मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

राजधानी भोपाल में किसानों का हल्ला बोल.......



          राजधानी भोपाल में प्रदेश भर के किसानों ने ऐन मुख्यमंत्री बंगले के नीचे जबरदस्त धरना देकर अपनी ताकत दिखा दी है। कल दिन भर भोपाल में आम जनता की आवाजाही एवं तमाम प्रशासनिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुई। आज के अखबारों में किसानों एवं उनके नेताओं के बयान छपे है कि जब उनकी परेशानियाँ किसी को नहीं दिखती तो वे भी किसी की परेशानियाँ क्यों देखें। किसान अपने साथ खाने-पीने का सामान और सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर के आएँ है जिससे लगता है कुछ दिन और राजधानी को उनकी कैद में रहना पडे़गा। 
          धरना भारतीय किसान संघ का है जो कि भारतीय जनता पार्टी का ही भाई-बंद है और राष्ट्रीय सेवक संघ का जाया संगठन है इसलिए इस आयोजन को शक की निगाह से देखा जाना जरूरी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान जो कि आमतौर पर धरना-प्रदर्शनों पर लाठी चार्ज करने में आगे-पीछे नहीं देखते, और अभी कुछ ही दिनों पहले मास्टरों की अच्छी खासी मरम्मत करके उन्हें राजधानी से भगाया गया था, ऐसे में कई महीनों से चल रही किसानों की तैयारी और उनके आक्रामक मूढ़ को न भांप पाकर आज शिवराज प्रशासन पंगु होकर रह गया है यह मानना सरासर नादानी होगी। हमें लगता है कि यह धरना भारतीय जनता पार्टी के उस गुट का प्रायोजित धरना हो सकता है जो शिवराज की राहों में कांटे बिछाने की कई कोशिशें कर चुके हैं और अभी भी करते आ रहे हैं, या फिर जिस तरह से पुलिस-प्रशासन आन्दोलनकारियों के साथ दोस्ताना रवैया अपनाए हुए है उससे लगता है कि इसमें शिवराज सिंह चौहान की ही कोई चाल हो सकती है। यदि शिवराज की चाल है तो खुद उनके विरोधी एक दो दिन में इसका खुलासा कर देंगे, ऐसी उम्मीद है।
          बहरहाल, जो भी हो किसान चाहे भारतीय किसान संघ का किसान हो या किसी और संगठन से जुड़ा किसान, उसकी समस्याओं को पूँजीवादी घरानों की दादागिरी के इस दौर में जिस तरह से नज़रअन्दाज़ किया जा रहा था, उसका प्रतिफल तो मौजूदा पूँजीवाद परस्त सरकारों को मिलना ही चाहिए था। देशभर में जिस तरह किसानों के साथ भेदभाव, षड़यंत्र चल रहे है उसके खिलाफ किसान को एक जुट होना बेहद जरूरी था वर्ना कृषि और किसानों का सर्वनाश सुनिश्चित था। इस धरने में शामिल किसान राजनैतिक रूप से कितने सचेत हैं और अपने ऊपर हो रहे पूँजीवादी हमलों से कितना वाकीफ हैं कहना मुश्किल है, मगर तमाम तथाकथित प्रजातांत्रिक सरकारें जनता की असली ताकत को भूलकर, उन्हें महज वोट समझकर जिस तरह राजकाज चलाती आ रहीं हैं, उन्हें किसानों के इस आक्रामक मूढ़ से डरकर उनके हित में राजकाज चलाना सीखना होगा वर्ना यह तय है कि आने वाले समय में देश की केन्द्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें किसानों और आम जनता के इस आक्रोश से बच नहीं पाएँगी। जनता एक ना एक दिन सच्चाई समझ जाती है और संगठित होकर तख्ते पलटती है आज के पूंजीपरस्त राजनेता इस बात को अगर भूल गए हों तो फिर से याद करलें।
          भोपाल में किसानों का यह हल्ला बोल आन्दोलन राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से परे पूरे देश के किसानों में फैल सकता है और एक राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन में तब्दील हो सकता है इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
पुनश्च- आज राजधानी भोपाल के सारे अखबार किसानों के इस धरने से जनता को हो रही परेशानी की खबरों से भरे पड़े हैं, वे यदि आम जनता को किसानों की परेशानी विस्तार से बताते तो ज़्यादा अच्छा रहता। आखिर किसान राजधानियों की तमाम सुविधाभोगी आम जनता के लिए अन्न उपजाता, है इस बात को नहीं भूलना चाहिए।         

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

गैस त्रासदी 26वी वर्षगांठ - जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं......

