रविवार, 5 सितंबर 2010

शिक्षक दिवस : क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ‘शिक्षकों’ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए

    आज शिक्षक दिवस है। सारे अखबार या तो शिक्षकों की बदहाली अथवा प्रशंसा से भरे हुए हैं। अच्छी बात है, जो शिक्षक हमें एक सफल सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अपनी रचनात्मक भूमिका निभाकर एक महान कार्य करता है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना एक सुशिक्षित व्यक्ति के लिए लाज़मी है और दूसरी और इस महती सामाजिक कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाली महत्वपूर्ण इकाई के प्रति सरकार के असंवेदनशील रुख की भर्त्सना करना भी उतना ही ज़रूरी है।
    सरकार का शिक्षकों को दोयम दर्ज़े के सरकारी कर्मचारी की तरह ट्रीट करना, उनके वेतन, भत्तों, सुख-सुविधाओं के प्रति दुर्लक्ष्य करना, उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य से विमुख करना, इनके अलावा और भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक शिक्षक की भूमिका और महत्व को सिरे से खारिज करते से लगते हैं। लेकिन, इस सबसे परे, शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।
    पिछले दो-तीन सौ साल मानव सभ्यता के करोड़ों वर्षों के इतिहास में, विज्ञान के विकास की स्वर्णिम समयावधि रही है। इस अवधि में प्रकृति, विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के अधिकांश रहस्यों पर से पर्दा उठाकर सभ्यता ने व्यापक क्रांतिकारी करवटें ली हैं। एक अतिप्राकृतिक सत्ता की अनुपस्थिति का दर्शन भी इसी युग में आविर्भूत हुआ है जिसकी परिणति दुनिया भर में मध्ययुगीन सामंती समाज के खात्में के रूप में हुई थी जिसका अस्तित्व ही ईश्वरीय सत्ता की अवास्तविक अवधारणा पर टिका हुआ था।
    भारतीय समाज में सामंती समाज की अवधारणाओं, मूल्यों का पूरी तौर पर पतन आज तक नहीं हो सका है और ना ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की समझदारी, आधुनिक चिंतन, विचारधारा का व्यापक प्रसार ही हो सका है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस समाज में ’सत्य-सत्य‘ का डोंड सामंती समय से ही पीटा जाता रहा हो उस समाज में ’सत्य‘ सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है।
    हमें आज़ाद हुए 62 वर्ष से ज़्यादा हो गए, देश आज भी सामंत युगीय अज्ञान एवं कूपमंडूकता की गहरी खाई में पड़ा हुआ है। धर्म एवं भारतीय संस्कृति के नाम अवैज्ञानिक क्रियाकलापों कर्मकांडों का ज़बरदस्त बोलबाला हमारे देश में देखा जा सकता है। क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ? क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’शिक्षकों‘ की नहीं थी ? क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’शिक्षकों‘ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ? क्या मध्ययुगीन अवधारणाओं के दम पर विश्व गुरू होने का फालतू दंभ चूर चूर कर, वास्तव में ज्ञान की वह ’सरिता‘ प्रवाहित करना एक अत्यावश्यक ऐतिहासिक कार्य नहीं था जिसके ना हो सकने का अपराध किसी और के सिर पर नहीं प्रथमतः शिक्षकों के ही सिर पर है।
    अब भी समय है, प्रकृति मानव समाज एवं विश्व ब्रम्हांड के सत्य को गहराई में जाकर समझने और एकीकृत ज्ञान के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त अंधकार को दूर करने की लिए प्रत्येक शिक्षक आज भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है, बशर्ते वह अपने तईं ना केवल ईमानदार हो बल्कि सत्य के लिए प्राण तक तजने को तैयार हो।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सामयिक प्रस्तुति...
    शिक्षक दिवस के पावन अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई...

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  2. "शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।"

    काफ़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है।

    शिक्षक होना अभी चुनाव का वि्षय नहीं है, यह विकल्पहीनता से उपजा दोयम दर्ज़े का सा काम बना हुआ है। इसीलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपृक्त शिक्षण कार्य को गंभीरता से लेने वाले शिक्षकों का अभाव है। व्यवस्था भी यही चाहती है।

    वैज्ञानिक चिंतन से परिपूर्ण शिक्षा उसके ताबूत में कीलें ठोकने का कार्य करने में सक्षम हो सकती है, इसलिए वह इसे यथास्थिति कायम रखने वाले पुर्जों के उत्पादन तक ही सीमित रखना चाहती है।

    महत्त्वपूर्ण आलेख।
    शुक्रिया।

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  3. क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ?

    हाँ शिक्षक का ये कर्तव्य अवश्य था पर जब जब किसी 'चाणक्य' ने एक और 'चन्द्रगुप्त' को तैयार करने की चेष्टा की आप जैसे बड़ी बातें करने वाले उनके माता पिता ने उस गुरु की कोशिशों पर पानी फेर दिया । फर्राटेदार हिंदी भाषा का उपयोग कर आप शिक्षकों के मत्थे कोई अपराध क्यों मढना चाहते हैं? आपकी हिंदी बहुत अच्छी है, समाज सुधार की इच्छा भी आपके लेखों में दिखाई दे रही है, क्यों नही आप खुद ये बीड़ा उठाकर एक उदाहरण प्रस्तुत करते की किस तरह से समाज और देश को पतन से उत्थान की ओर अग्रसक किया जा सकता है। हमारे देश में बड़ी बातें करने वाले लोग बहुत हैं, परोपदेश देने वाले सैकड़ों मिल जायेंगे, उनके उपदेश को पढ़कर सराहने वाले भी बहुत मिल जायेंगे पर कर्म करने वाला अर्जुन नही मिलता। आपके लिए मुफ्त की एक सलाह है चाहें तो न अपनाएं -

    "कोई भी लेख लिखने से पहले आप ये देख लें की जिस समस्या की आप बात कर रहे हैं उसे दूर करने के लिए क्या आप कुछ कर सकते थे, या आप भी हजारों लोगों की तरह एक और लेख लिख कर 'शिक्षक दिवस' जैसी अनमोल परंपरा जो की विद्यार्थियों को याद दिलाती है की शिक्षक का स्थान पिता या भगवान से कुछ कम नही पर थूकने जा रहे हैं।"

    उम्मीद करता हूँ की अपनी अच्छी हिंदी का उपयोग आप कुछ अच्चा लिखने के लिए करेंगे; दोषारोपण या परम्पराओं और संस्कृति पर थूकने के लिए नही।

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