम्परा कभी रहीं नहीं इसलिए आम जनता केवल वोटर के रूप में जीती रही है, जिसका फायदा उठाकर जहाँ एक ओर तमाम संसदीय पार्टियों ने गैस पीड़ितों के आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग के हितों की दलाली की मंशा-स्वरूप गैस पीड़ितों के आन्दोलन को नष्ट करने का काम किया वहीं गैर सरकारी संगठनों और उनके प्रतिनिधियों ने जनवादी राजनैतिक चेतना के अभाव में गैस पीड़ितों की लड़ाई को एक राजनैतिक लड़ाई के रूप में खड़ा ना कर मामूली धरना-प्रदर्शन की औपचारिकता एवं कानूनी दांवपेचों में फँसाकर नष्ट करने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारनामा अंजाम दिया। जनता की लड़ाइयों को अदालतों में ले जाकर सीमित कर देने वाले इन संगठनों से पूछा जाना चाहिए कि -‘‘क्या होता अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अदालतों में लड़ा जाता.........? इसका एक ही जवाब है कि भारतीय आम जनता युगों-युगों तक आज़ादी की साँस नहीं ले पाती।’’
गैस पीड़ितों के सवालों पर मध्यप्रदेश और भारत सरकार की कुर्सियों पर समय-समय पर काबिज पार्टियों, ब्यूरोक्रेट्स, कानून, अदालत इत्यादि-इत्यादि ने जो विश्वासघात किये वे तो अपनी जगह पर हैं, और जब जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं, परन्तु जो लोग लम्बे समय से गैस पीड़ितों के आंदोलन का नेतृत्व करने का भ्रम पाले हुए विगत 26 वर्षों से अपनी दुकानें चला रहे हैं, उन सभी को एक बार अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कारण है वे गैस पीड़ितों की लड़ाई का सफल प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। इस बात पर भी उन्हें मंथन करना चाहिए कि जब लड़ाई के मुद्दे समान हैं तो अलग-अलग ढेर सारे संगठनों की आखिर ज़रूरत क्या है ? क्यों नहीं वे तमाम छोटे-मोटे संगठन लड़ाई को साझी लड़ाई के रूप में आत्मसात कर मज़बूत बना पाते ? ज़ाहिर है वे सब भी अन्ततः उन लोगों के स्वार्थ को सधने दे रहे हैं जिनका ध्येय है कि गैस पीड़ितों की लड़ाई ताकतवर रूप में खड़ी होकर कभी भी उनके आड़े ना आ सके, और यह स्थार्थ यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमरीकी साम्राज्यवाद और भारतीय पूँजीवाद के जनविरोधी गठबंधन के अलावा किसका हो सकता है ? गैस पीड़ितों के भीतर यह चेतना फूँकने वाला कोई नहीं, यहीं उनका दुर्भाग्य है।
विगत 26 वर्षों के दौरान गैस पीड़ितों के प्रश्नों पर चली तमाम गतिविधियों की विवेचना करने पर एक जो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर सामने आता है वह यह है कि आखिर क्यों कर गैस पीड़ितों का आन्दोलन एक विराट आन्दोलन के रूप में उभरकर सामने नहीं आ पाया, जबकि इसमें भोपाल की गैस पीड़ित जनता के स्वास्थ्य, पुनर्वास, रोजगार और तो और सीमेंटिंग फैक्टर के रूप में काम करने वाले राहत और मुआवजे़ का प्रश्न भी शामिल था, जिसका सहारा लेकर गैस पीड़ितों के आन्दोलन को प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक लड़ाई की दिशा से पथभ्रष्ट किया गया। क्यों यह आन्दोलन एक ताकतवर आन्दोलन नही बन पाया जबकि इसमें ‘धन’ प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ मौजूद थीं। आमतौर पर यही पाया जाता है कि जब पैसा हासिल करने का मुद्दा सामने हो तो भारतीय जनमानस सक्रिय रूप से आन्दोलनों में भागीदारी निभाता है।
इस प्रश्न के उत्तर में कई एक बिन्दु सामने आते हैं। पहला यह कि मध्यप्रदेश में राजनैतिक आन्दोलनों का कोई गौरवशाली इतिहास और परम्परा कभी रहीं नहीं इसलिए आम जनता केवल वोटर के रूप में जीती रही है, जिसका फायदा उठाकर जहाँ एक ओर तमाम संसदीय पार्टियों ने गैस पीड़ितों के आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग के हितों की दलाली की मंशा-स्वरूप गैस पीड़ितों के आन्दोलन को नष्ट करने का काम किया वहीं गैर सरकारी संगठनों और उनके प्रतिनिधियों ने जनवादी राजनैतिक चेतना के अभाव में गैस पीड़ितों की लड़ाई को एक राजनैतिक लड़ाई के रूप में खड़ा ना कर मामूली धरना-प्रदर्शन की औपचारिकता एवं कानूनी दांवपेचों में फँसाकर नष्ट करने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारनामा अंजाम दिया। जनता की लड़ाइयों को अदालतों में ले जाकर सीमित कर देने वाले इन संगठनों से पूछा जाना चाहिए कि -‘‘क्या होता अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अदालतों में लड़ा जाता.........? इसका एक ही जवाब है कि भारतीय आम जनता युगों-युगों तक आज़ादी की साँस नहीं ले पाती।’’
गैस पीड़ितों के सवालों पर मध्यप्रदेश और भारत सरकार की कुर्सियों पर समय-समय पर काबिज पार्टियों, ब्यूरोक्रेट्स, कानून, अदालत इत्यादि-इत्यादि ने जो विश्वासघात किये वे तो अपनी जगह पर हैं, और जब जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं, परन्तु जो लोग लम्बे समय से गैस पीड़ितों के आंदोलन का नेतृत्व करने का भ्रम पाले हुए विगत 26 वर्षों से अपनी दुकानें चला रहे हैं, उन सभी को एक बार अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कारण है वे गैस पीड़ितों की लड़ाई का सफल प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। इस बात पर भी उन्हें मंथन करना चाहिए कि जब लड़ाई के मुद्दे समान हैं तो अलग-अलग ढेर सारे संगठनों की आखिर ज़रूरत क्या है ? क्यों नहीं वे तमाम छोटे-मोटे संगठन लड़ाई को साझी लड़ाई के रूप में आत्मसात कर मज़बूत बना पाते ? ज़ाहिर है वे सब भी अन्ततः उन लोगों के स्वार्थ को सधने दे रहे हैं जिनका ध्येय है कि गैस पीड़ितों की लड़ाई ताकतवर रूप में खड़ी होकर कभी भी उनके आड़े ना आ सके, और यह स्थार्थ यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमरीकी साम्राज्यवाद और भारतीय पूँजीवाद के जनविरोधी गठबंधन के अलावा किसका हो सकता है ? गैस पीड़ितों के भीतर यह चेतना फूँकने वाला कोई नहीं, यहीं उनका दुर्भाग्य है।
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