    आज विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना की छब्बीसवी वर्षगांठ है, जिसे विश्व के सबसे बडे़ औद्योगिक षड़यंत्र के रूप में याद किया जाना चाहिए। भोपाल में गैस पीड़ित बस्तियों में कुछ बद्धिजीवी लोग, कुछ सरकारी-गैर सरकारी गैस पीड़ित संगठन कुछ राजनैतिक पार्टियों, कुछ अखबार वाले कुछ न्यूज़ चैनल अपनी औपचारिक उपस्थिति दर्ज कराकर कर्तव्य की इतिश्री करेंगे और उधर भारतीय पूँजीवाद, विश्व साम्राज्यवाद की बाहों में बाहें डालकर जश्न मनाएगा।
    विगत 26 वर्षों के दौरान गैस पीड़ितों के प्रश्नों पर चली तमाम गतिविधियों की विवेचना करने पर एक जो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरकर सामने आता है वह यह है कि आखिर क्यों कर गैस पीड़ितों का आन्दोलन एक विराट आन्दोलन के रूप  में उभरकर सामने नहीं आ पाया, जबकि इसमें भोपाल की गैस पीड़ित जनता के स्वास्थ्य, पुनर्वास, रोजगार और तो और सीमेंटिंग फैक्टर के रूप  में काम करने वाले राहत और मुआवजे़ का प्रश्न भी शामिल था, जिसका सहारा लेकर गैस पीड़ितों के आन्दोलन को प्रारम्भ से ही एक राजनैतिक लड़ाई की दिशा से पथभ्रष्ट किया गया। क्यों यह आन्दोलन एक ताकतवर आन्दोलन नही बन पाया जबकि इसमें ‘धन’ प्राप्ति की अपार सम्भावनाएँ मौजूद थीं। आमतौर पर यही पाया जाता है कि जब पैसा हासिल करने का मुद्दा सामने हो तो भारतीय जनमानस सक्रिय रूप से आन्दोलनों में भागीदारी निभाता है।
    इस प्रश्न के उत्तर में कई एक बिन्दु सामने आते हैं। पहला यह कि मध्यप्रदेश में राजनैतिक आन्दोलनों का कोई गौरवशाली इतिहास और परम्परा कभी रहीं नहीं इसलिए आम जनता केवल वोटर के रूप में जीती रही है, जिसका फायदा उठाकर जहाँ एक ओर तमाम संसदीय पार्टियों ने गैस पीड़ितों के आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग के हितों की दलाली की मंशा-स्वरूप गैस पीड़ितों के आन्दोलन को नष्ट करने का काम किया वहीं गैर सरकारी संगठनों और उनके प्रतिनिधियों ने जनवादी राजनैतिक चेतना के अभाव में गैस पीड़ितों की लड़ाई को एक राजनैतिक लड़ाई के रूप  में खड़ा ना कर मामूली धरना-प्रदर्शन की औपचारिकता एवं कानूनी दांवपेचों में फँसाकर नष्ट करने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारनामा अंजाम दिया। जनता की लड़ाइयों को अदालतों में ले जाकर सीमित कर देने वाले इन संगठनों से पूछा जाना चाहिए कि -‘‘क्या होता अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अदालतों में लड़ा जाता.........? इसका एक ही जवाब है कि भारतीय आम जनता युगों-युगों तक आज़ादी की साँस नहीं ले पाती।’’
    गैस पीड़ितों के सवालों पर मध्यप्रदेश और भारत सरकार की कुर्सियों पर समय-समय पर काबिज पार्टियों, ब्यूरोक्रेट्स, कानून, अदालत इत्यादि-इत्यादि ने जो विश्वासघात किये वे तो अपनी जगह पर हैं, और जब जन आन्दोलन कमज़ोर हो तो ये सभी संस्थाएँ ऐसे विश्वासघात करतीं ही हैं, परन्तु जो लोग लम्बे समय से गैस पीड़ितों के आंदोलन का नेतृत्व करने का भ्रम पाले हुए विगत 26 वर्षों से अपनी दुकानें चला रहे हैं, उन सभी को एक बार अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कारण है वे गैस पीड़ितों की लड़ाई का सफल प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। इस बात पर भी उन्हें मंथन करना चाहिए कि जब लड़ाई के मुद्दे समान हैं तो अलग-अलग ढेर सारे संगठनों की आखिर ज़रूरत क्या है ? क्यों नहीं वे तमाम छोटे-मोटे संगठन लड़ाई को साझी लड़ाई के रूप में आत्मसात कर मज़बूत बना पाते ? ज़ाहिर है वे सब भी अन्ततः उन लोगों के स्वार्थ को सधने दे रहे हैं जिनका ध्येय है कि गैस पीड़ितों की लड़ाई ताकतवर रूप में खड़ी होकर कभी भी उनके आड़े ना आ सके, और यह स्थार्थ यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन, अमरीकी साम्राज्यवाद और भारतीय पूँजीवाद के जनविरोधी गठबंधन के अलावा किसका हो सकता है ? गैस पीड़ितों के भीतर यह चेतना फूँकने वाला कोई नहीं, यहीं उनका दुर्भाग्य है।       

