सोमवार, 18 जनवरी 2010

कामरेड बसु केसरिया सलाम


हालाँकि यह उपयुक्त मौका नहीं है कि किसी दिवंगत व्यक्ति की आलोचना की जाए परन्तु जब देखा जाता है कि सारी पार्टियाँ, पूँजीवादी अखबार और तमाम ब्लॉगर बुद्धिजीवी तक एक स्वर में कह रहे हैं कि ‘‘साम्यवाद का स्तंभ ढह गया’’ तब मजबूर होकर इस मामले में अपनी राय ज़ाहिर करना पड़ रही है। साम्यवादी आन्दोलन की हालत आज किसी से छुपी नहीं है। पूँजीवादियों से ज़्यादा साम्यवादी विचार और आन्दोलन को यदि किसी ने नुकसान पहुँचाया है तो देश की कम्युनिस्ट पार्टियों ने और इसके लिए सबसे ज़्यादा अगर कोई जिम्मेदार है तो वह ज्योतिबाबू की पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी।

बहुत ही अफसोस की बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लम्बे शासन काल में जब यह मूल दिशा से पथभ्रष्ट होकर पूँजीवादियों के हाथ का खिलौना बनती चली गई, सर्वाधिक समय के लिए ज्योतिबाबू ही पश्चिम बंगाल में सत्ता के मुखिया रहे, और यही वह समय रहा जब पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के गुंडों ने प्रदेश की आम जनता का जीना हराम किया। प्रदेश में गरीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि का तांडव भी खूब चला, अब भी चल रहा है। आज भी यह तथ्य मौजू है कि देश में कहीं भी अगर वेश्यावृति सबसे ज़्यादा पाई जाती है तो वह है पश्चिम बंगाल।
यह एक बेहद आश्चर्य की बात है कि जिस राज्य में विगत कई वर्षों से दूसरी कोई राजनैतिक पार्टी अपनी जगह तक नहीं बना पाई, जिस राज्य को साम्यवादी विचारधारा एवं आंदोलन के प्रचारप्रसार के लिए सुविधा के रूप में एक पूरे राज्य की मशीनरी उपलब्ध थी वहाँ पूँजीवादी बुराइयों का घर आखिर कैसे बन पाया ? एक पूरे राज्य की सत्ता की मशीनरी के उपयोग के बावजूद मार्क्सवादी आन्दोलन मात्र तीन राज्यों में ही क्यों पैर पसार पाया। बाकी राज्यों में क्यों मार्क्सवादी पार्टी का सांगठनिक ढॉचा बेहद कमज़ोर स्थिति में रहा। वस्तुगत परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में इन सब प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वास्तव में अगर किसी व्यक्ति को जवाबदेह होना चाहिये था तो, सत्ता-संगठन के अत्यंत नज़दीक होने के कारण वे ज्योतिबाबू ही हो सकते थे, जो अब इस दुनिया में नहीं है। कोई कह सकता है कि यह सवाल तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो से पूछा जाना चाहिए, मगर हमारा कहना है कि, पोलिट ब्यूरो ही यदि वर्ग चेतना से लैस होता तो ना ज्योतिबाबू पोलिट ब्यूरो पर हावी हो पाते और ना पोलिट ब्यूरो साम्यवाद की अर्थी निकलती देखकर भी मूक दर्शक बना रहता।
दरअसल ज्योतिबाबू समेत पूरी मार्क्सवादी पार्टी इस मुगालते में रही कि एक ऐसा पूँजीवादी संस्थान ‘संसद’, जिसे पूँजीवाद ने अपने स्वार्थ को साधने के लिए एक हथियार के रूप में ईजाद किया था, उस हथियार पर काबिज होकर वे सर्वहारा, मजदूर वर्ग का भला कर लेंगे। ज्योतिबाबू के नेतृत्व का सम्पूर्ण काल यह साबित करता है कि मार्क्सवादी पार्टी के सारे धुरंधर मिलकर भी इस पूँजीवादी हथियार को सर्वहारा के पक्ष में उपयोग नहीं कर पाए, परन्तु पूँजीवादी शक्तियों ने, पहले से ही गलत बुनियाद पर खड़ी, सम्पूर्ण मार्क्सवादी पार्टी का वर्ग चरित्र बदलकर उसे पूरी तौर पर अपने पक्ष में उपयोग करने में एकतरफा सफलता पाई। अगर ऐसा नहीं होता तो ज्योतिबाबू का स्वयं का पुत्र इस पूँजीवादी व्यवस्था का लाभ उठाने वाला उद्योगपति नहीं होता और उनकी पार्टी के सबसे बड़े प्रशंसक ‘‘रतन टाटा’’ नहीं होते जिन्होंने सिंगुर में सारी दुनिया के सामने ज्योतिबाबू की पार्टी को अपना बंधुआ मजदूर बनाकर उपयोग कर लिया। दरअसल सिंगुर में बेशर्मी से पूँजीवाद की गोद में बैठकर आम जनता पर गोलियाँ चलवाने वाले वीर तो थे वर्तमान मुख्यमंत्री ‘बुद्धदेव’ मगर पतित सत्ता के वर्ग चरित्र के साथ संगठन के वर्ग चरित्र के निम्नतम स्तर तक पतन के दौरान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लम्बे समय तक काबिज़ ज्योतिबाबू ही थे। दुनिया भर के पूँजीपतियों को आमंत्रित कर पश्चिम बंगाल उनके हवाले कर देने की कवायद ज्योतिबाबू के नेतृत्व में प्रारंभ हुई जिसका कारण मार्क्सवादी सोच-विचार से ज़्यादा पूँजीवादी सरोकारों को सलाम करना है।
ज्योतिबाबू के निधन पर आज चारों ओर वही जय-जयकार मची है जो किसी पूँजीवादी नेता के दिवंगत होने पर मचती है। यहाँ तक कि संघ के निर्देशों-आदेशों पर चलने वाली मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी उनके गम में एक दिन का राजकीय शोक मना रही है। संघ का इस मामले में रुख क्या होगा यह तो पता नहीं परन्तु कट्टर कम्युनिस्ट विरोधियों का यह व्यवहार आश्चर्यचकित कर रहा है। ज्योतिबाबू अगर सचमुच मार्क्सवादी विचारधारा के सच्चे वाहक होते तो संघ और भाजपा खेमे में पटाखे भले ना फूटते मगर यह राजकीय शोक का कार्यक्रम भी शायद नहीं होता जिसे देखकर ऐसा लग रहा है मानो भगवा बिग्रेड उनके सम्मान में नारे लगा रही हो ‘‘कामरेड बसु केसरिया सलाम’’।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत तीखी आलोचना। लेकिन बहुत सही भी।