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

अरुंधति का अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए


     अरुधंति राय के बहाने तथाकथित राष्ट्रवादियों को फिर मौका मिल गया है राष्ट्र-राष्ट्र चिल्लाने का। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस देश ने 200 साल तक अंग्रेज़ों के साथ कठिन संघर्ष करके यह स्वतंत्रता हासिल की है, उस देश में एक महिला का किसी की स्वतंत्रता की लड़ाई को समर्थन देना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि उसे फाँसी देने की माँग उठने लगी है। ज़ाहिर ऐसे लोगों का स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ अवश्य ही कुछ लेना-देना नहीं रहा होगा।
            अरुधंति ने क्या गलती की इस पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले देखें कि आखिर यह राष्ट्र आखिर किसे कहा जा रहा है। दुनिया जानती है कि अंग्रेज़ों के इस भूभाग पर कब्ज़ा करने के पहले भारत जैसा कोई भी देश अस्तित्व में नहीं था, यह कई सारे राजे-रजवाड़ों, रियासतों का एक समूह था जिसमें अलग-अलग भाषा, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों का निवास था। सबका अपना आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आधार था, उनकी अपनी राष्ट्रीयता थी। अनेक राष्ट्रीयताओं के इस समूह को अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी इरादों के मद्देनज़र एक सूत्र में पिरोया जिसे इन्डिया कहा गया। स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ताकत से लोहा लेने के लिए इसी एक सूत्र में आबद्ध राजनैतिक ढॉचे के आधार पर स्वतंत्रता आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन कहा गया। कालान्तर में जब गांधी जी के नेतृत्व में चले आन्दोलन के परिणाम स्वरूप अंग्रेज यह देश छोड़कर चले गए तो हमारी देशी सरकार को विरासत में वही साम्राज्यवादी नज़रिया देकर गए जिसके आधार पर भविष्य में भारत सरकार ने अपने गठन के बाद कई रियासतों को जबरदस्ती इस देश भारत का हिस्सा बना लिया। गोवा की बात अगर ना भी निकाली जाए क्योंकि वहाँ पुर्तगालियों का शासन था, और गोवा के लोग भारत की ताकत के दम पर उससे मुक्ति पाना भी चाहते थे लेकिन फिर भी मदद के बहाने भारत की गोवा को अपने अधीन कर लेने की विस्तारवादी कोशिशों के खिलाफ वहाँ कोई आन्दोलन नहीं हुआ हो ऐसी बात नहीं है। लेकिन, हैदराबाद में तो बाकायदा निज़ाम के खिलाफ भारतीय सेना को उतारा जाकर उसे ज़बरदस्ती संधीय भारत में शामिल किया गया। और भी ऐसी कई रियासतें रहीं है हम जानते हैं। प्रश्न यह है कि कश्मीर सहित ऐसी सारी रियासतों को जिन्हें भारत ने अपने अधीन ले लिया वहाँ की आम जनता से क्या पूछा गया कि वे क्या चाहते हैं ? कभी नहीं ?
            कश्मीर का सवाल भी इसी तरह का है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का नज़रिया क्या है और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का इस मुद्दे पर क्या स्टेंड है इसे दरकिनार रखकर, पूछा जाय तो क्या आज़ादी की महान लड़ाई लड़ चुके राष्ट्र को अपने अधीन किसी भी राज्य, जिसकी अपनी निजी राष्ट्रीयता है, जो सास्कृतिक, सामाजिक, रूप से अपनी एक निजी पहचान रखता है, की जनता से यह जान लेना क्या आवश्यक और प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों के अनुरूप नहीं है कि वे क्या चाहते है ? या उन्हें हमेशा ही डंडे के दम पर यह कहा जाएगा कि अपने हक में स्वतंत्रता की बात करोगे तो राष्ट्रद्रोही करार दिये जाकर जेल में सड़ा दिया जाएगा। क्या यह नज़रिया तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के समान ही नहीं नज़र आता जो उस वक्त आज़ादी की माँग करने वालों को फॉसी पर चढ़ा दिया करते थे क्योंकि यह माँग उनकी साम्राज्यवादी मंसूबों पर पानी फेरने वाली माँग थी।
            आज यदि कश्मीर की आमजनता यह चाहती है कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए, तो इसे हम अपने प्रजातंत्र की नाकामी क्यों नहीं मानते ? क्यों नहीं हम यह स्वीकार कर लेते कि हमने अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को मिलाकर एक राष्ट्र तो बना लिया मगर हम एक राष्ट्रीय संस्कृति विकसित करने में असफल रहे हैं जो हमारे अलग-अलग राष्ट्रीयताओं वाले देश को एक सूत्र में पिरो पाती। क्यों हमारे देश में अब भी भाषा, और प्रांतीय झगड़े मौजूद हैं। क्यों मुम्बई में मराठियों के द्वारा गैर मराठियों का जीना हराम किया जाता है। इसका जवाब एक ही है कि हमारा राजनैतिक और आर्थिक ढॉचा आज़ादी के बाद से लेकर अब तक मात्र और मात्र दोहन में लगा रहा है और अब भी लगा हुआ है। यदि हम प्रजातांत्रिक मूल्यबोधों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए एक राष्ट्रीय संस्कृति का विकास करने में सफल हुए होते तो ना तो कश्मीर का झंझट खड़ा होता और ना ही देश के और दूसरे कोने अपने आप में भीतर ही भीतर सुलग रहे होते।
            अरुंधति ने कश्मीर की स्वतंत्रता के मुद्दे को आम जनता का मुद्दा मानते हुए उसका समर्थन किया है। उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी मुल्क की आम जनता कभी स्वयंस्फूर्त रूप से कुछ नहीं करती। पूँजीवाद के दौर में स्वतंत्रता का मुद्दा छोटे पूँजीवादियों का बड़े पूँजीखोरों के पंजे से मुक्ती का मुद्दा होता है। हिन्दुस्तान से अलग होकर पाकिस्तान बनने की भी यही कहानी थी, भारतीय पूँजीवाद जिसके हाथों अंग्रेज सत्ता का हस्तांतरण कर गए थे पाकिस्तान का स्थानीय पूँजीपति असुरक्षित महसूस करता था, इसीलिए उसने अपने विकास के लिए अलग राष्ट्र के सिद्धांत को अपनाया। बांगलादेश बनने की भी यही कहानी है। पूर्वी बंगाल में छोटे पूँजीपति चूँकि पाकिस्तानी पूँजी के हाथों बरबाद हो रहे थे तो उसने अपने दादा भारतकी मदद से अपने आप को पाकिस्तान के पंजे से छुड़ा लिया, और भारत में शामिल होने की बजाय स्वतंत्र अस्तित्व का चुनाव किया।
            अरुंधति को यह समझना चाहिए था कि असली मुक्ति किस चीज़ में है। कश्मीर की आम जनता तब तक सुखी नहीं हो सकती जब तक पूँजीवाद का अंत नहीं होता। कश्मीरी स्थानीय पूँजीवाद पाकिस्तानी पूँजी के दम पर कितना भी उछलता रहे मगर वहाँ की आम जनता को तभी सुख मिलेगा जब उसके आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक हित पूँजीवादी ताकतों से छुटकारा पा सकें। अरुंधति को यह जानना चाहिए, और वे शायद अच्छी तरह जानती हैं कि यह देश घोर प्रजांतांत्रिक अवमूल्यन की समस्या से पीड़ित है, समानता यहाँ दूभर हो चुकि है, आर्थिक विषमता एक पाटी ना जा सकने वाली खाई के समान है, और यह कश्मीर समेत पूरे देश की समस्याएँ है। ऐसी स्थिति में कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन जो कि किसी भी सूरत में वहाँ की आम जनता मजदूर वर्ग का आंदोलन नहीं है, भारतीय पूँजीवाद की छत्रछाया में छटपटाते कश्मीरी पूँजीवाद का आन्दोलन मात्र ही उसे कहा जा सकता है तब उन्होंने उनके सुर में सुर मिला कर अच्छा तो खैर किसी दृष्टि से नहीं किया, लेकिन फिर भी उनका अपराध इतना बड़ा भी नहीं है कि उनके साथ फासिस्ट तौर तरीकों से पेश आया जाए, फॉसी देने की बात की जाए। वे सही कह रहीं है, देश में इस समय नाना तरीके के देशद्रोह के अपराधी खुले आम घूम रहे हैं उन्हें छुट्टा छोड़कर देश की एक प्रबुद्ध महिला को इस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर प्रताड़ित किया जाए, ऐसा राष्ट्रवाद अपनी तो समझ के परे है।               