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  2. अगर आप वाद से उपर उठ कर व्यक्ति को सम्मान देना सीख लें तो आपको आश्चर्य नहीं होगा.

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  3. प्रिय बन्धु
    आप मार्क्स, एंगेल, स्टालिन,माओ को सम्मान देकर बताये. व्यक्ति की पहचान उसकी विचारधारा की शुद्धता से होती है. सूडो मार्क्सवादी को पूंजीपति ही सम्मान दे सकते है सर्वहारा वर्ग नहीं.

    दृष्टिकोण

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  4. किसी देश के वस्तुगत हालात आपको मजबूर कर सकते हैं कि विपर्यय के दौर में रणकौशलात्मक (tectics ) तौर पर आप ससंद का प्रयोग करें. भले ही आप के सांसदों की संख्या कम हो लेकिन अगर आपके पास एक बोलेश्विक चरित्र की कम्युनिस्ट पार्टी है तो संसद का प्रयोग आप अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए कर सकते हैं. इसका अर्थ यह नहीं होता है कि आपने सिद्धांतों से समझौता किया है. लेकिन रणकौशल और सिद्धांत आपसे में तब गढ़मढ़ हो जाते हैं जब आपकी नियत में खोट होता है. क्रांति आपके एजेंडा पर नहींहोती. समय पाकर आपका रणकौशल ही सिद्धांत बन जाता है जिसे न्यायोचित सिद्ध करने के लिए आप कोई कसर नहीं छोड़ते.

    एक खबर के अनुसार सीपीएम के लाखों कार्यकर्त्ताओं ने इस बार अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं करवाया है. अंदाज़ा लगाये उस पार्टी की दशा का जिसके सदस्यों की संख्या लाखों में हो. इस प्रकार की पार्टी की तुलना बोलेश्विक चरित्र की किसी सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी जिसके सदस्यों की संख्या बेशक कुछ हज़ार का आंकड़ा न पर कर पाए, से करना बेमानी होगा.

    सीपीएम जैसी कुटील संशोधनवादी पार्टी अपनी कतारों को संसद को रणकौशलात्मक (tectics ) के तौर पर इस्तेमाल करने का सबक सिखाती रही है. जबकि निकला यह है कि कतारों का वह भाग जो क्रांतिकारी और ईमानदार था, समयपाकर अपने विपरीत सोशल फासिस्टों की फ़ौज में बदल गया है. अवसर मिलने की देर होती है कि चीजें अपने विपरीत में बदलने के लिए अभिशप्त होती हैं.

    ज्योति बासु क्या थे और उन्हें सम्मान कितना और किससे मिलना चाहिए, जैसे प्रश्नों का उत्तर तो सर्वहारा वर्ग की विरोधी पार्टियों और लोगों ने दे ही दिया है. जहाँ तक पार्टी और विचारधारा से काटकर किसी व्यक्ति विशेष के प्रति सम्मान का संबंध है तो एक व्यक्ति के हिस्से में ऐसा कुछ बचता ही क्या है जो सम्मानीय हो ?

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