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेन्च के फ़ैसले पर जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान
            रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
           यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए।एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
          हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
         लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।

हस्ताक्षरकर्ता मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
मैनेजर पाण्डेय, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
आली जावेद, उप महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच, लखनऊ की पत्रिका के ब्लॉग जसम लखनऊ से साभार।

रविवार, 12 सितंबर 2010

गणपति बप्पा : ईश्वर कहीं नहीं, सिवा इन्सानी दिमाग के

       दुनिया के सबसे अनोखे देव इस समय भारतवर्ष के कुछ गली कूचों में आ बिराजे हैं, भक्त समाज अपने दिमाग की खिड़कियाँ बंदकर उनकी भक्ति में लीन हो गया है। आठ दस दिन बाद इन्हें नदी तालाबों में विसर्जित कर प्रदूषण बढ़ाया जाएगा।
    भारतीयों की उदारता का कोई जवाब नहीं है। वे प्रत्येक असंभव बात पर आँख बंदकर विश्वास कर लेते हैं यदि उसमें ईश्वर की महिमा मौजूद हो। पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया और नहाने की क्रिया के दौरान कोई ताकाझांकी ना करे इसलिए उस पुतले में प्राण फूँक कर उसे पहरे पर बिठा दिया। ऐसा कितना मैल पार्वती जी के शरीर से निकला होगा इस प्रश्न पर ना जाकर यह सोचा जाए कि पुतले में कैसे कोई प्राण फूँक सकता है, लेकिन चूँकि वे भगवान शिव की पत्नी थीं सो उनके लिए सब संभव था। दूसरा प्रश्न, भगवान की पत्नी को भी ताकाझांकी का डर ! बात कुछ पचती नहीं। किसकी हिम्मत थी जो इतने क्रोधी भगवान की पत्नी की ओर नहाते हुए ताकझांक करता !
    खैर, ज़ाहिर है कि चूँकि पुतला तत्काल ही बनाया गया था सो वह शिवजी को कैसे पहचानता ! पिता होने का कोई भी फर्ज़ उन्होंने उस वक्त तक तो निभाया नहीं था ! माता के आज्ञाकारी पुतले ने शिवजी को घर के अन्दर घुसने नहीं दिया तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन उड़ा दी। उस वक्त कानून का कोई डर जो नहीं था। पार्वती जी को पता चला तो उन्होंने बड़ा हंगामा मचाया और ज़िद पकड़ ली की अभी तत्काल पुतले को ज़िदा किया जाए, वह मेरा पुत्र है। शिवजी को पार्वती जी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा परन्तु भगवान होने के बावजूद भी वे गुड्डे का सिर वापस जोड़ने में सक्षम नहीं थे। सर्जरी जो नहीं आती थी। परन्तु शरीर विज्ञान के नियमों को शिथिल कर अति प्राकृतिक कारनामा करने में उन्हें कोई अड़चन नहीं थी, आखिर वे भगवान थे। उन्होंने हाल ही में जनी एक हथिनी के बच्चे का सिर काटकर उस पुतले के धड़ से जोड़ दिया। ना ब्लड ग्रुप देखने की जरूरत पड़ी ना ही रक्त शिराओं, नाड़ी तंत्र की भिन्नता आड़े आई। यहाँ तक कि गरदन का साइज़ भी समस्या नहीं बना। पृथ्वी पर प्रथम देवता गजानन का अविर्भाव हो गया।
  
प्रथम देवता की उपाधि की भी एक कहानी बुज़र्गों के मुँह से सुनी है। देवताओं में रेस हुई। जो सबसे पहले पृथ्वी के तीन चक्कर लगाकर वापस आएगा उसे प्रथम देवता का खिताब दिया जाएगा। उस वक्त पृथ्वी का आकार यदि देवताओं को पता होता तो वे ऐसी मूर्खता कभी नहीं करते। गणेशजी ने सबको बेवकूफ बनाते हुए पार्वती जी के तीन चक्कर लगा दिए और देवताओं को यह मानना पड़ा कि माँ भी पृथ्वी तुल्य होती है। गणेश जी को उस दिन से प्रथम देवता माना जाने लगा। बुद्धि का देवता भी उन्हें शायद तभी से कहा जाने जाता है, उन्होंने चतुराई से सारे देवताओं को बेवकूफ जो बनाया। आज अगर ओलम्पिक में अपनी मम्मी के तीन चक्कर काटकर कोई कहें कि हमने मेराथन जीत ली तो रेफरी उस धावक को हमेशा के लिए दौड़ने से वंचित कर देगा।  आज का समय होता तो मार अदालतबाजी चलती, वकील लोग गणेश जी के जन्म की पूरी कहानी को अदालत में चेलेन्ज करके माँ-बेटे के रिश्ते को ही संदिग्ध घोषित करवा देते।
    बहरहाल, इस बार भारत में गणेशजी ऐसे समय में बिराजे हैं जबकि दुनिया में ईश्वर है या नहीं बहस तेज हो गई है। इस ब्रम्हांड को ईश्वर ने बनाया है कि नहीं इस पर एक वैज्ञानिक ने संशय जताया जा रहा है जिसे पूँजीवादी प्रेस प्रचारित कर रहा है। जो सत्य विज्ञान पहले से ही जानता है और जिसे जानबूझकर मानव समाज से छुपाकर रखा गया है, उसे इस नए रूप में प्रस्तुत करने के पीछे क्या स्वार्थ हो सकता है सोचने की बात यह है। क्या विज्ञान की सभी शाखाओं को समन्वित कर प्रकृति विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के सत्यों को पहले कभी उद्घाटित नहीं किया गया ? किया गया है, परन्तु यह काम मार्क्सवाद ने किया है, इसीलिए वह समस्त विज्ञानों का विज्ञान है, परन्तु चूँकि वह शोषण से मुक्ति का भी विज्ञान है, इसलिए उसे आम जनता से दूर रखा जाता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-ऐतिहासिक भौतिकवाद को लोगों से छुपाकर रखा जाता है, जबकि अगर कोई सचमुच सत्य को खोजना चाहता है तो इस सर्वोन्नत विज्ञान को जानना बहुत ज़रूरी है।
    लोग ईश्वर की खोज के पीछे पड़े हैं। हम कहते हैं कि ईश्वर की समस्त धारणाएँ धर्म आधारित हैं, तो पहले यह खोज कीजिए कि धर्म कहाँ से आया, कैसे आया। धार्मिक मूल्य अब इस जम़ाने में मौजू है या नहीं। मध्ययुगीन धार्मिक मूल्यों के सामने आधुनिक मूल्यों का दमन क्यों किया जाता है। यदि आप यह समझ गए कि अब आपको मध्ययूगीन धार्मिक मूल्यों की जगह नए आधुनिक मूल्यों की आवश्यकता है जो वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित हों, तो ईश्वर की आपको कोई ज़रूरत नहीं पडे़गी।
    एक मोटी सी बात लोगों के दिमाग में जिस दिन आ जाएगी कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है, सारे अनसुलझे प्रश्न सुलझ जाऐंगे। क्योंकि पदार्थ (मस्तिष्क) इस सृष्टी में पहले आया, विचार बाद में। ईश्वर मात्र एक विचार है, उसका वस्तुगत अस्तित्व कहीं, किसी रूप में नहीं है, सिवा इन्सान के दिमाग के।

रविवार, 5 सितंबर 2010

शिक्षक दिवस : क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ‘शिक्षकों’ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए

    आज शिक्षक दिवस है। सारे अखबार या तो शिक्षकों की बदहाली अथवा प्रशंसा से भरे हुए हैं। अच्छी बात है, जो शिक्षक हमें एक सफल सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अपनी रचनात्मक भूमिका निभाकर एक महान कार्य करता है, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना एक सुशिक्षित व्यक्ति के लिए लाज़मी है और दूसरी और इस महती सामाजिक कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाली महत्वपूर्ण इकाई के प्रति सरकार के असंवेदनशील रुख की भर्त्सना करना भी उतना ही ज़रूरी है।
    सरकार का शिक्षकों को दोयम दर्ज़े के सरकारी कर्मचारी की तरह ट्रीट करना, उनके वेतन, भत्तों, सुख-सुविधाओं के प्रति दुर्लक्ष्य करना, उन्हें जनगणना, पल्स पोलियों, चुनाव आदि-आदि कार्यों में उलझाकर शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य से विमुख करना, इनके अलावा और भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक शिक्षक की भूमिका और महत्व को सिरे से खारिज करते से लगते हैं। लेकिन, इस सबसे परे, शिक्षकों की अपनी कमज़ोरियों, अज्ञान, कुज्ञान, अवैज्ञानिक चिंतन पद्धति, भ्रामक एवं असत्य धारणाओं के वाहक के रूप में समाज में सक्रिय गतिशीलता के कारण आम तौर पर मानव समाज का और खास तौर पर भारतीय समाज का कितना नुकसान हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय है।
    पिछले दो-तीन सौ साल मानव सभ्यता के करोड़ों वर्षों के इतिहास में, विज्ञान के विकास की स्वर्णिम समयावधि रही है। इस अवधि में प्रकृति, विश्व ब्रम्हांड एवं मानव समाज के अधिकांश रहस्यों पर से पर्दा उठाकर सभ्यता ने व्यापक क्रांतिकारी करवटें ली हैं। एक अतिप्राकृतिक सत्ता की अनुपस्थिति का दर्शन भी इसी युग में आविर्भूत हुआ है जिसकी परिणति दुनिया भर में मध्ययुगीन सामंती समाज के खात्में के रूप में हुई थी जिसका अस्तित्व ही ईश्वरीय सत्ता की अवास्तविक अवधारणा पर टिका हुआ था।
    भारतीय समाज में सामंती समाज की अवधारणाओं, मूल्यों का पूरी तौर पर पतन आज तक नहीं हो सका है और ना ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की समझदारी, आधुनिक चिंतन, विचारधारा का व्यापक प्रसार ही हो सका है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस समाज में ’सत्य-सत्य‘ का डोंड सामंती समय से ही पीटा जाता रहा हो उस समाज में ’सत्य‘ सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है।
    हमें आज़ाद हुए 62 वर्ष से ज़्यादा हो गए, देश आज भी सामंत युगीय अज्ञान एवं कूपमंडूकता की गहरी खाई में पड़ा हुआ है। धर्म एवं भारतीय संस्कृति के नाम अवैज्ञानिक क्रियाकलापों कर्मकांडों का ज़बरदस्त बोलबाला हमारे देश में देखा जा सकता है। क्या शिक्षक का यह कर्त्तव्य नहीं था कि वह ’सत्यानुसंधान‘ के अत्यावश्यक रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को इस अंधे कुएँ से बाहर निकालें ? क्या ’धर्म‘ की सत्ता को सिरे से ध्वस्त कर स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की संस्कृति को रोपने, वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करने की जिम्मेदारी ’शिक्षकों‘ की नहीं थी ? क्या शिक्षा के ज़रिए अज्ञान का अंधकार दूर ना कर पाने का भयानक अपराध ’शिक्षकों‘ के मथ्थे नहीं मढ़ा जाना चाहिए जिसने हमारे देश को सदियों पीछे रख छोड़ा है ? क्या मध्ययुगीन अवधारणाओं के दम पर विश्व गुरू होने का फालतू दंभ चूर चूर कर, वास्तव में ज्ञान की वह ’सरिता‘ प्रवाहित करना एक अत्यावश्यक ऐतिहासिक कार्य नहीं था जिसके ना हो सकने का अपराध किसी और के सिर पर नहीं प्रथमतः शिक्षकों के ही सिर पर है।
    अब भी समय है, प्रकृति मानव समाज एवं विश्व ब्रम्हांड के सत्य को गहराई में जाकर समझने और एकीकृत ज्ञान के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त अंधकार को दूर करने की लिए प्रत्येक शिक्षक आज भी अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है, बशर्ते वह अपने तईं ना केवल ईमानदार हो बल्कि सत्य के लिए प्राण तक तजने को तैयार हो।

रविवार, 8 अगस्त 2010

मुनि जी का अनर्गल प्रलाप ; क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।

          भोपाल में इन दिनों पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोग एक दिगम्बर मुनि के कड़वे प्रवचनों का आनन्द ले रहे हैं। वे दिगम्बर मुनि जब बैंडबाजे के साथ सड़क से गुज़रते हैं तो उनके अनुयाई महिला पुरुष तो श्रद्धा से सिर झुका लेते हैं मगर समाज के दूसरे वर्गों के लोगों को खासकर महिलाओं को परेशानी होती है या वे उन्हीं पागलों की तरह इन दिगम्बर मुनि जी को भी नज़रअन्दाज़ करती चलती हैं जो शहर में विक्षिप्त हालत में अपने बदन पर से कपड़े उतार फेंककर अक्सर यहाँ वहाँ घूमते दिखाई देते रहते हैं, यह एक प्रश्न है।
          एक सुसंस्कृत समाज में जहाँ भाँति भाँति के धर्म और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं, महज़ धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर किसी को इस तरह सड़क पर निर्वस्त्र घूमने की इजाज़त दी जानी चाहिए या नहीं इस प्रश्न को उठाने से परहेज करते हुए इससे भी बड़ा एक प्रश्न उठाने की आवश्यकता महसूस हो रही है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को भी कुछ भी ऊटपटांग बोलने की इजाज़त दी जानी चाहिए या धार्मिक प्रवचनों की आड़ में किसी प्रकार की अविवेकपूर्ण बातों को बर्दाश्त किया जाना चाहिए ?
          मुनि जी कहते हैं कि विधानसभा में खतरनाक लोग होते हैं, यह बात सुनकर सरकार के मुखिया से लेकर सारे राजनीतिज्ञ मंद मंद मुस्कुराते हुए मुनि जी से आशीर्वाद लेने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते हैं, उनमें से किसी के चेहरे पर मुनि जी के इस जुमले से कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। मुनि जी के कड़वे प्रवचन सुनने वाले प्रबुद्ध लोग भी इस बात से मंद मंद मुस्कुराकर रह जाते हैं, उनके चेहरे पर भी इस बात से कोई शिकन नहीं आती। ज़ाहिर है इस सत्य से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता मगर यह सत्य आम जनसाधारण के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण है जिसके कल्याण के लिए विधानसंभाएँ या संसद के ज़रिए प्रजातांत्रिक कर्त्तव्यों का निर्वहन किया जाता है। जब वहाँ खतरनाक लोग बैठे होंगे जिसका अर्थ है गुंडे, बदमाश, असामाजिक तत्व बैठे होंगे तो फिर आम जनता का क्या हश्र होगा यह समझा जा सकता है, मगर मुनि जी को इस संबंध में आगे कुछ नहीं कहना है।
          मुनि जी कहते हैं कि ’’अगर आप झुकना नहीं जानते तो फिर समझ लो की मुर्दा हो गए, क्योंकि मुर्दा ही ऐसा होता है जो कि झुकता नहीं।’’ अनुभवी लोग यही बात दूसरे अन्दाज़ में कहते हैं जब अंधड़ चलता है तो दूब-घास का कुछ नहीं बिगड़ता क्यों कि वह ज़मीन पर लेट जाती है परन्तु बड़े-बडे़ पेड़ जड़ से उखड़ जाते हैं। यहाँ घास के उदाहरण से जहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि आंधी गुज़रते ही जिस तरह घास दोबारा उठ खड़ी होती है फिर उसी तरह तनकर खड़े हो जाओ, वहीं मुनि जी के प्रवचन से यह समझ में आता है कि-अन्याय अत्याचार के सामने झुकना सीखो, गुंडे-बदमाश, असामाजिक तत्व जब दबाने की कोशिश करे तो उनके सामने झुक जाओ, देश में इतना कुछ अनाचार, झूठ-फरेब चल रहा है उस सबके सामने झुक जाओ, वर्ना मुर्दा कहलाओगे।
          एक दिन वे कह रहे थे, ‘‘यह देश बदलने वाला नहीं है इसलिए बेहतर है तुम खुद ही बदल जाओं।’’ इसका भी यही अर्थ है कि इस देश में जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ वर्तमान में मौजूद है वे कभी बदलने वाली नहीं है इसलिए तुम भी उन परिस्थितियों के गुलाम हो जाओ, उनके अनुसार आचरण करो। इसका अर्थ यह भी होता है कि देश में जात-पात, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर राष्ट्रीय हितों को ताक पर रख देते हैं, तुम भी रखो, एक दूसरे की गरदने काटते हैं तुम भी काटो, राजनीति में नीति नैतिकता की जो जर्जरता देखी जा रही है तुम भी उसी में लिप्त हो जाओ, आम जनता का खून चूसो, जिस तरह देश का पूँजीपति वर्ग आम जनता का आर्थिक शोषण कर रहा है तुम भी करों, सभी उत्कृष्ट मूल्यों को तिलांजलि देकर एक जानवर की तरह का जो आचरण आजकल जन मानस में देखा जा रहा है, तुम भी उसी तरह का आचरण अपना लो, आदि आदि।
          रोजाना वे दिगम्बर मुनि इस प्रकार की ऊटपटांग बातें करते रहते हैं और भी कई स्वयंभू गुरु इस तरह कि आधारहीन, अवैज्ञानिक बातों से पढ़े-लिखे लोगो तक को भरमाते रहते हैं, मगर सबसे ज्यादा ताज़्जुब की बात यह है कि देश के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, संस्कृति कर्मी, प्रगतिशील राजनैतिक पार्टियाँ, मानव अधिकार संगठन, महिला संगठन, और तमाम व्यक्तिगत एवं संस्थागत रूप से सामाजिक जद्दोजहद में लगे लोग इस विषय में चुप्पी साधे रहते हैं। क्या यह चुप्पी खतरनाक नहीं है।